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विशेष: क्यों प्रासंगिक हैं आज राजा राममोहन रॉय

वर्तमान समय में महिलाओं की आज़ादी पर सबसे अधिक हमले हो रहे हैं…, इतिहास के साथ छेड़छाड़ हो रही है। कमज़ोर, दलित और अल्पसंख्यक भय के वातावरण में जी रहे हैं। यह वैसा ही अंधकारमय युग है जैसा राममोहन रॉय ने देखा था।
Raja Ram Mohan Roy
तस्वीर साभार गूगल

आज हम इतिहास के एक काले अध्याय में जी रहे हैं, जब महान समाज सुधारकों व धर्मगुरुओं द्वारा स्थापित मानव मूल्यों को तिलांजलि दी जा रही है और तर्क की जगह पोंगापंथ व अंधविश्वास ने ले ली है। जाति और धर्म की संकीर्ण चाहरदीवारी में समाज को कैद किया जा रहा है जिसका नतीजा है गरीबों, सामाजिक रुप से पिछड़े लोगों, औरतों और अल्पसंख्यकों पर उच्च जाति के दबंगों द्वारा हमले रोज़ की परिघटना बन चुकी है। ऐसे समय में राजा राममोहन रॉय की प्रासंगिता पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा बढ़ गई है।

बचपन में हमने इतिहास की किताब में पढ़ा था कि राजा राममोहन रॉय बंगाल के एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा का विरोध किया था और विधवा विवाह का समर्थन किया था; इससे अधिक हम कुछ नहीं जानते थे।

राममोहन रॉय के जीवन और कर्म का कम अध्ययन हुआ है। राममोहन हमारे देश को आधुनिक युग की चुनौतियों से रू-ब-रू कराते हुए स्वयं लगातार उनसे जूझते रहे। उन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखने वालों में एक महत्वपूर्ण स्थान अर्जित किया और आज, जब उनके जन्म की 250वीं जयंती मनायी जा रही है, समस्त उदारवादी चिंतक उनकी शानदार विरासत को याद कर रहे हैं, क्योंकि आज उनके विचारों का पुनरावलोकन कई वजहों से जरूरी है। पर राममोहन राय की इस विरासत को हड़पने की होड़ में दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थक भी लगे हुए हैं। तो आइये, इस साजिश को समझना और उसका पुरजोर मुकाबला करने के लिए आज बंगाल के इस महानायक और भारत के पुनर्जागरण के पिता को व उनके कार्य को समझते हैं।

राममोहन के बचपन की सबसे बड़ी त्रासदी

राममोहन रॉय का जन्म 1772 में हुगली जिले के राधानगर गांव में एक कुलीन, रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी भाभी अलकामंजरी, जो उनके बड़े भाई जगमोहन की पत्नी थीं, को पति की मृत्योपरांत जबरदस्ती उनकी चिता पर बैठा दिया गया और वह जलकर राख हो गईं। राममोहन उस समय बालक थे और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनके भाई की मृत्यु के बाद उनकी  भाभी को शादी का जोड़ा पहनाकर क्यों सजाया जा रहा था। बताया जाता है कि जब भाभी को पंडितों के मंत्रोच्चारण के बीच घसीटकर भाई की चिता तक ले जाया जा रहा था, राममोहन ने उनकी चींखों से व्याकुल होकर उन्हें बचाने की कोशिश की, पर असफल रहे। ‘महा सती, महा सती’ के जयघोष के साथ उनकी प्रिय भाभी आंखों के सामने राख में तब्दील हो गईं। इस घटना से राममोहन के कोमल मस्तिष्क पर गहरा असर पड़ा। यही प्रेरणा थी कि उन्होंने 1812 में सती प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत की। उस समय भारत के कई हिस्सों में यह मान्यता थी कि पत्नी का पति के साथ मरना उसकी वफ़ादारी को साबित करता है और उसे स्वर्ग में सुरक्षित स्थान दिलाता है। पर अधिकतर मामलों में औरतों को जबरदस्ती आग के हवाले किया जाता था क्योंकि वह अपने पति की सम्पत्ति मानी जाती थी।

