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धारा 370 के बाद ज़िंदगी: कोविड योद्धाओं का अनादर करती जम्मू कश्मीर की सरकार

नॉवेल कोरोनावायरस महामारी के दौरान सफ़ाईकर्मी ख़ौफ़नाक कोविड-19 बीमारी से लड़ने में सबसे आगे थे।
धारा 370 के बाद ज़िंदगी: कोविड योद्धाओं का अनादर करती जम्मू कश्मीर की सरकार
फ़ोटो: साभार: बिजनेस स्टैंडर्ड

कश्मीर के सफ़ाईकर्मी, जिनमें स्थानीय मुसलमान और वाल्मीकि मज़दूर शामिल हैं, इन्हें सरकार की तरफ़ से प्रति माह 100 रुपये या 500 रुपये का भुगतान किया जा रहा है, श्रीनगर से राजा मुज़फ़्फ़र भट की रिपोर्ट। हाई कोर्ट के आदेश और अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के दौरान और बाद में किए गए लंबे-चौड़े दावों के बावजूद घाटी या जम्मू में दशकों से इनके हालात नहीं बदले हैं।

अफ़रोज़ा 22 से ज़्यादा सालों से जम्मू और कश्मीर स्वास्थ्य विभाग में अंशकालिक स्वीपर हैं। पुलवामा के ब्लॉक मेडिकल ऑफ़िसर की तरफ़ से 27 जनवरी 1998 को जारी किए गए उनके नियुक्ति आदेश में कहा गया है कि उन्हें “100 रुपये प्रति माह की देय राशि" में टिकेन के उप-केंद्र का सफ़ाई कार्य करना है।

यह मज़दूरी पहले से ही इतनी कम थी, ऊपर से दहला देने वाली बात यह है कि दो दशकों से ज़्यादा का समय बीत जाने के बाद भी उनकी सेवाओं को नियमित नहीं किया गया है, हालांकि उन्हें स्वीपर के एक ख़ाली हुए पद पर नियुक्त किया गया था, और इनते दिनों बाद भी न तो उनका पद बदला और न ही उनका वेतन ही बढ़ा है। अफ़रोज़ा को न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948 के मुताबिक़ जो पारिश्रमिक होना चाहिए, उसका भी भुगतान नहीं किया जाता है। इस समय, वह दक्षिण कश्मीर के पुलवामा ज़िले के शासकीय उप-स्वास्थ्य केंद्र, चेवा कलां में काम कर रही हैं।

अफ़रोज़ा का नियुक्ति आदेश

अफ़रोज़ा और उन जैसे सैकड़ों अन्य श्रमिकों, जिन्हें "समेकित स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी" के तौर पर जाना जाता है, को सभी श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करते हुए बहुत ही कम मासिक पारिश्रमिक का भुगतान किया जा रहा है। अफ़रोज़ा मामले पर शोध करने के बाद, इस लेखक को ख़ास तौर पर घाटी में जम्मू-कश्मीर सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से हो रही नाइंसाफ़ी के बारे में पता चला।

टूटे वादे

जम्मू और कश्मीर, ख़ासकर घाटी के तक़रीबन सभी ज़िलों के उप-केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs), उप-ज़िला अस्पतालों (SDH) और ज़िला अस्पतालों में काम करने वाले सफ़ाईकर्मियों की यही नियति है।

जब धारा 370 को निरस्त किया गया था, तब कहा गया था कि इससे जम्मू के वाल्मीकि समुदाय को उनके लम्बे समय से नहीं मिल रहे वाजिब हक़ मिलेंगे। पिछले 64 सालों से जम्मू में रह रहा यह समुदाय ज़्यादातर जम्मू नगर निगम या निजी संस्थानों में सफ़ाईकर्मियों के तौर पर कार्यरत है। हालांकि, दयनीय जीवन जीने को मजबूर इस समुदाय के हालात अब भी अनदेखी के शिकार हैं। कार्यस्थल पर वे जिन चुनौतियों का सामना करते हैं, उन्हें भी चिह्नित नहीं  किया जाता है या उनका ज़िक़्र भी काग़ज़ पर नहीं होता है।

