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किसी चुनाव में कितने एक्स फैक्टर हो सकते हैं? ऐसा जान पड़ता है, कई

हाल ही में सम्पन्न हुए बिहार चुनावों में कई चुनावी पंडितों का विश्लेषण देखने में आया है लेकिन जो कुछ भी इस बीच देखने में आया है, उससे शायद ही कुछ मदद मिलती है।
चुनाव

इस बार का बिहार चुनाव किसी पेंडुलम की तरह एक छोर से दूसरे छोर पर झूलता रहा। इसकी शुरुआत कथित “मोदी लहर” के साथ हुई, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर भी संयुक्त तौर पर जारी थी। यह सत्ता-विरोधी लहर नीतीश के जेडी-यू के खिलाफ तो देखने को मिल रही थी, लेकिन इसके निशाने पर बीजेपी नहीं थी, हालाँकि वे एक दूसरे के सहयोगी हैं जिन्होंने मिलकर राज्य में शासन चलाया था।

ऐसा भी नहीं था कि सरकार से बाहर रहकर ही बीजेपी ने बिहार सरकार को अपना समर्थन दिया हो। इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश के साथ मिलकर इन चुनावों में प्रचार किया था और मुख्यमंत्री के लिए लोगों से मतदान करने के लिए कहा था। लेकिन लोगों ने बीजेपी के पक्ष में तो मतदान किया पर जेडी-यू को नहीं किया। तो क्या लोगों ने मोदी की माँग का अनुसरण किया है, या उन्होंने उनकी राजनीति को ख़ारिज कर दिया है? क्या चुनावी नतीजों को देखते हुए मोदी कोई मायने रखते हैं, या नहीं रखते?

बाद में यह कहा गया कि लोग असल में मोदी या बीजेपी से नाखुश नहीं थे, लेकिन क्यों- इसका कारण कभी नहीं बताया गया। मुझे नहीं लगता कि हमारे पास इस सवाल का कोई जवाब है। प्रवासी संकट के लिए नीतीश को जिम्मेदार ठहराया गया था, क्योंकि जब वे देश के विभिन्न कोनों से पैदल चलकर बिहार में घुसने की कोशिश कर रहे थे तो वे उन्हें नहीं आने देना चाहते थे। जबकि मोदी, जिनके द्वारा इस कठोर लॉकडाउन को असल में थोपा गया था, जो उनके पलायन की असली वजह बना, उन्हें इस सबके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। प्रवासियों ने यह भेदभाव क्यों किया? इसके स्पष्टीकरण में हमें बताया गया कि असल में प्रवासी इतने भी नाराज नहीं थे।

इसके बाद पेंडुलम एक बार फिर से घूमने लगता है, जिसमें दावा किया जाता है कि आरजेडी की लहर चल रही है और राज्य में 10 लाख नौकरियाँ सृजित करने को लेकर राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव के नारे के कारण जमीनी स्तर पर समर्थन तैयार होता जा रहा है।

उन्होंने जिस प्रकार से अपनी सभाओं में विशाल एवं उत्साही भीड़ को अपनी ओर आकृष्ट किया, वैसा उत्साह मोदी तक की सभाओं में भी देखने को नहीं मिला था। व्यक्तिगत तौर पर देखें तो आरजेडी को 75 सीटें हासिल हुईं और बीजेपी को सिर्फ एक सीट कम के साथ 74 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई है।

परिणामों के आने के बाद से महागठबंधन की हार का ठीकरा कांग्रेस पार्टी के सर फोड़ा जा रहा है, और तथ्य यह है कि इसने अपनी हैसियत की तुलना से कहीं ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा था (70, जिसमें से इसने 19 जीते)। लेकिन इसने भी सिर्फ मामूली अंतर ही बनाने का काम किया था, क्योंकि बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन सिर्फ आधे रास्ते को ही किसी तरह पार कर पाया है। महागठबंधन की तुलना में इसे कोई बहुत ज्यादा सीटें जीतने में कामयाबी हासिल नहीं हो सकी है, और कई जगहों पर तो जीत का अंतर बेहद मामूली है।

बेहद कम अंतर ने परिणामों को कहीं अधिक प्रमाणिक बना डाला है, यह इस बात का संकेत देने के सन्दर्भ में है कि यह चुनावी संघर्ष कितना कांटे का था। इसलिये जवाबी व्याख्यात्मक तर्क पेश किया जा रहा है कि जेडी-यू के मतदाताओं ने जहाँ बीजेपी के पक्ष में अपने मत स्थानांतरित किये, लेकिन वैसी ही प्रतिक्रिया दूसरी तरफ से देखने को नहीं मिली है- भले ही एनडीए के चुनावी अभियान में नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश क्यों न किये गए हों।

