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कश्मीर में ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ता सुरक्षा और मानदेय के लिए संघर्ष कर रहे हैं

सरपंचों का आरोप है कि उग्रवादी हमलों ने पंचायती सिस्टम को अपंग कर दिया है क्योंकि वे ग्राम सभाएं करने में लाचार हो गए हैं, जो कि जमीनी स्तर पर लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं।
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प्रतिनिधिक छवि

निसार अहमद उस समय से लगातार खौफजदा हैं, जब पुलिस ने उन्हें अपना घर छोड़ने और दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा जिले के पंपोर इलाके में बने एक सुरक्षित सरकारी परिसर में शरण लेने के लिए कहा था। उन्होंने घाटी में स्थानीय निकायों की हत्याओं की घटनाओं में बढ़ोतरी को देखते हुए पंपोर और आसपास के इलाकों के जमीनी स्तर के अन्य दर्जनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ एक सरकारी रिहाइश में शरण ले रखी है। निसार न्यूजक्लिक से कहते हैं, "मैं खौफ में हूं क्योंकि जिंदगी सबसे अहम है। तथ्य यह है कि मैं रमजान के पवित्र महीने के दौरान अपने परिवार से दूर रह रहा हूं, जो मुझे सबसे अधिक बेचैन किए हुए है।”

पिछले सात हफ्तों के दरम्यान हुए आतंकवादी हमलों में पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) के चार सदस्य-तीन सरपंच और एक पंच मारे गए हैं, जिनमें से सबसे हाल-फिलहाल में उत्तरी कश्मीर के बारामूला जिले के पट्टन के गोशबुग गांव के सरपंच मंजूर अहमद बंगरू की हत्या की गई है। पिछले महीने दक्षिण कश्मीर के कुलगाम जिले में दो सरपंच और श्रीनगर के बाहरी इलाके में एक अन्य सरपंच की हत्या कर दी गई थी। 

केंद्र शासित राज्य में एक चुनी सरकार की गैरहाजिरी में, जमीनी स्तर के इन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को घाटी के नए नेताओं के रूप में घोषित किया गया था। बहरहाल, इनकी हत्याओं में बढ़ोतरी से पंचों और सरपंचों पर नए सिरे से आतंकवादी हमले की आशंका बढ़ गई है। इनमें से अधिकतर सदस्य सरकार पर उनके मुद्दों को लेकर चिंतित नहीं होने का आरोप लगाते हैं, भले ही वे उन्हें सुरक्षा देने या उनके मानदेय का वक्त पर भुगतान की बात कर रही हो।

जम्मू-कश्मीर पंचायत राज आंदोलन के अध्यक्ष गुलाम हसन वानी के अनुसार, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में जहां पंचों और सरपंचों का एक गठबंधन है परंतु स्थिति चिंताजनक है, और पंचायत के सदस्य अपनी सुरक्षा में कमी के कारण हमेशा की तरह ही आतंकवादियों के लिए एक आसान निशाना बने हुए हैं। वानी ने न्यूजक्लिक से कहा,"इन हत्याओं ने हमें डरा दिया है क्योंकि आतंकवादी हमारी सुरक्षा में कसर रह जाने के कारण हमें निशाना बना रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में, सरकार हमें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने में विफल रही है, और यदि यह स्थिति बनी रहती है, तो हमें बड़े पैमाने पर इस्तीफे देने के लिए मजबूर होना होगा।”

 वानी का मानना है कि निशाना बना कर की जा रही हत्याएं तब से बढ़ गई हैं, जब सरकार ने यह घोषणा की कि परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव कराए जाएंगे। उन्होंने बताया कि गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले महीने लोकसभा में कहा था कि उनकी जम्मू-कश्मीर को राष्ट्रपति शासन के तहत रखने में केंद्र की कोई दिलचस्पी नहीं है और परिसीमन के बाद वहां चुनाव कराए जाएंगे।

उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव आवश्यक है और सरकार को प्रतिनिधियों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी चाहिए। 2012 के बाद से स्थानीय निकायों के 32 सदस्यों की हत्या हो जाने के बावजूद सरकार ने उनकी हिफाजत के मुकम्मल इंतजाम नहीं कर पाई है। उन्होंने कहा,“जब भी हत्याएं होती हैं, नई दिल्ली हमें बुलाती है और हमारी हिफाजत का वादा कर देती है, लेकिन कभी इसको पूरा नहीं करती है।"

जम्मू-कश्मीर में पंच और सरपंच की तदाद लगभग 33,000  है। इतने लोगों को सुरक्षा प्रदान करना सुरक्षा बलों को मुश्किल लगता है क्योंकि उनके आधे पुलिस बल तो इसमें ही खप जाएगा। फिर घाटी की नाजुक कानून और व्यवस्था की स्थिति से निपटने की पुलिस की ताकत घट कर आधी ही रह जाएगी। बहरहाल, पुलिस ने संवेदनशील इलाकों में रात्रि गश्त शुरू कर दी है और हमले की आशंका को कम करने के लिए जहां-तहां अतिरिक्त सुरक्षा चौकियां लगाई हैं।

