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जस्टिस रमन्ना रिटायरमेंट : एक 'पॉलिटिकली करेक्ट' मुख्य न्यायाधीश

विवादों में रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना, सफलतापूर्वक अपनी विश्वसनीयता पर हमले से बचते हुए रिटायर हुए हैं।
Ramana
Image courtesy : NDTV

मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना न्यायाधीशों की एक दुर्लभ प्रजाति के थे, जिन्होंने कार्यपालिका को परेशान किए बिना वही किया जो वे करना चाहते थे। अदालत में दिए गए किसी भी फैसले की तुलना में उन्हें अदालत के बाहर उनके द्वारा दिए गए बेबाक भाषणों के लिए शायद अधिक याद किया जाएगा।

विवादस्पद शख़्सियत के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल शुरू करने वाले, भारत के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना सफलतापूर्वक अपनी विश्वसनीयता पर हमले से बचते हुए सेवानिवृत्त हो गए हैं। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस ए बोबडे को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी, ने अक्टूबर 2020 में पत्र लिखकर आरोप लगाया था, जो पत्र आज भी सार्वजनिक डोमेन में है। आरोप का सार यह था कि न्यायमूर्ति रमन्ना, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की अगली कतार में थे, ने अपने बच्चों से संबंधित मुकदमे के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में हेरफेर किया था। 

यह अलग बात है कि मुकदमा अंततः उनकी बेटियों के पक्ष में समाप्त हुआ और उनके खिलाफ जांच को पिछले साल सितंबर में रद्द कर दिया गया था। हालाँकि, उस समय जब इस बारे में अभी भी अनिश्चितता बरकरार थी कि क्या उन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाएगा, पत्र के माध्यम से कानूनी समुदाय में एक सदमे की लहर दौड़ गई थी। 

भारत के मुख्य न्यायाधीश के प्रति इस प्रकार के पत्र को लिखने वाले किसी भी अन्य व्यक्ति को अदालत की अवमानना माना जाएगा। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने महीनों तक इस पर चुप्पी साधे रखी थी, और मार्च 2021 में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने एक संक्षिप्त बयान जारी किया कि रेड्डी की शिकायत को "इन-हाउस प्रक्रिया के तहत निपटाया गया और ... उचित विचार कर ... खारिज कर दिया गया।" बंद दरवाजों के पीछे शिकायत से कैसे निपटा गया, यह हम नहीं जानते। हालाँकि, मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने न्यायमूर्ति रमन्ना को भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश के रूप में सिफारिश की, जैसा कि कन्वेन्शन थी, और बाकी इतिहास का मामला है।

फिर भी, यह स्पष्ट था कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक आम सहमति थी जिसके कारण न्यायमूर्ति रमन्ना को भारत के 48वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। उस समय, यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि रेड्डी को एक राजनीतिक सहयोगी के रूप में केंद्र सरकार को चलाने वाले राजनीतिक शासन का पूरा समर्थन प्राप्त था। इसलिए, न केवल संस्थानों के बीच, बल्कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ भी शांति स्थापित की गई थी।

जस्टिस रमन्ना की जड़ें

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में आमतौर पर जाने वाला कोई भी आगंतुक इस तथ्य की पुष्टि कर सकता है कि अदालत में लंबे समय तक दो न्यायाधीशों - न्यायमूर्ति जस्ती चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति रमन्ना का वर्चस्व रहा है। वे दोनों अलग-अलग खेमों से ताल्लुक रखते थे लेकिन उन दोनों के एक साझा राजनीतिक मित्र थे, वे थे राजनेता और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू। जब मैं युवाजन श्रमिक रायथू कांग्रेस पार्टी के निलंबित विधायक आर.के. रोजा के मामले में तत्कालीन अविभाजित आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में बहस कर रही थी, तो यह कुछ ऐसा था जो मुझे अदालत के गलियारों में स्पष्ट हो गया था। तब मुझे एहसास हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट का जज अपने मूल राज्य या उच्च न्यायालय के साथ अपना रिश्ता नहीं खोता है। (दिसंबर 2015 में, सदन की कार्यवाही में बाधा डालने और तत्कालीन मुख्यमंत्री नायडू और एक अन्य महिला विधायक के खिलाफ कथित रूप से अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष कोडेला शिव प्रसाद राव द्वारा रोजा को आंध्र विधानसभा से एक साल के लिए निलंबित कर दिया गया था।)

सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश की एक आकर्षक विशेषता उनके सार्वजनिक बयानों में यथासंभव पारदर्शिता है। उन्होंने अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि को स्वीकार करने में कभी शर्म नहीं की। जब पहले अवसर पर मैं उनसे मिली थी, तब वे अभी भी आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, महिलाओं के अधिकारों पर एक संगोष्ठी में, उन्होंने मेरे साथ बातचीत की थी जिसमें उन्होंने खुलासा किया था कि वह एक छात्र कार्यकर्ता थे और उस दौरान इमरजेंसी में उन्हें अंडरग्राउंड रहना पड़ा था।

मैं इस एक तथ्य से बहुत प्रभावित हुई थी, जिसने मुझे यह निष्कर्ष निकालने में मदद मिली  कि न्यायाधीश बनने से पहले राजनीतिक सक्रियता इतनी बुरी बात नहीं थी। आश्चर्यजनक रूप से, यह याद रखने योग्य बात है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बोबडे, एक वकील के रूप में अपने अवतार में, ऐसे तथाकथित कार्यकर्ताओं के भीतर मौजूद प्रतिबद्धता की भावना के प्रतिनिधित्व करने के लिए जाने जाते थे, न कि वे जिस राजनीति का प्रतिनिधित्व करते थे, उससे पीछे नहीं हटते थे। यह स्पष्ट लगता है कि उन दिनों सक्रियतावाद ने छात्र समुदाय के साथ-साथ कानूनी पेशे में भी रोमांस पैदा किया था, जो यह मानता था कि उसका काम अपराध के आरोपी व्यक्ति की राजनीति की परवाह किए बिना कानून के शासन की रक्षा करना था।

मुझे यकीन नहीं है कि मैं आज के कानूनी पेशे के बारे में यह कह सकती हूं, आधिकारिक दमन की राजनीति को देखते हुए जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन से परे है। आधिकारिक दमन की राजनीति कानूनी पेशे तक भी फैली हुई है, जो कार्यकर्ता अदालत में मामले लाते हैं उन्हें दुश्मन के रूप में देखा जाता है जिसे नष्ट करने की जरूरत है।

ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में कोई भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश का मूल्यांकन कैसे करता है? उनके मुक़ाबले, कुछ मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक धारणा में अत्यधिक नकारात्मक रिपोर्ट कार्ड के साथ सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्हें कार्यपालिका की बोली बोलने के रूप में माना जाता था, जो अदालतों सहित हर संस्था पर हावी होने की कोशिश करते थे। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में अदालतों की कार्यपालिका द्वारा इस वर्चस्व का प्राथमिक चिह्नक हस्तक्षेप है।

न्यायिक नियुक्तियां

अब यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले को कानून के माध्यम से कभी क्यों नहीं उल्टा गया, भले ही सत्तारूढ़ दल के पास ऐसा करने के लिए आवश्यक बहुमत था। यदि आप सर्वसम्मति से न्यायाधीशों की नियुक्ति हासिल कर सकते हैं, तो कानून बनाने की जहमत क्यों उठाई जाए, भले ही उस सर्वसम्मति का अर्थ है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका के पास अंतिम शब्द नहीं है?

जब पहले अवसर पर मैं उनसे मिली थी, तब वे अभी भी आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, महिलाओं के अधिकारों पर एक संगोष्ठी में, उन्होंने मेरे साथ बातचीत की थी जिसमें उन्होंने खुलासा किया था कि वे एक छात्र कार्यकर्ता थे और उस दौरान आपातकाल में, उन पर माओवादी होने का संदेह किया गया था और उन्हें भूमिगत रहना पड़ा था।

आइए हम निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश को इस मानदंड से आंकें: क्या नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की बाध्यकारी सिफारिशों के अनुसार सख्ती से की गई थीं, या न्यायपालिका, कॉलेजियम के माध्यम से, उन लोगों पर जोर न देकर, जो सिफारिश किए जाने के बावजूद नियुक्त नहीं किए गए थे, ने दम तोड़ दिया था, जैसे की अधिवक्ता सौरभ कृपाल की नियुक्ति में हुआ था। सबसे महत्वपूर्ण न्यायमूर्ति ए.ए. कुरैशी का नियुक्त न होना था, जिन्हें 2002 में सांप्रदायिक नरसंहार के दौरान गुजरात उच्च न्यायालय में रहते हुए एक स्वतंत्र स्टैंड लेने के लिए जाना जाता था। सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति न होने के कारण सार्वजनिक आक्रोश के कारण उन्हें राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में एक संक्षिप्त अवधि के लिए नियुक्त किया गया था।

