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क्या तमिलनाडु सरकार ने NEET को ख़ारिज कर एक शानदार बहस छेड़ दी है?

तमिलनाडु सरकार ने केवल NEET को खारिज नहीं किया है बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं की अवधारणा को चुनौती दे डाली है!
 NEET
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

हम सब का जोर केवल परीक्षा में मिलने वाले अंकों पर होता है। हम अंकों के पीछे छिपी सच्चाई को पढ़ने से परहेज करते हैं। जनता यह परहेज करें तो कोई बात नहीं, लेकिन सरकार भी इस सच्चाई से परहेज करने लगे तो समाज में अपने आप अन्याय की कई तरह की दीवार खड़ी हो जाती हैं। अंकों के पीछे की सच्चाई यही है कि जो अमीर है, जिनके माता-पिता ग्रेजुएट हैं, जो ऊंची जाति से आते हैं, जो एक पढ़ने लिखने वाले माहौल में रह रहे हैं, जिनका बचपन कई तरह के बंदिशों का शिकार नहीं हुआ है, जिनके साथ जिंदगी ने कम चुनौतियां पेश की हैं, वही स्वाभाविक तौर पर पढ़ाई लिखाई में अंकों के मामले में अव्वल रहते हैं। इसलिए किसी आदिवासी इलाके में रहने वाले बच्चे की जीवन की चुनौतियां किसी शहरी इलाके में रहने वाले बच्चे की जीवन की चुनौतियों से कई गुना अधिक होती हैं। इसे पार करना पहाड़ के बराबर होता है। इसलिए शिक्षाविदों का कहना होता है एक घनघोर असमानता वाले समाज में किसी भी तरह की परीक्षा अंततः कई तरह के खामियों से भरपूर होती हैं। सरकार जैसी संस्था की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह परीक्षा लेते समय ऐसी व्यवस्था बनाए जहां पर यह खामियां कम-से-कम उजागर हो।

इसी राह पर चलते हुए तमिलनाडु सरकार ने NEET जैसी प्रतियोगी परीक्षा के पूरे अवधारणा को चुनौती दी है। तमिलनाडु विधानसभा ने सदन में बिल पास कर यह फैसला लिया है कि उसके राज्य के मेडिकल और डेंटल कॉलेज में केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होने वाली NEET की परीक्षा के जरिए प्रवेश नहीं लिया जाएगा।

ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु में यह पहली बार हो रहा है कि NEET की परीक्षा को चुनौती दी जा रही हो। साल 2017 में मौजूदा समय की विपक्षी पार्टी यानी AIADMK की सरकार थी। तब भी तमिलनाडु को NEET से बाहर ले जाने वाला बिल आया था। लेकिन राष्ट्रपति ने उस पर मुहर नहीं लगाई थी। इसलिए वह कानून नहीं बन पाया। फिर से चुनावी राजनीति का मुद्दा बना। अबकी बार डीएमके की सरकार ने फिर से इसे विधानसभा से पास करवा लिया है।

यह पूरा फैसला अचानक नहीं हुआ है। इसमें राजनीति की रस्साकशी कम अपने समाज को देखकर किया गया जमीनी चिंतन और विचार ज्यादा हावी है। पिछले साल मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने NEET परीक्षा से तमिल समाज पर पड़ने वाले सामाजिक आर्थिक प्रभाव को जानने के लिए एक पैनल गठित किया था। इस पैनल की अध्यक्षता हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एके राजन के हाथों में थी। 