 कुछ पंचायत सदस्यों ने यह दावा करते हुए कि वे उन समुदायों के बीच सक्रिय नहीं हैं, जिनके लिए उन्होंने चुनाव लड़े थे, सुरक्षा में रहने से इनकार कर दिया है। दक्षिण कश्मीर के गांवों में से एक सरपंच नजीर अहमद ने न्यूजक्लिक से कहा,"हम बिल्कुल डरे हुए हैं, लेकिन हम सुरक्षा में भी नहीं रह सकते क्योंकि हमने चुनाव जनता को राहत प्रदान करने के लिए लड़ा था। लिहाजा, अपने समुदाय से अलग-थलग रहने की तुलना में इस्तीफा देना ही बेहतर है।"

अहमद ने कहा कि हमलों ने सिस्टम को अपंग कर दिया है क्योंकि हमलों की आशंका के चलते वे ग्राम सभाएं नहीं बुला सकते हैं, जो कि जमीनी स्तर पर लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं और "यह सबसे बड़ी समस्या है,जिसका हम सब अभी सामना कर रहे हैं।"

जम्मू-कश्मीर में 2018 में पंचायत चुनाव हुए थे। विशेष रूप से दक्षिण कश्मीर में एक महत्त्वपूर्ण सीट खाली रही, क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने चुनाव में भाग नहीं लिया था और आतंकवादियों ने लोगों से मतदान में भाग नहीं लेने की चेतावनी दी थी। इन पदों और जिला विकास परिषदों (डीडीसी) के लिए उपचुनाव 2020 में हुए थे।

पंचों और सरपंचों का मानदेय पांच महीने से बकाया

बड़ी तादाद में पंच और सरपंच इन चुनावों में अपनी भागीदारी को लेकर अफसोस करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि चुनाव बाद सरकार ने उन्हें बिसरा दिया है। इसका सबूत है,पिछले छह महीने से उनके मानदेय का भुगतान नहीं किया जाना।

इन स्थानीय निकाय के अधिकतर प्रतिनिधियों ने न्यूजक्लिक को बताया कि प्रशासन जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज संस्थान को मजबूत करने का दावा करता है, लेकिन मानदेय जारी करने में हीलाहवाली इन संस्थानों के प्रति प्रशासन की उपेक्षा जाहिर करती है। जम्मू-कश्मीर पंचायत राज आंदोलन के महासचिव बशीर अहमद ने कहा, "सरकार के बार-बार के आश्वासनों के बावजूद कि कम वेतन वाले स्थानीय निकाय के प्रतिनिधियों को समय पर भुगतान किया जाएगा, पंचों और सरपंचों के मानदेय के भुगतान में पिछले पांच महीने से देरी हो रही है।"

जबकि एक निर्वाचित सरकार की अनुपस्थिति में, ये स्थानीय प्रतिनिधि केंद्र सरकार के मुख्य कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। इसके बावजूद सरकार ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने दावा किया कि हालांकि मानदेय की राशि थोड़ी है, फिर भी अगर इसका नियमित भुगतान किया गया होता तो इससे सरपंच के परिवार को लोगों की सेवा करने की उनकी क्षमता पर भरोसा रहता। दक्षिण कश्मीर के एक अन्य स्थानीय निकाय प्रमुख मीर अल्ताफ ने कहा,“एक पंच को प्रति माह 1,000 रुपये मिलते हैं, जबकि सरपंच को 3,000 रुपये मिलते हैं। हम पहले से ही इतनी कम आय पर गुजारे के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, अब और इंतजार करना हमारे लिए चीजों को और भी मुश्किल बना देगा। ”

हालांकि सरकार का दावा है कि अनुदान प्राधिकरण और वित्त पोषण पीआर प्रणाली को मजबूत करेगा, लेकिन सरपंच दावा करते हैं कि धन उसी तरीके से आवंटित नहीं किया गया था। उनके अनुसार, कुछ सरपंचों का मानदेय 2016 के बाद से ही बकाया है। एक अन्य सरपंच ने कहा,"उनके बकाया वेतन का भुगतान करने के लिए लगभग नौ करोड़ की राशि चाहिए थी,लेकिन मात्र दो करोड़ का ही आधा-अधूरा भुगतान किया गया।"उन्होंने यह भी कहा कि ये पंच-सरपंच अपनी जिंदगी कुर्बान कर रहे हैं लेकिन अधिकारियों ने इसको कभी तवज्जो नहीं दिया,जिससे इलाके की तरक्की ठप पड़ी हुई है।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Kashmir-Grassroots-Political-Workers-Continue-Struggle-Safety-Remuneration 

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