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फ़ारस की खाड़ी में भारत रास्ता कैसे भटक गया

भारत को चाहिए कि वह गलत अवधारणाओं पर हाल में बनायी गई विध्वंसकारी खाड़ी नीति के परिपथ को चुपचाप दफन कर दे और ईरान-भारत सहयोग को पुनर्जीवित करने के लिए चुस्ती-फुर्ती से कदम उठाए।
फ़ारस की खाड़ी में भारत रास्ता कैसे भटक गया
प्रतीकात्मक चित्र:  न्यू इंडियन  एक्सप्रेस के सौजन्य से। 

भारत-र्ईरान संबंधों में पिछले एक साल के दरम्यान एक के बाद एक दो धक्के लगे हैं। ईरान ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अपनी दो परियोजनाओं से भारत को बेदखल कर दिया है, जो मध्य और लंबी अवधि के परिप्रेक्ष्य में द्विपक्षीय संबंधों को एक ऊंचाई पर ले जाने के वादे से लबरेज था।

भारत को पहला झटका जुलाई में लगा, जब तेहरान ने अफगानिस्तान की सीमा से लगे अपने चाबहार बंदरगाह से लेकर जाहेदान तक  रेल लाइन बिछाने की परियोजना से भारत को अलग कर दिया। 

दूसरा  आघात, ईरान का वह फैसला है, जिसमें उसने फारस की खाड़ी में फरजाद बी गैस फील्ड को विकसित करने का ठेका भारत को न देकर एक स्थानीय कम्पनी को दे दिया जबकि इस काम पर पहली दावेदारी भारत की बनती थी। इसलिए कि उसकी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड ने ही 2008 में इस फील्ड की खोज की थी। सरल शब्दों में कहा जाए तो ईरान ने इस परियोजना से भारत को बेदखल कर दिया है।

इन दोनों ही मामलों में लापरवाही भारत की तरफ से हुई। उसने सरकारों के स्तर पर द्विपक्षीय हितों को लेकर संतोषजनक बातचीत की शुरुआत करने में काफी देर कर दी। इसकी वजह से, तेहरान के पास अपनी उन परियोजनाओं के त्वरित क्रियान्वयन के लिए भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के बिना ही आगे बढ़ने के सिवा और कोई चारा नहीं रह गया था।

निस्संदेह यह एक राजनीतिक निर्णय था, जो तेहरान ने किया। दोनों परियोजनाएं न केवल उभयपक्षीय संबंधों के लिए बल्कि क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से भी कार्यनीतिक महत्व की थीं। जबकि फरजाद बी गैस फील्ड प्रोजेक्ट भारत की ऊर्जा सुरक्षा क्षेत्र को मजबूती देता तो चाबहार-जाहेदान रेल लाइन चारों ओर से भूमि से घिरे देश अफगानिस्तान तथा खास कर मध्य एशिया क्षेत्र के साथ क्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक अहम जुड़ाव साबित होता। इस रेल लाइन परियोजना के छिन जाने से अफगानिस्तान में एक असरकारी राजनीतिक भूमिका निभाने की भारत की क्षमता क्षीण हो सकती है। 

बुनियादी रूप से, भारत को मिले इस आघात के लिए उसकी ईरान के प्रति और कहेंं कि, समूची फारस की खाड़ी को लेकर उसकी सामरिक नीतियों में स्पष्टता की कमी एक बड़ी वजह है। फारस की खाड़ी में भारत की क्षेत्रीय नीतियों में हाल के तीन-चार वर्षों के दौरान यानी 2017 से ही कुछ गंभीर मतिभ्रम बन आए हैं, जिन्होंने ईरान के खास सामरिक हितों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। 

संंक्षेप में, यह फारस की खाड़ी में ईरान और जीसीसी देशों के बीच मौजूदा चिर स्थायी अंतर्देशीय तनाव मेंं किसी का भी पक्ष नहीं लेने की भारत की परम्परागत नीति में एक स्पष्ट प्रस्थान है। भारत अपने को अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रायोजित ईरान-विरोधी क्षेत्रीय मोर्चे के देशों के साथ पहचाना जाने लगा है, जिनमें इजरायल, सऊदी अरब एवं संयुक्त अरब अमीरात सब शामिल हैं।