महिलाओं के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध

राममोहन रॉय ने लगातार महिलाओं के पक्ष में बहस की और लिखा। उन्होंने तर्क दिया कि महिला को समझदारी के मामले में कमतर, चरित्र की कमज़ोर और हर मामले में स्वंतत्र जीवन जीने के नाकाबिल माना गया है, इसलिए उसे मृत पति के साथ जला दिया जाता है। पर ऐसा कैसे मान लिया जाता है जबकि महिलाओं को शिक्षा व सामाजिक सरोकारों से वंचित रखा जाता है और उन सारे अवसरों से भी वंचित रखा जाता है जिनका उपभोग पुरुष करते हैं। जहां तक वफ़ा की बात है, वे कहते हैं कि यदि गांव में उन पुरुषों की गिनती की जाय जो अपने मित्रों या पत्नी के साथ विश्वासघात करते हैं तो औरतों की तुलना में वह 10 गुना अधिक होगी, क्योंकि पुरुष अपनी पढ़ाई का इस्तेमाल तिकड़म व दग़ाबाज़ी के लिए करते हैं। पर इन्हें आपराधिक कार्य नहीं माना जाता है। उनका कहना था कि औरत के भीतर सबसे बड़ी कमी यदि कोई है तो यह कि वह पुरुष को अपने जैसा निश्छल समझती है और उसपर पूर्ण विश्वास करती है।

सती उन्मूलन कानून के एक साल बाद भी राममोहन ने एक याचिका पर 300 हस्ताक्षर करवाकर गवर्नर जनरल विलियम बेंटिंक के पास जमा किया था। इसमें उन्होंने प्राचीन धर्मग्रन्थों से उद्धरणों के आधार पर दावा किया था कि कहीं भी सती का समर्थन नहीं किया गया है। 

उस समय कुलीन ब्राह्मण परिवारों में बहुपत्नी प्रथा भी जारी थी और पति कई-कई महीनों तक एक पत्नी से नहीं मिलता था। उन्होंने एक बार पूछा कि औरतों को कैसे व्यभिचारिणी माना जाता है जबकि वे बिना अपने पति के साथ के, अकेले, संयुक्त परिवार की सारी जिम्मेदारियों को बिना शिकायत दासी की तरह निभाती हैं। ज़रा सी कमी होने पर उन्हें अपमानित किया जाता है, हिंसा का शिकार तक बनाया जाता है, यहां तक पति के मरने पर जिंदा जलाया जाता है। इसके बावजूद वह कभी भी मर्दों की भांति बेवफाई नहीं करतीं। जब पति गरीब रहता है, वह सारे काम का बोझ उठाती हैं और जब वह धन प्राप्त कर लेता है वह पत्नी को भूलकर ऐयाशी के जीवन में डूब जाता है। राममोहन का भी कम उम्र में 3 बार ब्याह कराया गया था।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर से भी पहले राममोहन ने विधवा विवाह के बारे में सोचा था। वे महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार के प्रबल प्रवक्ता थे और औरतों की शिक्षा व आज़ादी की वकालत करते रहे।

पश्चिम बंगाल के प्रख्यात पत्रकार शंकर रे का कहना है कि ‘‘आज के हिंदुत्ववादियों की भांति उस समय के पुरातनपंथी दकियानूस तत्वों ने जब देखा कि वे धर्मग्रन्थों को आधार बनाकर राममोहन का विरोध नहीं कर पा रहे थे, तो वे झूठ का सहारा लेने लगे और प्रचार करने लगे कि बंगाल में मनुस्मृति की जो प्रति छापकर वितरित की गई है उसमें छपाई की कुछ त्रुटियां हैं इसलिए सती की बात छूट गई है। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदुओं के रीति-रिवाज़ों में सती का प्रमुख स्थान है और राममोहन जनता को बरगला रहे थे। उस समय जैसा माहौल था, वह आज के समय भी देखा जा रहा है।’’