अब इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धांत को दफना दिया गया है। कई न्यायाधीशों को उच्च न्यायालयों से सीधे सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया है, हालांकि वे शुरू में मुख्य न्यायाधीश नहीं थे, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और अब संसद सदस्य, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम द्वारा ऐसा किया गया था। मुख्य न्यायाधीश गोगोई की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की नियुक्ति की सिफारिश की थी, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए उत्तराधिकार की कतार में हैं।

न्यायमूर्ति रमन्ना के नेतृत्व वाले कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट के 11 न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश की थी, जिनमें से चार के भविष्य में सीजेआई बनने की संभावना है। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना, जिन्हें भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाएगा, का कार्यकाल सिर्फ एक महीने से अधिक का होगा, जबकि न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं, का कार्यकाल लंबा होगा। जो दो वर्ष से अधिक का कार्यकाल होगा। अन्य दो न्यायाधीश, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पी.एस.नरसिम्हा प्रत्येक का कार्यकाल लगभग छह महीने का होगा।

न्यायमूर्ति रमन्ना ने अदालत में लैंगिक विविधता के एक मामूली हिस्से की बहाली की है,  लेकिन जितना करना चाहिए था उतना नहीं किया गया। हालाँकि, हमने हाशिए के समुदायों, अनुसूचित जनजातियों और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में विविधता की बहाली नहीं देखी, जिसमें न्यायाधीशों को मुख्य रूप से उच्च जातियों से संबंधित होने के लिए नियुक्त किया जाता है। 

महत्वपूर्ण और प्रगतिशील अंतरिम आदेश

किसी भी निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश को उनके द्वारा दिए गए निर्णयों पर उनकी विरासत के लिए आंका जाएगा। इस संबंध में, भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में, न्यायमूर्ति रमन्ना ने भारत के संविधान की व्याख्या या कानून के प्रश्नों को उठाने के मुद्दों से जुड़े कई निर्णय नहीं लिखे हैं। हालाँकि, उन्होंने अंतरिम आदेशों की एक श्रृंखला के माध्यम से काम किया है जो कुछ खुशी का कारण हो सकते हैं। 

उनके नेतृत्व वाली पीठ द्वारा देशद्रोह के सभी मामलों को निलंबित करने का निर्देश देने वाला अंतरिम आदेश अद्वितीय था। केंद्र सरकार ने स्वीकार किया था कि वह भारतीय दंड संहिता ('आईपीसी') के राजद्रोह प्रावधान में संशोधन पर गंभीरता से विचार कर रही है। हालांकि, अफसोस की बात है कि कई नागरिक समाज के कार्यकर्ता और पत्रकार, जिन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है, उन्हें सख्त गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम ('यूएपीए') के तहत आरोपित होने के कारण कैद और मुकदमे का सामना करना पड़ रहा है, जो जमानत देने को गंभीर रूप से प्रतिबंधित करता है। उनके लिए यह एक महत्वपूर्ण जीत है।

न्यायिक नियुक्तियों में, हमने हाशिए के समुदायों के प्रतिनिधित्व के मामले में विविधता की बहाली नहीं देखी, जिसमें न्यायाधीशों को मुख्य रूप से उच्च जातियों से संबंधित होने के कारण नियुक्त किया गया था।

न्यायमूर्ति रमन्ना जीवन और स्वतंत्रता के मामले में उदार थे, और इसलिए जब जमानत की बात आती थी, तब भी वे उन अभियुक्त व्यक्तियों के बीच अंतर करने में सक्षम थे, जिन्होंने अल्पसंख्यकों, महिलाओं और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध जैसे प्रभावशाली अपराधों और अन्य अपराध में लिप्त थे। उन्हें यह समझ में आ गया था कि लखीमपुर में किसानों की हत्या के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा एक केंद्रीय मंत्री के बेटे को जमानत देने का आदेश कानून से से परे था। जमानत आदेश को दरकिनार करते हुए और राजनेता के बेटे के आत्मसमर्पण का निर्देश देते हुए, उनके नेतृत्व वाली पीठ ने मामले को उच्च न्यायालय में भेज दिया था। आरोपी की राजनीतिक पृष्ठभूमि ने उसे दी गई जमानत रद्द करने से नहीं रोका था।

