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निजी अस्पतालों की लॉबी ने राजस्थान राइट-टू-हेल्थ बिल को किया खंडित!

अशोक गहलोत को निजी अस्पतालों की लॉबी के दबाव के आगे झुकने से इनकार कर देना चाहिए था।
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फ़ोटो साभार: इंडिया टुडे

जब स्वास्थ्य सेवा की बात आती है, तो यह भारतीय लोगों के लिए एक कुएं और गहरी खाई वाला परिदृश्य हो जाता है- अक्षम और कम वित्त पोषित सार्वजनिक अस्पतालों और लुटेरे निजी स्टार अस्पतालों के बीच “हॉबसन्स चॉइस”। इस दुविधा ने न केवल गरीब लोगों को बल्कि मध्यम वर्ग को और भी अधिक प्रभावित किया है। परिणाम है स्वास्थ्य सेवा का नितांत अभाव।

क़ानूनी हक़ के रूप में स्वास्थ्य के अधिकार का महत्व

ऐसे परिदृश्य में, एक विशेष कानूनी हकदारी (legal entitlement) के ज़रिये निर्धारित कानूनी अधिकार के रूप में स्वास्थ्य का अधिकार निश्चित रूप से नागरिकों को कुछ राहत प्रदान कर सकता है। यह उनके लिये दवाओं सहित स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक किफायती बना सकता है। यह उन्हें अपने नज़दीक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करा सकता है। यह स्वास्थ्य हेतु आवंटन बढ़ाने और स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए सरकार पर दबाव पैदा कर सकता है। इन सबसे भी महत्वपूर्ण, यदि कोई राज्य या निजी स्वास्थ्य सेवा संस्थान लापरवाह साबित हुआ और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में विफल रहा तो वह नागरिक को अदालत जाने और नुकसान पर दावा ठोंकने का अधिकार दे सकता है। इसीलिए जब अशोक गहलोत की राजस्थान सरकार ने पिछले साल स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक 2022 पेश किया, तो उसने राज्य के लोगों में आशा जगाई थी और देश भर के लोगों के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया था। आखिर, यह भारत के किसी भी राज्य द्वारा स्वास्थ्य का अधिकार कानून लागू करने का पहला प्रयास था।

स्वास्थ्य का अधिकार एक मौलिक अधिकार है लेकिन इसे संविधान में इन शब्दों में नहीं रखा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच के अधिकार के रूप में की है। इस प्रकार उसने जीवन के अधिकार पर अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार किया है और स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में व्याख्यायित किया है। दूसरे शब्दों में, हालांकि मौलिक अधिकार निर्धारित अधिकार नहीं हैं, वे व्युत्पन्न (derived) अधिकार हैं।

लेकिन मौलिक अधिकारों को विशिष्ट कानूनों के माध्यम से ही क्रियान्वित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वास्थ्य के अधिकार को केवल विशिष्ट कानून के माध्यम से वैधानिक अधिकार बनाकर व्यवहार में अनुवादित किया जा सकता है। राजस्थान में कांग्रेस सरकार ठीक यही करने की कोशिश कर रही थी।

वास्तव में, कांग्रेस आलाकमान और नागरिक समाज के बीच नए ‘हनीमून’ के चलते, आलाकमान कांग्रेस नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को ऐसे सुधार और नीतिगत उपायों को शुरु करने के लिए प्रेरित कर रहा है, जो उन्हें सुशासन का मॉडल बना सकते हैं। उन्होंने महसूस किया कि यही अकेले 2024 तक मतदाताओं के समक्ष उनके वादों को अधिक विश्वसनीय बना सकता है। इसलिए, हमने देखा कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारों ने लड़कियों के लिए स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा को भी मुफ्त कर दिया है।

इसी तरह, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की राज्य सरकारों ने निर्णय लिया है कि वे राज्य सरकार के कर्मचारियों के मामले में नई पेंशन योजना (एनपीएस) के स्थान पर पुरानी पेंशन योजना पर वापस लौटेंगे।

लेकिन पुरानी पेंशन योजना के परिचित मुद्दे के विपरीत, स्वास्थ्य के अधिकार पर राज्य का कानून एक अज्ञात क्षेत्र है। कोविड-19 महामारी के समय नागरिकों को आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल की गारंटी देने में राज्य की दयनीय विफलता का देश गवाह रहा है। राज्य महत्वपूर्ण ऑक्सीजन आपूर्ति की व्यवस्था करने या स्वास्थ्य कर्मियों को उचित व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण प्रदान करने में भी विफल रहा।