वर्तमान समय में महिलाओं की आज़ादी पर सबसे अधिक हमले हो रहे हैं, बलात्कारियों और व्यभिचारियों का महिमामण्डन किया जा रहा है और उन्हें कानून भी बरी कर रहा है जबकि समाज को तर्कसंगतता के रास्ते पर लाने वाले नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी, गोविन्द पंसारे और गौरी लंकेश की नृशंस हत्या कर दी गई। न्याय देने वाली संस्थाएं, मीडिया और कार्यपालिका से लोगों का भरोसा उठ रहा है और दक्षिणपंथी तत्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण को धता बताकर अंधविश्वास व किंवदंतियों को सत्य साबित कर रहे हैं। इतिहास के साथ छेड़छाड़ हो रही है। कमज़ोर, दलित और अल्पसंख्यक भय के वातावरण में जी रहे हैं। यह वैसा ही अंधकारमय युग है जैसा राममोहन रॉय ने देखा था।

राममोहन रॉय का कॉस्मोपॉलिटन दृष्टिकोण

राजा राममोहन को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के प्रगतिशील अफसरों और उदारवादियों का समर्थन न मिला होता तो उनके लिए इस आंदोलन को आगे बढ़ाना मुश्किल हो जाता। परंतु कई लोग जब यह कहते हैं कि राममोहन अंग्रज़ों के समर्थक थे तो वे यह नहीं समझते कि उनका समय पुरातनपंथ और अंधविश्वास का एक ऐसा काला दौर था जब न किन्हीं धर्मगुरुओं, न ज्ञानियों और न समाज के उत्थान में लगे लोगों की कोई बात सुनी जा रही थी और न कोई खुलकर बोल रहा था। पुनरुत्थानवाद का बोलबाला था और चारों ओर एक पस्ती व निराशा पसरी हुई थी। उस समय ब्रिटिश हुकूमत के माध्यम से जो भी आधुनिक बातें लाई जा रही थीं, मस्लन शिक्षा और नए कानून, राममोहन उनका लाभ उठाकर सामाजिक बदलाव के लिए लड़ रहे थे। पर राममोहन ने अंग्रज़ों की हर गलत नीति का विरोध भी लगातार किया। अपने एक अंग्रेज़़ मित्र को पत्र लिखकर राममोहन कहते हैं ‘‘यह संघर्ष केवल सुधारवादियों और गैर-सुधारवादियों के बीच नहीं है, यह पूरी दुनिया में आज़ादी और उत्पीड़न के बीच है, न्याय और अन्याय के बीच है, सही और गलत के बीच है। हम यदि इतिहास के पिछले घटनाक्रम पर विचार करें तो पाएंगे कि राजनीति और धर्म के क्षेत्र में उदारवादी विचार धीरे-धीरे, पर मज़बूती के साथ आगे बढ़े हैं.....’’

राममोहन बौद्धिक, सामाजिक व राजनीतिक आज़ादी के हिमायती थे। उन्हें रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘भारतपथिक’ का खिताब दिया था। वे स्वयं एक सामंती परिवेश में पले-बढ़े थे और परिवार में महिलाओं के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। इसलिए राममोहन के आंदोलन के महत्व को समझ सके। 

आखिर यह कॉस्मोपालिटन और आधुनिक विश्व दृष्टि राममाहन को कैसे मिली? राममोहन एक कुलीन व धनी ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे इसलिए वे उसमें रहकर नज़दीकी से पुरातनपंथी, पितृसत्तात्मक विचारों को समझ पा रह थे। उनके मन में इसके प्रति घृणा पैदा होती थी और वे वेदान्त के उसूलों को अपनाते हुए इनका नाश करने की सोचते थे।

ब्रह्म समाज की स्थापना

राममोहन रॉय को समस्त किस्म के कट्टरवादी, दकियानूसी और संकीर्ण विचारों से लोहा लेना था पर वे धर्म के विरुद्ध नहीं थे। बल्कि वे एक ईश्वरवादी थे और एक ही आध्यात्मिक शक्ति की कल्पना करते थे। उन्होंने कई देवी-देवताओं, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक और पाप-पुण्य की प्रचलित धारणाओं को सिरे से खारिज कर दिया था।

उन्होंने सभी धर्मों ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। जबकि मातृभाषा बंगला थी, उन्होंने अरबी, फ़ारसी, ग्रीक हिब्रू, संस्कृत सहित अंग्रेज़ी पर महारथ हासिल की ताकि वे धर्मग्रन्थों और दर्शानिकों व विचारकों की कृतियों को मूल भाषा में पढ़ सकें। संस्कृत के ढेर सारे ग्रन्थों का उन्होंने बंगला में अनुवाद कर आम बंगालवासियों को उपलब्ध कराया। 1804 में उन्होंने फ़़ारसी भाषा में एक ग्रन्थ लिखा- तुहफ़ात-उल-मुवाहिदीन (देवताओं को एक उपहार) जिसमें सभी धर्मों में रूढ़िवाद और पोंगापंथ का उन्होंने जमकर विरोध किया।