राम विलास पासवान के बेटे चिराग के नेतृत्व वाले दल लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने इसे और अधिक रहस्यमयी बनाने का काम किया है, इस बार वह एनडीए से स्वत्रन्त्र होकर चुनाव लड़ रही थी। उनकी तरफ से नीतीश कुमार के खिलाफ जमकर हमले किये गए, लेकिन इस पूरे अभियान के दौरान मोदी की प्रशंसा में गीत गाये गए।

चिराग ने एक बार भी यह सवाल नहीं खड़ा किया कि मोदी उस “भ्रष्ट और अक्षम” नीतीश के साथ क्यों जा रहे हैं, जैसा कि वे लगातार आरोप लगा रहे थे? चिराग कम से कम सार्वजनिक तौर पर अपने “मालिक” से यह अपील कर सकते थे कि वे नीतीश के साथ अपनी साझेदारी पर एक बार फिर से सोच-विचार करें। लेकिन इतना ही काफी नहीं था। इस बार के राज्य चुनावों में चिराग के एनडीए से बाहर निकल जाने के बावजूद मोदी पूरी तरह से खामोश बने रहे थे।

इसके बजाय कुछ ने पाया कि एलजेपी के लिए आरएसएस भी प्रचार में लगी हुई थी, यह जानते हुए कि शायद ही उसे कोई सीट हासिल हो सके। आम तौर पर यही निष्कर्ष निकाला गया था कि बिहार में एलजेपी एक “वोट-कटुआ” पार्टी के तौर पर है, और जीतने के मकसद से चुनावी मैदान में नहीं उतरी है। अब सवाल यह है कि एलजेपी ने इस प्रस्ताव को क्यों स्वीकार किया, खासतौर इसलिए क्योंकि चिराग ने एक युवा नेतृत्व के तौर पर हाल ही में पार्टी का कामकाज संभालना शुरू किया है और आदर्श तौर पर उनके मन में भी तेजस्वी की तरह ही खुद को स्थापित करने की ख्वाहिश रही होगी।

वहीँ बहुजन समाज पार्टी का एआईएमआईएम के साथ गठबंधन बना हुआ था, जिसने पाँच सीटें जीतने में में कामयाबी हासिल की है। लेकिन एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने (अभी तक) बहुसंख्यकवाद और आरएसएस के खिलाफ अपने सुस्पष्ट विरोध के बावजूद दोनों में से किसी भी एक धड़े को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया है।

ओवैसी ने कहा है कि वे आगे के घटनाक्रम को देखते हुए अपना मन बनायेंगे, लेकिन क्या इसका अर्थ यह नहीं कि वे एनडीए को अपना समर्थन देने को लेकर विचार नहीं कर रहे हैं, यदि ऐसी जरूरत पड़ी तो? क्या ऐसे में कह सकते हैं कि ओवैसी ने महागठबंधन को मिलने वाले मुसलमानों के वोटों को काटने का काम किया है? क्या मुसलमान इतने अंधे हो चुके थे कि मुसलमानों के लिए जो स्थितियाँ बनी हुई हैं, उसे देखते हुए भी उन्होंने एक “मुस्लिम पार्टी” को अपना वोट देने का फैसला किया, जबकि उन्हें पता था कि महाराष्ट्र सहित ओवैसी किस प्रकार की भूमिका अदा करने में लगे हैं?

हमें नहीं मालूम कि इस चुनाव में दलितों या पिछड़े मतदाताओं ने एआईएमआईएम को इसके सहयोगी दल बीएसपी एवं एनडीए के पूर्व सहयोगी दल उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के कहने पर यदि मतों के स्थानांतरण के प्रति समर्थन दिया था तो यह किस किस मात्रा में संभव हो सका। बीएसपी और एआईएमआईएम का संयुक्त मत प्रतिशत जहाँ 2.73% था, वहीँ आरएलएसपी को 1.77% मत प्राप्त हुए हैं, जो उनके संयुक्त मतों के योग को 4.5% तक ले जाता है।

सीमांचल में भले ही मुसलमानों ने ओवैसी को वोट दिया हो, लेकिन दलित अभी भी एलजेपी के साथ बने हुए हैं, जबकि निचले तबके के ओबीसी नीतीश कुमार की वजह से एनडीए के साथ ही बने रहे। इसके साथ ही इन चुनावों में एक और एक्स फैक्टर कम्युनिस्ट पार्टियों के तौर पर काम कर रहा था, जिसने कुल 29 सीटों पर चुनाव लड़कर 16 सीटों को जीतने में सफलता हासिल की है।

वोटों की गिनती के साथ छेड़छाड़ के आरोपों पर बीजेपी के प्रवक्ताओं का तर्क यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने कई सीटों पर जीत दर्ज की है, जो इस बात का सबूत है कि चुनाव निष्पक्ष ढंग से संपन्न हुए हैं। फिर भी यह सवाल अपनी जगह पर मौजूद बना हुआ है कि यदि कम्युनिस्ट पार्टियों को सफलता इस वजह से मिल पाई है क्योंकि इस बार बिहार में सामाजिक और आर्थिक माँगों के चलते नैरेटिव में बदलाव आ गया था, (यहाँ तक कि आरजेडी तक ने अपने अभियान में आर्थिक मुद्दों को उठाया था) तो ऐसे में बीजेपी कैसे अच्छा प्रदर्शन कर पाने में कामयाब रही?