इस कमेटी की रिपोर्ट थी कि अगर नीट की परीक्षा जारी रही तो तमिलनाडु के सरकारी मेडिकल कॉलेज में ग्रामीण और शहरी इलाकों से आने वाले गरीब बच्चों को एडमिशन नहीं मिल पाएगा। नीट की परीक्षा एक तरह की दीवार खड़ा करती है जिसे वहीं लांघ पाने में सफल हो रहे हैं, जो अमीर परिवार से आते हैं। ऊंची जाति के हैं। जिनके लिए पैसा जुगाड़ने की चिंता कभी पैदा नहीं होती। NEET की वजह से सबसे बड़ा नुकसान तमिल माध्यम से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को हो रहा है। पहले के मुकाबले तकरीबन 90 फीसदी तमिल माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों का एडमिशन कम हो रहा है।सरकारी स्कूलों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों को परीक्षा आगे बढ़ने से रोक रही है। जिनके माता-पिता की आमदनी ढाई लाख सलाना से कम है, उनका नुकसान सबसे अधिक हो रहा है। जो सामाजिक तौर पर पहले से ही जातिगत या किसी भी तरह के पिछड़ेपन का शिकार हैं उन्हें इस  परीक्षा के प्रारूप ने और भी पीछे धकेला है। इसलिए जितनी जल्द हो सके मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए मौजूद इस परीक्षा पद्धति को खारिज कर देना चाहिए।

तमिलनाडु सरकार का कहना है कि उसने इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही फैसला लिया है। सामाजिक न्याय व स्थापित करना जरूरी है। इसलिए मेडिकल, डेंटल, इंडियन मेडिसिन और होम्योपैथी से जुड़े सरकारी कॉलेज में एडमिशन के लिए 12वीं क्लास में मिले अंकों को आधार बनाया जाएगा।

इसके बाद भी वह सवाल छूटा रह जाता है जो तकरीबन हर भारतीय की मानसिकता से जुड़ा हुआ है। हर भारतीय को लगता है कि अगर सबके लिए एक ही तरह के प्रश्नों के आधार पर एक परीक्षा लेकर काबिलियत परखी जाए तो सबसे काबिल यानी मेरिटोरियस विद्यार्थी निकल कर सामने आएंगे। इसलिए NEET जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिए परखी गई काबिलियत स्कूलों की परीक्षाओं से मिले अंकों से ज्यादा भरोसेमंद हैं। यानी स्कूलों में मिले अंकों के आधार पर नहीं बल्कि एंट्रेंस एग्जामिनेशन के आधार पर काबिलियत की जांच होनी चाहिए।

जितनी रिसर्च की पैरवी NEET जैसी परीक्षा के आयोजन के लिए दी जाती है उससे कहीं ज्यादा रिसर्च अंकों के आधार पर मिलने वाले काबिलियत पर की गई है। शिकागो यूनिवर्सिटी का एक रिसर्च बताता है कि जिन बच्चों को किसी प्रतियोगी परीक्षा में बराबर अंक मिले उनमें से जिसे हाई स्कूल में ज्यादा अंक मिले थे उसने अपने आगे की यूनिवर्सिटी की पढ़ाई में ज्यादा बेहतर किया। यानी हाईस्कूल का अंक किसी प्रतियोगी परीक्षा के मुकाबले काबिलियत तय करने का ज्यादा बढ़िया मानक है।

मिशीगन यूनिवर्सिटी का रिसर्च पेपर बताता है कि जो बच्चे ब्लैक समुदाय के थे, जिन्हें सरकार के सामाजिक न्याय की नीतियों की वजह से स्कूलों और कॉलेजों में एडमिशन मिला। उन्होंने व्हाइट बच्चों के मुकाबले स्कूलों और कॉलेजों में कमजोर प्रदर्शन किया। लेकिन यही बच्चे जब बड़े होकर एक ही कैरियर का हिस्सा बने तो शुरुआती कुछ समय के बीतने के बाद दोनों काबिलियत के मामले में एक ही जगह पहुंच गए। यानी अगर अवसर मिलेगा तो समय के साथ काबिलियत भी आ जाती है। ।