इसी तरह, एक ऑनर किलिंग मामले में, वे इस बात पर दृढ़ थे कि आरोपी को, सुनवाई लंबित रहने तक जमानत नहीं दी जानी चाहिए, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अपराध ने न केवल पीड़ित को बल्कि पूरे समाज को प्रभावित किया है। अपनी सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले, उन्होंने बिलकिस बानो मामले में 11 दोषियों की छूट को चुनौती देने वाली नागरिक समाज की याचिकाओं पर विचार किया और गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया है।

सार्वजनिक महत्व के मामलों को सूचीबद्ध न करना

बार में जस्टिस रमन्ना के खिलाफ शिकायत यह है कि वे नए दायर किए गए मामलों को सूचीबद्ध करने में विफल रहे। जिन मामलों में नोटिस जारी किया गया था, उन्हें सूचीबद्ध न करने की बात काफी चर्चा में रही है। उदाहरणों में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की चुनौतियां (अंतिम बार 2 मार्च, 2020 को सूचीबद्ध हुई), चुनावी बांड की वैधता (अंतिम बार 26 मार्च, 2021 को सूचीबद्ध हुई), और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (अंतिम सूचीबद्ध 15 जून, 2021 को हुई) शामिल हैं। एक साल, पहले से दायर याचिकाओं पर भी नोटिस जारी करने के लिए सूचीबद्ध भी नहीं किया गया था। 

याचिकाकर्ताओं को कक्षा के अंदर हिजाब पहनने की अनुमति देने वाली याचिकाओं को खारिज करने वाले कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका मार्च में दायर की गई थी, लेकिन अभी तक सुनवाई नहीं हुई है। गैर-सूचीबद्धता ने याचिकाकर्ताओं को हिजाब पहनने का विकल्प चुनने वाली महिलाओं को वही पहनकर परीक्षा में बैठने की अनुमति देने के लिए कुछ बहुत जरूरी अंतरिम राहत के लिए बहस करने का अवसर देने से इनकार कर दिया था। इसका शिक्षा के अधिकार पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जिसे मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए। लेकिन यह अकेला मामला नहीं है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति रमन्ना ने भारत के संविधान की व्याख्या या कानून के प्रश्नों को उठाने के मुद्दों से जुड़े कई निर्णय नहीं लिखे हैं। हालाँकि, उन्होंने अंतरिम आदेशों की एक श्रृंखला के माध्यम से काम किया है जो खुशी का कुछ कारण हो सकते हैं। 

जब वकील मामलों का उल्लेख करते थे, तो न्यायमूर्ति रमन्ना केवल यह टिप्पणी करते कि वह मामले को देखेंगे और उन्हें सूचीबद्ध करेंगे, लेकिन उन्हे कभी भी सूचीबद्ध नहीं किया गया।  ऐसे अवसर भी थे जब रहस्यमय सूचियाँ बिना किसी स्पष्टीकरण के अचानक आ गईं, जबकि हम में से कई अपने महत्वपूर्ण मामलों के सूचीबद्ध होने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

मास्टर ऑफ रोस्टर प्राधिकरण के इस्तेमाल पर प्रश्न

भारत के मुख्य न्यायाधीश दोनों प्रशासनिक और न्यायिक कार्य करते हैं, कॉलेजियम या पूर्ण न्यायालय के लिए कोई स्पष्ट सचिवीय समर्थन नहीं है।मास्टर ऑफ रोस्टर के रूप में उनकी स्थिति भारत के मुख्य न्यायाधीश को आरोपों के प्रति संवेदनशील बनाती है कि बेंचों में हेरफेर किया जा सकता है। कोई भी संस्थान इस तरह के हमले के लिए खुद को क्यों खोलेगा? इससे पहले मुख्य न्यायाधीशों पर न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के समक्ष राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों को पोस्ट करने का आरोप लगाया गया था, जो सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बने।

निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने ऐसे मामलों को न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, जिन्हें कई "आपातकालीन निर्णय" देने वाले न्यायाधीश के रूप में वर्णित किया गया है। उनमें से एक 2019 का फैसला है जो मानता है कि सबूत के रूप में अस्वीकार्य सामग्री का इस्तेमाल यूएपीए मामले में आरोपी व्यक्ति को जमानत देने से इनकार करने के लिए किया जा सकता है। दूसरा जून का जकिया जाफरी का फैसला है, जो रिकॉर्ड इतिहास में पहली बार नागरिक समाज और मानवाधिकार रक्षकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए कहता है, जो सांप्रदायिक नरसंहार के लिए राज्यों को जवाबदेह ठहराने के लिए मामलों को अदालत में लाए थे। धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 ('पीएमएलए') के विभिन्न प्रावधानों की वैधता को बरकरार रखने वाले पिछले महीने के तीसरे निर्णय ने जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की मौत की घंटी बजा दी है (पिछले दो मामलों के विपरीत, इसे मुख्य न्यायाधीश रमन्ना द्वारा न्यायमूर्ति खानविलकर की अगुवाई वाली पीठ सौंपा गया था)। चौथा निर्णय, पिछले महीने,  याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा 211 के तहत झूठे आरोप दायर करने, या आपराधिक साजिश या किसी अन्य आरोप के लिए आवश्यक कार्रवाई करने के लिए कार्यकारी अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया था, और याचिकाकर्ताओं में से एक को पांच लाख रुपये की अनुकरणीय लागत का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।

यह माना जाता है कि न्यायमूर्ति खानविलकर एक वरिष्ठ न्यायाधीश थे, लेकिन इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि इनमें से किसी भी पीठ, विशेष रूप से पीएमएलए मामले की सुनवाई करने वाली पीठ, सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों में से एक के नेतृत्व में क्यों नहीं हो सकती थी। जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और नामित मुख्य न्यायाधीश भी शामिल थे।

अब हम जानते हैं कि पीएमएलए के फैसले पर स्याही के सूखने से पहले ही, इसकी वैधता पर इस सप्ताह की शुरुआत में खुद मुख्य न्यायाधीश रमन्ना द्वारा लिखे गए एक फैसले पर संदेह किया गया था, जिसमें बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम, 1988 के प्रावधान को अमान्य कर दिया गया था।

जब वकील मामलों का उल्लेख करते, तो न्यायमूर्ति रमन्ना केवल यह टिप्पणी करते कि वे  मामले को देखेंगे और उन्हें सूचीबद्ध करेंगे, लेकिन कभी उन्हे सूचीबद्ध नहीं किया गया। 

इसी तरह, मुख्य नामित न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा उनकी याचिका पर सुनवाई में अत्यधिक देरी के कारण गुरुवार को जकिया जाफरी मामले पर कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के लगभग 50 दिनों के बाद उनकी जमानत की याचिका पर सुनवाई की है।

अंतिम कुछ दिन 

शायद मुख्य न्यायाधीश रमन्ना ने अपने करियर के आखिरी कुछ दिनों में अपने सबसे महत्वपूर्ण कार्यों को बेंच पर छोड़ दिया है। उन्होंने न्यायमूर्ति आर.वी. रवीन्द्रन की रिपोर्ट जिसने गुरुवार को खुली अदालत में पेगासस के आरोपों की जांच की, यह देखते हुए कि पिछले साल अदालत द्वारा गठित तकनीकी समिति के अनुसार (संयोग से, न्यायमूर्ति रमन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा) इस मुद्दे की जांच करने पर कहा कि केंद्र सरकार ने समिति के साथ सहयोग नहीं किया। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, उन्होंने गुरुवार को बिलकिस बानो अत्याचार के दोषियों को छूट के मामले में नोटिस जारी करने वाली एक पीठ का नेतृत्व किया था। उन्होंने गुरुवार को एक ऐसे पीठ का भी नेतृत्व किया जिसने सुप्रीम कोर्ट के पीएमएलए फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिकाओं में केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था। इस हफ्ते की शुरुआत में, उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने महाराष्ट्र के दलबदल विरोधी मामले में कानून के सवालों को सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया है।

वह न्यायाधीशों की उस दुर्लभ प्रजाति से संबंधित हैं जिन्होंने कार्यपालिका को परेशान किए बिना वही किया जो वे करना चाहते थे।

सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज का मूल्यांकन करना असंभव नहीं तो मुश्किल है, जब इसे अलग-अलग न्यायाधीशों के मूल्यांकन की स्थिति में धकेल दिया जाता है, और मैंने अक्सर कहा है कि जितने मुख्य न्यायाधीश हैं उतने ही सर्वोच्च न्यायालय हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर द लीफलेट के निमंत्रण पर भाषण देते हुए कहा था कि उन्होंने पीएमएलए मामले को अलग तरीके से तय किया होता।

यह एक दुखद कहानी है, क्योंकि अगर कोई चीज किसी संस्था को परिभाषित करती है, तो वह नियम हैं जिसके द्वारा वह शासित होता है, और ये वे नियम हैं जो मिसाल की अनदेखी करके, निर्णयों को अधिकृत करते हैं, जो लापरवाही है, और लोकतन्त्र की नैतिकता के मामले में भी जिसे अदालत की नैतिकता के रूप में भी अपनाया जाना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश रमन्ना की विरासत क्या होगी?

अंत में, इतिहास यह दर्ज करेगा कि भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने महत्वपूर्ण निर्णयों की तुलना में भाषण अधिक दिए। सार्वजनिक रूप से भाषण देने का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि यह न्यायाधीश के दिमाग की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और न्यायाधीशों और आम जनता के बीच संवाद स्थापित करता है। हालांकि, मैं चाहती हूं कि भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश और कानूनी पेशे के बीच कानूनी, न्यायिक और वैचारिक मामलों पर बेहतर संवाद हो। ऐसा नहीं हुआ।

भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने निर्णय लिखे जाने की तुलना में भाषण अधिक दिए हैं। ... हालांकि, मैं चाहती हूं कि भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश और कानूनी पेशे के बीच कानूनी, न्यायिक और वैचारिक मामलों पर बेहतर संवाद हो। ऐसा नहीं हुआ।

निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश के भाषण, बार को नहीं बल्कि देश के लोगों को संबोधित करते हैं, उनका स्वागत है। लेकिन सवाल यह रहेगा कि क्या प्रधान न्यायाधीश ने उन बातों पर अमल किया? उनके भाषण कम से कम तीन सार्वजनिक मुद्दों के लिए उनकी चिंता का संकेत देते हैं- एक, न्यायपालिका में देरी से निपटने के लिए न्यायिक बुनियादी ढांचे का निर्माण; दो, प्रेस की स्वतंत्रता के लिए खतरा; और तीन, न्यायपालिका में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व।

अपने भाषणों में उल्लिखित मुद्दों से निपटने के मामले में, पर्याप्त न्यायिक बुनियादी ढांचे पर काम नहीं किया गया, जो पहला मुद्दा था, जिसे अदालत में आते ही छोड़ दिया गया था। अन्य मुद्दों पर, उनके आलोचकों ने बताया कि न्यायिक रूप से उनकी चिंताओं को प्रमाणित करने मामले में उनके कोई ऐसे निर्णय नहीं है जो उनकी चिंता से मेल खाते हों।

क्या निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश इनमें से किसी आकांक्षा को प्रदर्शित करते हैं? मेरी राय में, नहीं। एक छात्र, एक कार्यकर्ता, एक पत्रकार, एक वकील, एक सरकारी वकील, एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और अंत में एक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके इतिहास को देखते हुए, मैं उन्हें किसी न किसी रूप में सक्रिय राजनीति में शामिल होते हुए देखने की उम्मीद करूंगी (उन्होंने किया, आखिरकार, पिछले महीने एक सार्वजनिक संबोधन में स्वीकार किया कि वे एक बार सक्रिय राजनीति में शामिल होने के इच्छुक थे), हालांकि मुझे यह अस्वीकरण प्रदान करना चाहिए कि इसका संकेत के कोई सबूत नहीं है। चूंकि इनमें से कुछ मुद्दों पर साक्षात्कार के लिए निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश से मिलने के मेरे प्रयासों को कोई सफलता नहीं मिली, इसलिए में केवल अनुमान ही लगा सकती हूं। 

अंतिम विश्लेषण में, इतिहास ही उनका आंकलन करेगा। 

सौजन्य: द लीफ़लेट 

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

A Politically Correct CJI Retires

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