उन्होंने अंधविश्वास की मुख़ालफ़त की और जाति प्रथा व अस्पृश्यता को पूरी तरह खारिज किया। पर उन्हें एक ऐसी संस्था की ज़रूरत थी जिसके माध्यम से वे अपने विचारों को अमल में ला सकते। इसी मकसद से उन्होंने आत्मीय सभा की स्थापना 1815 में की और फिर 1828 में ब्रह्म सभा की स्थापना की, जो बाद में ब्रह्म समाज के रूप में जाना जाने लगा। यह भारत का पहला सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था।

ब्रह्म समाज के विचार में सभी मनुष्य एक ईश्वर की संतान थे और आपस में भाई-बंधु। और यह बंधुत्व केवल भारत के अंदर नहीं बल्कि विश्व पैमाने पर विस्तार पाता था। फिर भी ऐसा नहीं था कि यह सबकुछ आसानी से हो गया और आंदोलन को सफलता मिल गई। राममोहन रॉय को कट्टरपंथियों का काफ़ी विरोध सहना पड़ा था। राममोहन को ‘राजा’ की उपाधि अकबर द्वितीय ने दी थी।

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

राजा राममोहन रॉय शिक्षा को प्रगति और आधुनिकता की पूर्वशर्त मानते थे। उनकी समझ थी कि अज्ञानता ही तमाम रूढ़िवाद और अंधविश्वास की जड़ है। औरतों की शिक्षा पर अधिक ज़ोर देने के पीछे उनकी समझ थी कि महिलाएं तबतक उत्पीड़ित होती रहेंगी जबतक वे स्वतंत्र नहीं होतीं और यह केवल शिक्षा से संभव है। दलित समाज के लिए ठीक यही विचार डॉ. अम्बेडकर का भी था- शिक्षित हो, संगठन बनाओ और समाज को बदलो। उनके प्रयास से हिन्दू कॉलेज, जो बाद में प्रेसिडेंसी कॉलेज और फिर विश्वविद्यालय बना को एक स्कॉटिश परोपकारी डेविड हेयर की मदद से स्थापित किया गया था आर सिटी कॉलेज व वेदान्त कॉलेज सहित कई अंग्रेज़ी स्कूल उनके प्रयासों से कलकत्ता में खुले। ऐंग्लो इंडियन स्कूल खुला और अलेक्सैंडर डफ की मदद से जेनरल असेंम्ब्ली संस्था शुरू की गई जिसे स्कॉटिश चर्च कॉलेज के रूप में जाना जाता है। 

श्री प्रदीप बक्शी, जो:‘गणित पर मार्क्स’ के अध्येता हैं, कहते हैं कि जैसे राममोहन रॉय से पूर्व का समय था या उनका अपना समय था, वैसा ही समय हम आज देख रहे हैं जब उन जैसे समाज सुधारक की ज़रूरत महसूस की जा रही है। आज भी सती का अंत नहीं हुआ है और विधवाओं को आम तौर पर परिवार के भीतर व बाहर भयानक उत्पीड़न सहना पड़ता है। आज भी प्रेमियों को जाति पंचायतों के फ़तवे मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसे अनेकों बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां आज पूरे दक्षिण एशिया में अपना जाल बिछा चुकी हैं और आईएमएफ, विश्व बैंक व डब्लूटीओ जैसी एजेंसियों के तत्वावधान में काम कर रही हैं। राजा राममोहन रॉय ने राजनीतिक व सामाजिक उदारवाद के जिस ऐजेन्डे को 18वीं शताब्दी में उठाया था वह अभी भी अधूरा है। इसलिए आज राजा राममोहन रॉय की प्रासंगिकता बहुत बढ़ गई है।’’

(लेखिका एक महिला एक्टिविस्ट हैं और सामयिक विषयों पर लिखती हैं।)

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