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चमकी बुखार: बच्चों की मौत के लिए लीची से अधिक आर्थिक असमर्थता, सरकारी लापरवाही जिम्मेदार

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक चमकी बुखार से प्रभावित 96.5 प्रतिशत बच्चे वंचित वर्ग और अनुसूचित जाति/जनजाति के थे।
chamki fever

इस साल बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) यानी चमकी बुखार के प्रकोप के चलते 180 से अधिक बच्चों की मौत हो गई थी। वैसे यह आंकड़ा सरकार का है जबकि लोगों का दावा है कि मरने वाले बच्चों की संख्या इससे बहुत अधिक है। वैसे यह घटना बिहार सरकार के खराब स्वास्थ्य और चरमराते बुनियादी ढांचे को चित्रित करता है।
 
फिलहाल इतनी मौतें हो जाने के बाद भी यह पता नहीं चल सका कि इन बच्चों की मौत की सही वजह क्या थी? कोई यह दावा कर रहा था कि बच्चों की मौत खाली पेट लीची खाने से हो रही तो कोई कह रहा था धूप में घूमने से बच्चे इस बीमारी का शिकार हुए थे। इसकी सही वजह क्या थी और इस वर्ष इतनी मौतें कैसे हुई और ये बच्चें किस परिवेश से आते थे, इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं थी।
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इन सभी सवालों के जवाब ढूंढने के लिए बीमारी के प्रकोप के कुछ महीनों बाद, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह ने एक सर्वेक्षण किया। यह उन्ही लोगों का समूह था जिन्होंने इस बीमारी के दौरान पीड़ित परिवारों की मदद की थी। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस प्रकोप के वास्तविक कारणों को खोजने की कोशिश की गई है।  

मुजफ्फरपुर में 13 नवंबर को सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से प्रभावित 96.5 प्रतिशत बच्चे वंचित वर्ग और अनुसूचित जाति और जनजाति के थे।

सर्वेक्षण में पता चला है कि एईएस से प्रभावित बच्चों के 97.8 प्रतिशत परिवार एक महीने में 10,000 रुपये से अधिक नहीं कमा सकते हैं। मुख्यधारा के मीडिया ने कथित रूप से उचित स्वास्थ्य देखभाल प्रदान नहीं करने के लिए सरकारी अस्पतालों की आलोचना की थी, लेकिन सर्वेक्षण से पता चला कि 92 प्रतिशत प्रभावित परिवारों ने डॉक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों की नौकरी की सराहना की।

वरिष्ठ पत्रकार और इस सर्वेक्षण के पीछे प्रमुख व्यक्तियों में से एक पुष्यमित्र ने इस रिपोर्ट को जारी करते हुए कहा कि बुखार के प्रकोप को देखकर कुछ साथियों ने पटना और सहरसा से मुजफ्फरपुर पहुंचकर लोगों की मदद की और उनमे जागरूकता अभियान चलने का काम किया।

इस काम के दौरान इस टीम ने लगभग 70-80 गांवों का सर्वे किया। इस दौरान ही हमें महसूस हुआ कि लोगों के बीच इस बुखार को लेकर जानकारी का अभाव है। इसके बाद हमने निर्णय किया कि हम इसको लेकर एक सर्वेक्षण करेंगे और इस बीमारी के वास्तविक कारणों का पता लगाएंगे।

फिर इसके बाद महामारी थम जाने के बाद 10 जुलाई को एक बार फिर मुजफ्फरपुर में ये सब लोग एकत्रित हुए और तय हुआ कि उन सभी परिवारों से संपर्क किया जाए जिनके बच्चे इस वर्ष चमकी के शिकार हुए थे। अस्पतालों से चमकी के रोगियों की सूची लेकर सर्वेक्षण का काम शुरू हुआ। सूची में 600 से अधिक नाम थे किंतु 227 परिवार तक पहुंच पाने के बाद क्षेत्र में भीषण बाढ़ आ गयी और सर्वेक्षण का काम रुक गया। इस 227 परिवारों में 69 ऐसे परिवार थे जिनके बच्चो की मौत हो चुकी थी।