विडंबना तो यह है कि देश के बाक़ी लोग शायद ही यह जानते हों कि कश्मीर में मुसलमान भी बतौर स्वीपर और सफ़ाईकर्मी काम करते हैं। उनको भी प्रति माह बहुत कम राशि, यानी 100 रुपये या 500 रुपये का ही भुगतान किया जाता है। सरकार को ऐसे सभी उपेक्षित और शोषित श्रमिकों की पहचान करनी चाहिए और उनकी शिकायतों का समाधान करना चाहिए। एक तरफ़, सरकार जहां सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और वंचित समुदायों को सशक्त बनाने के लिए क़ानून बनाती है, तो वहीं दूसरी तरफ़ लोगों को सरकारी संस्थानों में बंधुआ मज़दूर के रूप में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है?

चूंकि वह एक ऐसे समुदाय से सम्बन्ध रखती हैं, जिससे पारंपरिक रूप से छोटे स्तर के कार्य करवाया जाता है, इसलिए अफ़रोज़ा को जो नौकरी मिली थी, उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया  था, लेकिन इस उम्मीद के साथ कि एक दिन उनके पद को नियमित कर दिया जायेगा, क्योंकि उन्हें "रिक्त हुए पद" पर नियुक्त किया गया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

अफ़रोज़ा द लीफ़लेट को बताती हैं, “नियमित हो जाऊं, यही एक सपना है। मैंने सरकार के लिए अपनी जवानी बर्बाद कर दी और बदले में कुछ नहीं मिला। मैं 42 साल की हो चुकी हूं। मैं और सैकड़ों स्वीपर और स्वास्थ्य विभाग में काम करने वाले अन्य लोगों को प्रति दिन 225 रुपये (6,750 रुपये प्रति माह) का न्यूनतम क़ानूनी पगार भी नहीं दिया जाता है, दिल्ली में यह पगार  कहीं ज़्यादा है, वहां प्रति दिन 596 रुपये (15,492 रुपये प्रति माह) है।”  

बच्चों के साथ अफ़रोजा।

अफ़रोज़ा की सेवा पुलवामा ज़िले में स्थित कई सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में ली गयी थी। वह छह साल तक तिकिन के उप-स्वास्थ्य केंद्र में तैनात थीं, उसके बाद पांच साल मांगामा के पीएचसी में स्वीपर के रूप में काम करने के लिए कहा गया था। फिर उन्हें पुचल के पीएचसी भेज दिया गया, जहां उन्होंने दो साल तक काम किया था, जिसके बाद उन्हें पीएचसी, नेवा में नियुक्त कर दिया गया, जहां उन्होंने रात की शिफ़्ट के दौरान भी काम किया था। 2010 से वह चेवा कलां के उप-स्वास्थ्य केंद्र में काम कर रही हैं।

वह बताती हैं, “पिछले 20 सालों के दौरान मैंने (काम के सिलसिले में) सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमला करते हुए सफ़र पर बहुत पैसे ख़र्च किए हैं। अगर डॉक्टर और अन्य पैरामेडिकल स्टाफ़ का सहयोग और मदद नहीं मिलती, तो मैं नौकरी छोड़ चुकी होती। उन्होंने मेरी बहुत मदद की है। अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए  मैं छुट्टियों और रविवार को स्थानीय खेतों में काम करती हूं। मेरे पति मवेशी शेड से गोबर हटाने और उसे खेतों में ले जाने जैसे काम करते हैं। अपनी ग़रीबी में भी हमने अपने बच्चों की शिक्षा से कोई समझौता नहीं होने दिया है।” उनके बेटे कक्षा X और III में हैं और उनकी बेटियां IV और VII कक्षा में पढ़ती हैं। अफ़रोज़ो कहती हैं, "मेरा अब एक ही सपना है, और वह है- अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा देना।"

संगठित होते समेकित कामगार  

ये कथित समेकित कामगारों में ज़्यादातर स्वास्थ्य विभाग में काम करने वाले स्वीपर हैं। इससे पहले तो वे संगठित नहीं थे, लेकिन छह महीने पहले कुछ श्रमिकों ने अपने समुदाय को व्यवस्थित करने के प्रयास शुरू कर दिए। जम्मू-कश्मीर समेकित स्वास्थ्य कर्मचारी संघ के तत्वावधान में इस लंबी लड़ाई को लड़ने के लिए गुलज़ार अहमद, अब्दुल अहद शेख़ और दर्जनों अन्य कार्यकर्ता लामबंद हुए हैं। वे इन स्वास्थ्य विभाग के श्रमिकों और उन्हें मिलने वाले पारिश्रमिक का वास्तविक विवरण हासिल करने के लिए कश्मीर घाटी के कई ज़िलों के दौरे किये।