अमेरिका ने भारत को इजरायल, सऊदी-यूएई मोर्चे के संचालन के लिए भारत को एक ‘स्विंग’ स्टेट होने के लिए किस हद तक उत्साहित किया है या कि भारत ने खुद से अपने रुख में यह ‘बदलाव’ किया है, यह विवाद का मुद्दा है। इस बात की अधिक संभावना है कि उसके परिवर्तन में दोनों का मिश्रण है, पश्चिम एशिया के भूराजनीतिक क्षेत्र के भारत के गहरे दोषपूर्ण आकलन से निकलने का प्रयास है। 

भारत की नीति व्यापक रूप से इस अनुचित धारणाओं पर रची जा रही है कि अमेरिका की अगुवाई वाला इजरायल-सऊदी-अमीरात मोर्चा क्षेत्रीय राजनीति में एक फायदेमंद हल है, जो अपरिवर्तनीय रूप से बढ़ रहा है और अगर भारत भी इसमें उनका सहयात्री बना तो उसे भी इसका लाभ मिलेगा। 

दरअसल, भारतीय रणनीतिक समुदाय खास तौर पर इस दुर्घटना की वजह हैं। पिछले अगस्त में अब्राहम अरब समझौते पर दस्तखत के साथ, भारतीय विश्लेषकों ने यह मान लिया था कि अगर अमेरिका-इजरायल-सऊदी-अमीरात धुरी से सट कर रहा जाए तो फारस की खाड़ी और पश्चिमी एशियाई क्षेत्र की क्षेत्रीय कार्य नीतियां भारत को बेहतर तरीके से फायदा पहुंचाएंगी। .

उस समय, अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस  में ओ-पेड पेज पर इंडिया’ज जिओ पॉलीटिकल इंटरेस्ट्स आर इन क्लोज एलाइनमेंट विद मॉडरेट अरब सेंटर और इंडिया मस्ट सीज ए न्यू स्ट्रैटेजिक पॉसिबिलिटीज विद दि गल्फ  शीर्षक से प्रकाशित दो लेखों और इजरायल ऑफ टाइम्स में एक पूर्व भारतीय राजनयिक द्वारा व्हाई इंडिया सपोर्ट  अब्राहम अकॉर्ड  शीर्षक से छपे एक लेख में इस नीति को मजबूती से समर्थन किया गया है। (here, here and here)  

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमेरिका-इजरायल-सऊदी-अमीरात धुरी के मोहक तर्कों का प्रचार दिल्ली की सत्ता के गलियारे के कुछ कानों में मिश्री घोल रही थी। वे भारत और उनके बीच इस नवजात अर्ध गठबंधन को गंभीरता देने के लिहाज से नीति-परिपथ के एकदम मुफीद हुए। धीरे-धीरे यह संबंध अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन तक पहुंच गया, जो पश्चिमी प्रशांत से ले कर हिंद महासागर तक के विस्तृत भूराजनीतिक दायरे में चीन के खिलाफ बनाया गया था। 

भारत क्या ईरान को अपने इस क्षेत्र में सबसे अलग-थलग करने तथा उसकी सत्ता को उखाड़ फेंकने के अमेरिकी-इजरायली-सऊदी-अमीरात के मंसूबों से वाकिफ नहीं था? निश्चित रूप से, भारत को ट्रंप और उनके क्षेत्रीय सहयोगियों के मंसूबों को लेकर कोई संदेह नहीं रहा होगा। लेकिन सीधे-सरल शब्दों में कहें तो दिल्ली को इस पर कोई ऐतराज नहीं था जबकि ईरान परम्परागत रूप से उसका एक दोस्त देश रहा है। उसने भारत के अहम हितों का कभी अतिक्रमण नहीं किया और भारत के साथ लगातार एक घनिष्ठ मित्रवत साझेदारी चाहता रहा था। 