सलेम धारेंधरन द्रविडियन प्रोफेशनल ग्रुप के सदस्य हैं। इसी विषय पर दक्षिण भारत के खबरों पर काम करने वाली वेबसाइट द न्यूज़ मिनट पर इनकी राय छपी है। इनका कहना है कि एंट्रेंस एग्जामिनेशन के लिए किसी को प्रशिक्षित किया जा सकता है। लेकिन एंट्रेंस एग्जामिनेशन की डिजाइन ऐसी नहीं होती कि इसके जरिए व्यक्ति के भीतर मौजूद समझदारी यानी इन्हेरेंट इंटेलिजेंस की परख हो पाए। इन्हरेंट इंटेलिजेंस का विकास विशुद्ध तौर पर शिक्षा की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। पढ़ाई लिखाई पर कितना समय और किस तरह की शिक्षा ली जा रही है इस पर डिपेंड करता है। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए ऐसी पढ़ाई नहीं की जाती। इसीलिए प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता हासिल करने के नाम पर कई तरह के कोचिंग सेंटर खुले हुए हैं। कोचिंग सेंटर में ले जाकर बच्चों को पटक दिया जाता है। वह कभी विद्यार्थी होने का सुख नहीं ले पाते। साल 2005 का एक अध्ययन था कि आईआईटी में एडमिशन लेने वाले तकरीबन 95% बच्चों ने किसी शहरी इलाके में कोचिंग सेंटर से प्रशिक्षण लिया था। गरीब तबकों से आने वाले मुश्किल से 3% से कम बच्चे भी ऐसी नामी गिरामी शिक्षण संस्थानों में नहीं पहुंच पाते हैं। इसलिए मोदी सरकार की NEET वाली परीक्षा से किसी तरह की गुणवत्ता नहीं बनेगी। गुणवत्ता बनाने के नाम पर इसे थोपा जा रहा है। अगर गुणवत्ता ही चाहिए तो NEET से जितना जल्दी बाहर निकल जाया जाए उतना बढ़िया।

सलेम धरेंधरन आगे लिखते हैं कि तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति की वजह से स्वास्थ्य क्षेत्र में ढेर सारा निवेश किया गया है। तमिलनाडु की हर सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र को अहमियत दी है। इसी वजह से तमिलनाडु की स्वास्थ्य सुविधाएं भारत के सभी राज्यों के बीच की गई रैंकिंग में हमेशा आगे रहता है। तमिलनाडु में ना केवल आबादी और डॉक्टर के बीच का अनुपात बेहतर है बल्कि डॉक्टर भी दूर दराज के इलाकों तक फैले हुए हैं। चेन्नई को भारत में मेडिकल टूरिज्म का गढ़ माना जाता है। यह किसी एंट्रेंस एग्जामिनेशन की वजह से नहीं हुआ है। बल्कि सरकार द्वारा बनाई गई कमेटी का कहना है कि  NEET की वजह से तमिलनाडु की स्वास्थ्य सुविधाएं आने वाले दिनों में पूरी तरह से चरमरा जाएंगी। एक राज्य ने जब अपने बलबूते स्वास्थ्य क्षेत्र में इतना बढ़िया प्रदर्शन किया है तो उसे केंद्र सरकार की नीतियों की वजह से बर्बाद होने के लिए क्यों छोड़ दिया जाए? 

तमिलनाडु पर केंद्र सरकार की नीतियां ठोकने की बजाए इसे शेष भारत के लिए उदाहरण के तौर पर पेश किया जाना चाहिए। भारत कई तरह की विविधताओं में बटा हुआ मुल्क है। राज्यों की प्रगति का पैमाना बहुत ऊबड़ खाबड़ है। तमिलनाडू में झारखंड राज्य को जितनी डॉक्टरों की जरूरत है उससे 32 गुना डॉक्टर मौजूद हैं। अगर भारत में राज्यों के बीच इतनी अधिक विविधता है तो सरकार यह कैसे कह सकती है कि देशभर में एक ही नियम अपनाया जाए? यह भारत के संघवाद के खिलाफ है।

भारत के संविधान में संघवाद को संरक्षित करने के लिए कई तरह के प्रावधान हैं। ऐसा भी प्रावधान हैं कि अगर राज्य सरकार चाहे तो केंद्र सरकार से अलग जाकर नियम बना सकती है बशर्ते केंद्र सरकार उस नियम की अनुमति दे। इसलिए अब सारा पेंच यही फंसा हुआ कि मोदी सरकार तमिलनाडु के समाज को तवज्जो देती है या अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को?

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