गुलज़ार एक आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय से आते हैं और वे भी स्वास्थ्य विभाग, बडगाम में बतौर एक ड्राइवर 15 सालों से 3,000 रुपये प्रति माह की मामूली मज़दूरी पर काम कर रहे हैं। एक कुशल श्रमिक के तौर पर उन्हें प्रति दिन 350 रुपये (प्रति माह 10,500 रुपये) मिलने चाहिए। अब्दुल अहद शेख़ 54 वर्ष के हैं और कुपवाड़ा के सीमावर्ती ज़िले के रहने वाले हैं, उन्हें हर महीने 100 रुपये का भुगतान किया जाता है।

अब्दुल अहद कहते हैं, “अगर मेरा बेटा एक छोटा ढाबा नहीं चला रहा होता, तो मेरी ज़िंदगी तबाह होती। मैं 54 साल का हो चुका हूं और पिछले 25 वर्षों की सेवा में बहुत कुछ झेल चुका हूं, लेकिन मैं अब उन अन्य लोगों के लिए लड़ूंगा, जिनके साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। यहां तक कि अगर हमें सुप्रीम कोर्ट भी जाना पड़ता है, तो हम इस नाइंसाफ़ी और बंधुआ मज़दूरी के ख़िलाफ़ वहां तक भी लड़ेंगे।”

हाईकोर्ट का आदेश

इससे पहले, गुलज़ार अकेले ही इन समेकित श्रमिकों के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन अब वह मज़बूत महसूस कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपने सहकर्मियों का समर्थन मिल रहा है और अब वे अपने संयुक्त मोर्चे के संरक्षक के तौर  पर इसे आगे बढ़ा रहे हैं। 2011 में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री-उमर अब्दुल्ला से मुलाक़ात की थी, उमर ने तब जम्मू-कश्मीर वित्त विभाग से एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी थी। वित्त विभाग ने एक सर्कुलर जारी कर स्वास्थ्य विभाग को समेकित आधार पर काम करने वालों का विवरण देने के लिए कहा था। लंबे संघर्ष के बाद विभाग ने 1,541 लोगों (ज़्यादातर स्वीपर और हेल्पर्स) की एक सूची तैयार की।

गुलज़ार कहते हैं, “जम्मू क्षेत्र में समेकित श्रमिकों के रूप में कितने लोग काम कर रहे हैं, इस बारे में हमारे पास कोई नवीनतम जानकारी नहीं है, लेकिन हम इसे (सूचना) व्यवस्थित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं।"  

शुरुआत में वित्त विभाग ने सवाल उठाया था कि क्या ये 1,541 श्रमिक अंशकालिक या पूर्णकालिक तौर पर कार्यरत हैं। स्वास्थ्य निदेशालय और मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) और ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी (BMO) जैसे आहरण एवं संवितरण अधिकारियों (Drawing and Disbursing officers-DDO) ने स्पष्ट किया था कि सभी 1,541 लोग स्वास्थ्य विभाग में सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक, और कई तो रात में भी  काम करने वाले पूर्णकालिक कर्मचारी ही थे।

वित्त विभाग ने एक बार फिर  कश्मीर के स्वास्थ्य सेवा के निदेशक से उस लेखांकन मद के बारे में पूछा, जिसके तहत इन समेकित श्रमिकों को मज़दूरी का भुगतान किया जा रहा था। गुलज़ार अहमद कहते हैं कि निदेशक ने जवाब दिया था कि उन श्रमिकों को "मज़दूरी" का भुगतान किया गया था, न कि लेखांकन मद के लिहाज़ से "वेतन" दिया गया था।