यदि आर्थिक न्याय के मुद्दे ने इस बार के चुनाव के नैरेटिव को नौकरियों और आजीविका जैसे मुद्दों पर निर्धारित कर दिया था, तो लोगों ने फिर बीजेपी को वोट क्यों दिया? इसको लेकर हमें बताया गया, कि ऐसा होता है क्योंकि ऐसी माँगों से जाति का समीकरण नहीं बदलता, और इसके अतिरिक्त मोदी फैक्टर ने बीजेपी के प्रति वोटों के झुकाव को बनाये रखा था।

हालाँकि हमें यह भी समझाया जाता है कि जब मोदी फैक्टर काम करने लगता है तो जाति का सवाल कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि तमाम सामाजिक दरारों से आने वाले लोग उन्हें वोट करते हैं। लेकिन फिर सवाल उठता है कि वे ऐसा क्यों करेंगे?

आखिरकार हमें यह भी बताया गया कि हालाँकि विधानसभा चुनावों में मोदी की लोकप्रियता कोई कारक नहीं बन पाती, जैसा कि आम चुनावों में यह कारगर दिखाई देता है। इसके सुबूत के तौर पर वे हमें मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों को गिनाने लगते हैं।

इस सबके बावजूद, इन सभी कारकों के संयोजन से जो अनुमान एक नैरेटिव के तौर पर तब्दील होते नजर आते हैं, का अंत नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री के चौथे कार्यकाल पर जाकर खत्म होता दिखता है। लेकिन एक बार फिर से कहानी यहीं पर खत्म नहीं हो जाती।

पिछले चुनाव की तुलना में एनडीए को इस बार कम सीटें मिल पाई हैं, लेकिन बीजेपी के खाते में कहीं ज्यादा सीटें आई हैं, जबकि जेडी-यू को आनुपातिक तौर पर कम सीटों से संतोष करना पड़ेगा। इसके बावजूद नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनाए जायेंगे, जबकि बीजेपी नए तेवर के साथ और भी अधिक जमीन हथियाते हुए जेडी-यू के सामाजिक आधार को निगलती नजर आ रही है।

संदेह अब इस बात को लेकर बना हुआ है कि क्या बीजेपी कुछ अंतराल के बाद नीतीश को अपदस्थ करने जा रही है और बिहार के नए मुख्यमंत्री के तौर पर बीजेपी नेता को चुने जाने को लेकर सौदेबाजी में जायेगी। चिराग पासवान को इस सबमें क्या हासिल होने जा रहा है? वे बिहार में एनडीए से निकल गए थे लेकिन केंद्र में वे एनडीए का हिस्सा बने हुए हैं। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें केंद्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह ही समायोजित कर लिए जाने की उम्मीद की जा सकती है?

क्या ओवैसी इतने से संतुष्ट हो जाने वाले हैं, और क्या इससे उन्हें नैरेटिव प्रोजेक्ट करने में मदद मिलने जा रही है कि बाकी सभी पहलुओं के बावजूद मुसलमान अब किसी “मुस्लिम पार्टी” को वरीयता देने लगे हैं? क्या ओवैसी उस आवश्यक मुस्लिम काउंटर-नैरेटिव को मुहैय्या करा पाने में सफल होंगे जो कि कहीं न कहीं गायब हो चला था और बिहार में सामाजिक न्याय के व्यापक अनुष्ठान के तहत डूब चुका था?

बीजेपी और ओवैसी का यह विस्तार सिर्फ बिहार में ही नहीं बल्कि हर जगह गलबहियाँ करता नजर आ रहा है। क्या कुछ इसी प्रकार का कवच तेलंगाना में भी एआईएमआईएम ने बीजेपी को मुहैय्या नहीं कराया है?

ओवैसी धर्मनिरपेक्षता के बहुत बड़े अलम्बरदार नजर आते हैं लेकिन वे कांग्रेस, आरजेडी और लेफ्ट को बीजेपी/आरएसएस के समान ही मानते हैं और कहते हैं कि वे चाहे जिस गुट के हिस्से के तौर पर हों, वे उनमें कोई फर्क नहीं देख पाते हैं- और यह कि वे “सभी एक जैसे हैं।” जबकि मोदी का कहना है कि ये चुनाव परिणाम लोकतंत्र की जीत के तौर पर हैं!

लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

How Many X-Factors Can an Election Take? Many, it Seems

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