निस्संदेह, तेहरान ने भारत के रुखों में हो रहे इन बदलावों को भांपना शुरू कर दिया। जब दिल्ली ने यरूशलेम को इजराइल-राजधानी की वाशिंगटन के मान्यता (दिसम्बर 2017)  देने पर मौन प्रतिक्रिया दी, जिससे ने उसके एक नये विचार-मंथन का संकेत मिल गया था। फिर अब्राहम समझौता ( अगस्त 2020) का दिल्ली ने जिस तरह से उत्साह से स्वागत किया, उसने तेहरान को बेदार कर दिया होगा। 

दरअसल, दिल्ली तब भी चुप्पी साधे रही जब ट्रंप के हुक्म पर ईरान की कुद सेना के कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या (जनवरी 2020) कर दी गई थी और जब इजरायल ने ईरान के शीर्ष वैज्ञानिक की हत्या कर दी थी। दिल्ली ने संयुक्त अरब अमीरात तथा सऊदी अरब के साथ सुरक्षा सहयोग के मामले में अपने खास रिश्तों को छिपाने में कोई हिचक नहीं हुई जबकि दोनों देशों में ईरान को लेकर दुश्मनी बढ़ रही है। इसका सिंहावलोकन करें, तो भारत वास्तविकताओं की धरती पर पांव धरे बिना एक काल्पनिक लोक में परिभ्रमण कर रहा था। 

फिर तो अवश्यंभावी घटनाएं अपने तेज अनुक्रम में घटित होती चली गईं-ट्रंप नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हार गए;  जोए बाइडेन अमेरिका के सऊदी अरब के साथ अपने पहले से चले आ रहे गठबंधन को नई हुकूमत के दौर में निगरानी में डाल दिया; अमेरिका पश्चिम एशिया क्षेत्र में अपने को सीमित करने पर विचार करने लगा ताकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र पर पर्याप्त ध्यान दिया जा सके; फिलिस्तीन के मसले पर अमेरिका का रुख फिर से अपने डिफॉल्ट स्थिति में आ गया; और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इजरायल, सऊदी अरब तथा संयुक्त अरब अमीरात के विरोधों को दरकिनार करते हुए, बाइडेन का ईरान के साथ बातचीत करने का फैसला करने जैसी घटनाएं हुईं। 

बेशक, ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने, जिसका फैसला अब होने ही वाला है, से फारस की खाड़ी में सुरक्षा परिदृश्य को पूरी तरह एक दिशा में बदल देगा। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य में संभावित व्यापक परिवर्तन को भांप कर पहले से ही ईरान से अपने संबंध सुधार के लिए धक्का-मुक्की कर रहे हैं। इससे भी बढ़ कर, अब्राहम समझौते को लेकर बनाई गई धारणाओं की अकाल मौत हो गई है। गाजा में मौजूदा जारी संघर्ष ने इजरायल पर उसके अलग-थलग होने पर दबाव बना दिया है। 

इस दरम्यान, ईरान मौज में है। अमेरिकी प्रतिबंधों का हटना औऱ इसके बाद विश्व की अर्थव्यवस्थाओं के साथ तेजी से समागम ईरान की भू राजनीति को नाटकीय रूप से बदल देगा। ईरान एक समृद्ध देश है, और भारत के सहयोग के साथ या इसके बिना भी, वह आर्थिक पुनर्निर्माण के अपने महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों को प्रारंभ करेगा। इसका प्रमाण, चीन के साथ हाल ही में किया गया 400 बिलियन डॉलर का आर्थिक सहयोग समझौता है। 

भारत के परिप्रेक्ष्य से, ईरान के सऊदी अरब के साथ समस्याग्रस्त संबंध में सुधार की परिघटना को भारतीय नीति में एक नयी गत्यात्मकता लाने के एक अवसर के रूप में उपयोग करना चाहिए। भारत को चाहिए कि वह गलत अवधारणाओं पर हाल में बनायी गई विध्वंसकारी खाड़ी नीति के परिचालन पथ को चुपचाप दफन कर दे और ईरान-भारत सहयोग को पुनर्जीवित करने के लिए चुस्ती-फुर्ती से कदम उठाए। ईरान से तेल खरीद इस दिशा में एक पहला कदम हो सकता है। ध्यान रहे कि, तेहरान जाने वाली सड़क पर जल्दी ही भीड़-भाड़ बढ़ने वाली है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

How India Lost its Way in Persian Gulf

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