2016 में स्वास्थ्य विभाग के सचिवालय (संचार संख्या: HD/NG/06/2011,दिनांक 4 अगस्त 2016) ने इन समेकित स्वास्थ्य कर्मियों के पगार में बढ़ोतरी की सिफ़ारिश की थी। 100 रुपये का भुगतान किये जाने वाले श्रमिकों को 500 रुपये प्रति माह मिलने थे, 500 रुपये प्रति माह का भुगतान पाने वालों के लिए प्रति माह 1,000 रुपये की मज़दूरी की सिफ़ारिश की गयी थी और उन श्रमिकों के लिए 1,500 रुपये का वेतन तय किया गया था, जिन्हें पहले से 1,000 रुपये प्रति माह का भुगतान किया जा रहा था। अधिकतम पगार 3,000 रुपये प्रति माह तय किया गया था, जो सिर्फ़ मुट्ठी भर ड्राइवरों को भुगतान किया जाना था।

हालांकि, उन मुट्ठी भर ड्राइवरों को छोड़कर, जिन्हें अब 3,000 रुपये प्रति माह का भुगतान मिलता है, सरकार की तरफ़ से अब भी इस छोटी रक़म में होने वाली बढ़ोत्तरी को लागू नहीं किया गया है। जम्मू-कश्मीर सरकार ने 26 अक्टूबर 2017 को (SRO 460 के तहत) न्यूनतम संशोधित मज़दूरी अधिनियम को अधिसूचित किया था। इसके बाद से अकुशल श्रमिक 225 रुपये प्रतिदिन की न्यूनतम मज़दूरी, कुशल श्रमिक प्रति दिन 350 रुपये और अत्यधिक कुशल श्रमिक 400 रुपये प्रति दिन की मज़दूरी पाने का हक़दार बन गये थे।

चूंकि समेकित स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए यह संशोधित मज़दूरी लागू नहीं किया गया था, इसलिए गुलज़ार अहमद ने इस सिलसिले में उस अधिनियम को लागू किये जाने की मांग करते हुए जम्मू और कश्मीर सरकार के वित्त सचिव को एक चिट्ठी लिखी थी। वित्त सचिव ने इस मामले को स्वास्थ्य विभाग को भेज दिया था और नवीनतम स्थिति का ब्योरा मांगा था। निदेशक ने एक विस्तृत रिपोर्ट दी और अंशकालिक श्रमिकों के साथ-साथ समेकित सफ़ाईकर्मियों और सहायकों के लिए इस न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के लागू किये जाने की सिफ़ारिश कर दी।

स्वास्थ्य सेवा के निदेशक की सिफ़ारिशें

कश्मीर के स्वास्थ्य सेवा के निदेशक ने 12 अक्टूबर 2020 को एक आधिकारिक चिट्ठी भेजी और प्रशासनिक विभाग से इस न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम को लागू करने का अनुरोध किया। उन्होंने स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के वित्तीय आयुक्त को बताया कि विभाग के अधीनस्थ आहरण एवं संवितरण अधिकारियों की तरफ़ से प्रस्तुत वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट अनुमानों के मुताबिक़, इस विभाग में 1,541 समेकित सफ़ाईवाले ऐसे अंशकालिक कर्मचारी और सहायक हैं,जो अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में आते हैं।

निदेशक ने अपने पत्र में कहा था, "ये श्रमिक सफ़ाई जैसे छोटे-स्तर के कार्य करते हैं और इनका पगार 30 रुपये (महज़ तीस रुपये) से लेकर 4,000 रुपये प्रति माह तक है और वे वेतन अधिनियम के तहत लागू दरों के मुताबिक़ पारिश्रमिक के भुगतान की लगातार मांग करते रहे हैं।"

कुछ श्रमिकों की तरफ़ से जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट (रिट याचिका 3840/2019, नज़ीर अहमद हजाम और अन्य बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर) के सामने एक याचिका भी दायर की गयी थी। हाई कोर्ट ने सरकार को 25 जनवरी 2018 को जारी 2018 के सरकारी आदेश संख्या 27-F के साथ 2017 के एसआरओ संख्या 469 के मापदंड पर याचिकाकर्ताओं की पात्रता निर्धारित करने का निर्देश दिया। हाई कोर्ट ने यह भी कहा था कि ज़रूरी आदेश पारित किया जाना चाहिए और भुगतान भी किया जाना चाहिए।