इस रिपोर्ट में कई ऐसे तथ्य सामने जिसने यह साबित किया कि मीडिया का एक बड़ा तबका जो इस बीमारी के लिए लीची को कारण बता रहे थे वो सही नहीं बल्कि इसके कई अन्य गंभीर पहलू हैं। जिसपर ध्यान देने की जरूरत है।

इस रिपोर्ट की प्रमुख बातें

—इस साल चमकी बुखार से प्रभावित होने परिवारों में मुख्यतया दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक 27.8 फीसदी बच्चे महादलित, 10.1 फीसदी बच्चे दलित, 32.2 फीसदी बचे पिछड़ा समुदाय, 16.3 फीसदी बच्चे अति पिछड़ा समुदाय और 10.1 फीसदी बच्चे अल्पसंख्यक समुदाय से थे। सामान्य श्रेणी के बच्चों की संख्या महज 3.5 फीसदी ही थी।  
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—चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों के परिवार की मासिक अमदनी 10,000 रपये से कम थी। 2.2 फीसदी बच्चों के ही परिवार की आमदनी ही 10 हजार रुपये से अधिक थी। 45.4 फीसदी परिवारों की आमदनी पांच हजार रुपये से भी कम थी।
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—यह साफ दिखता है कि इस बीमारी का शिकार सबसे ज्यादा समाज का सबसे पिछड़ा तबका ही था। चाहे वो समाजिक रूप से हो या आर्थिक रूप से इसका एक बड़ा करना यह भी था कि इन लोगों में चमकी के बारे में 76.2 फीसदी परिवारों में अपर्याप्त/शून्य जानकारी है। उनमे से 22 फीसदी परिवारों का नाम पंचायत की बीपीएल सूची मे दर्ज नहीं था।
 
—आंगनवाडी जैसे कार्यक्रम अपना उद्देश्य नहीं पूरा कर पाए हैं। बीमार बच्चों में से 15.2 फीसदी सकूल जाते थे, 29.5 फीसदी आंगनबाड़ी जाते थे। 25.2 फीसदी बच्चे घर में रहकर मां का हाथ बंटाते थे, 30 फीसदी अकेले या दूसरे बच्चों के साथ दिनभर बाहर भटकते थे। इसलिए यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है।

— इसके बाद पीड़ित परिवारों को ऐंबुलेंस की सुविधा बहुत कम को मिल पाती है। जिस कारण भी बच्चों को अस्पताल पहुंचने में देरी हुई। इन सबके लावा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि क़रीब 53 % बच्चों ने ही 24 घंटे पहले लीची खाई थी। जबकि केवल 60 फीसदी बच्चों को ही जेई के ठीके लगे थे। जो सरकार के तंत्र पर सवाल खड़े करते हैं।
 
—मुजफ्फरपुर के आसपास कई वर्षों से गर्मियों में ‘चमकी बुखार’ महामारी देखी जाती रही है।  सरकार ने इसके अध्ययन करा कर 2015 में इसके नियंत्रण के लिए मानक (स्टैंडर्ड) कार्यपद्धिति निकाली और 2015 से 2018 तक चमकी का महामारी रूप नहीं दिखा था। इस वर्ष, यह अधिक बढ़ा इसका कारण आम चुनावों को माना जा रहा था क्योंकि जिन आंगनवाड़ी कर्मियों को इसके रोकथाम और जागरूकता का काम करना था उन्हें चुनावो में तैनात कर दिया गया था।

—इस बात को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री चौबे ने भी स्वीकारा और कहा कि "चुनाव के दौरान अधिकारी काफी व्यस्त थे। इस वजह से इस बीमारी की रोकथाम और बीमार बच्चों के इलाज को लेकर जागरूकता कार्यक्रम नहीं चल सका, जिसकी वजह से यह बीमारी कहर बरपा रही है"

—चमकी का लीची से संबंध बहुत स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं होता है। इस रिपोर्ट ने एक बात यह स्पष्ट की है कि लीची से अधिक चमकी का असर आर्थिक असमर्थता, सरकारी लापरवाही और जानकारी के आभाव से जुड़ा हुआ है।

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