कश्मीर के स्वास्थ्य सेवा के निदेशक ने भी अपने पत्र में इस याचिका का ज़िक़्र किया था। उन्होंने 12,92,64,750.00 (12.9 करोड़ रुपये) के बजटीय आवंटन की मांग की थी, ताकि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के मुताबिक़ 1,541 श्रमिकों को उनकी मज़दूरी का भुगतान किया जा सके।

इस उद्देश्य के लिए सरकार इस समय कश्मीर के स्वास्थ्य निदेशालय को सालाना 1.50 करोड़ रुपये ही मुहैया कराती है। वित्त विभाग के कुछ अधिकारियों का दावा है कि स्वीपर और हेल्पर जैसे समेकित कर्मचारी अंशकालिक कर्मचारी हैं और ये "अनुसूचित रोज़गार" की परिभाषा के तहत नहीं आते हैं। हालांकि, सम्बन्धित आहरण और संवितरण अधिकारियों ने पहले ही साफ़ कर दिया है कि सभी 1,541 श्रमिकों, यहां तक कि रात के समय के लिए नियुक्त किये गये श्रमिक भी पूर्णकालिक रूप से नियुक्त श्रमिक ही हैं।

नॉवेल कोरोनावायरस महामारी के दौरान ये सफ़ाईकर्मी ही ख़तरनाक कोविड-19 बीमारी से लड़ने में सबसे आगे थे। इन श्रमिकों, सहायकों और ड्राइवरों ने उस समय अपनी जान जोखिम में डाल दी थी, जिस समय देश के ज़्यादातर लोग अपने घरों से बाहर निकलने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। इन श्रमिकों ने चिकित्सकों और पैरामेडिकल कर्मियों के साथ मिलकर कोविड-19 का बहादुरी से मुक़ाबला किया था, इसके बावजूद उनकी सेवाओं को अहमियत नहीं दी गयी।

मानवाधिकार का उल्लंघन

न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम की धारा 22A के मुताबिक़, न्यूनतम मज़दूरी और काम के घंटे के सिलसिले में इस अधिनियम के उल्लंघन करते हुए पाये जाने पर किसी भी नियोक्ता को पांच साल की क़ैद और 10,000 रुपये के जुर्माने से दंडित किया जा सकता है। जम्मू और कश्मीर सरकार न सिर्फ़ इस अधिनियम का उल्लंघन कर रही है, बल्कि बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के प्रावधानों के मुताबिक़ इन श्रमिकों के मानवाधिकारों का भी उल्लंघन कर रही है।

जिस तरह जम्मू और कश्मीर स्वास्थ्य विभाग में "समेकित आधार" पर काम करने वाले इन सफ़ाईकर्मियों, सहायकों और ड्राइवरों को पिछले 15-20 सालों से भी ज़्यादा समय से बहुत ही मामूली पारिश्रमिक के साथ काम पर लगाया गया है, सही मायने में यह एक अपराध है। अधिकारियों को इसके लिए बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अधिनियम के तहत ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।

सरकार ने यह दावा किया था कि समाज के कमज़ोर तबके के लोगों को जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के निरस्त होने के बाद इंसाफ़ मिलेगा। हालांकि, उसके बाद भी कश्मीर में अफ़रोज़ा और अब्दुल अहद जैसे लोग और कथित सफ़ाईकर्मी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हज़ारों अन्य लोगों को घोर उपेक्षा और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।

यदि जम्मू और कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से केंद्रीय क़ानून को लागू हुए 19 महीने से ज़्यादा समय बीत गया है, तो फिर सवाल है कि लोगों को उनके लाभ दिए जाने से इनकार क्यों किया जा रहा है? अफ़रोज़ा ने इस वास्ते नौकरी नहीं ली कि उन्हें सरकारी नौकरी की चाह थी। वह तो न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के मुताबिक़ भुगतान चाहती हैं, जो कि उनका हक़ है। अगर यह अधिकार भी उनसे छिन रहा है और 22 सालों से बंधुआ-मज़दूर जैसी स्थिति में वे बनी हुई हैं और इस सूरत के बदलने की उम्मीद भी नहीं दिखती है, तो सवाल है कि सरकार को अपने ही बनाए क़ानूनों का उल्लंघन करने को लेकर कौन ज़िम्मेदार ठहरायेगा ?

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(राजा मुज़फ़्फ़र भट श्रीनगर स्थित एक कार्यकर्ता, स्तंभकार,और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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