इस तरह के दुःस्वप्न अभी भी स्मृति में ताजा हैं, स्वास्थ्य के अधिकार पर प्रस्तावित राजस्थान कानून पर अधिक उम्मीद लगी थी। क्या इससे गरीबों के लिए, खासकर निजी अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाओं की लागत कम होगी? क्या इससे महंगी दवाओं तक पहुंच के मामले में सुधार होगा? क्या इससे स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता में सुधार होगा? इन सभी मुद्दों ने राजस्थान के बाहर भी इस राज्य में स्वास्थ्य के अधिकार विधेयक के बारे में काफी जिज्ञासा पैदा की। लेकिन बिल के कानून बनने से पहले ही ऐसी सभी उम्मीदों पर पानी फिर गया।

निजी अस्पतालों की लॉबी द्वारा राजस्थान स्वास्थ्य अधिकार विधेयक का विरोध

मूल विधेयक में एक प्रावधान था जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि निजी अस्पतालों और अन्य स्वास्थ्य संस्थानों को रोगियों को भर्ती करने और उन्हें आपातकालीन देखभाल प्रदान करने के लिये पूर्व भुगतान पर जोर नहीं देना चाहिए। 11 मार्च 2023 को, राज्य के लगभग 1100 निजी अस्पतालों ने एक साथ विरोध प्रदर्शन किया और राज्य सरकार की स्वास्थ्य योजना ‘चिरंजीवी योजना’ के तहत अपनी सेवाओं को निलंबित कर दिया। इन संस्थानों के डॉक्टर भी सड़कों पर उतरे। अशोक गहलोत सरकार ने उनके दबाव के आगे झुकते हुए घोषणा की कि इस विवादास्पद प्रावधान को विधेयक से हटा दिया जाएगा। सबसे पहला स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक पारित होने से पहले ही खंडित कर दी गई।

जिस मुख्य मुद्दे पर निजी अस्पतालों की लॉबी ने स्वास्थ्य के अधिकार विधेयक की उसके मूल रूप में हत्या कर दी, उसके पीछे तर्क था कि विधेयक असंवैधानिक था क्योंकि वह संविधान द्वारा गारंटीकृत उनके व्यवसाय को चलाने के अधिकार पर अंकुश लगाता था। उनका तर्क था कि सरकार उन्हें बाद में पूर्ण भुगतान की गारंटी के बिना आपातकालीन देखभाल के लिए बाध्य नहीं कर सकती। उन्होंने तर्क दिया कि विधेयक में यह भी परिभाषित नहीं किया गया था कि ‘आपातकालीन देखभाल’ है क्या।

क्या यह दो मौलिक अधिकारों के बीच संघर्ष का मामला था - व्यवसाय करने का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार, जैसा कि राजस्थान में निजी अस्पतालों की लॉबी द्वारा बनाया गया?

व्यावसायिक अधिकार बनाम स्वास्थ्य का अधिकार

कानून के इस बिंदु पर, नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) में कानून के प्रोफेसर बाबू मैथ्यू ने न्यूज़क्लिक को स्पष्ट किया: "सच है, संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (जी) नागरिकों को किसी भी पेशे का अभ्यास करने का अधिकार प्रदान करता है; या कोई धंधा, व्यवसाय अथवा व्यापार करने के लिए। लेकिन फिर यह प्रावधान अनुच्छेद 19 (6) के अधीन है, जो 'उचित प्रतिबंधों' की गणना भी करता है, जो राज्य द्वारा उनकी पसंद के व्यवसाय को चलाने के उपरोक्त अधिकार पर लगाए जा सकते हैं।

अनुच्छेद 19 (6) में निर्धारित इस 'उचित प्रतिबंध' सिद्धांत के अनुसार, अनुच्छेद 19 (1) के तहत व्यापार या व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार को आम जनता के हित में राज्य द्वारा लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, 19 (6) का उप-खंड ii) राज्य को किसी भी व्यापार, व्यवसाय, उद्योग या सेवा में, आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से एकाधिकार की स्थिति अख्त्यिार करने का अधिकार देता है। 19 (6) का उप-खंड i) राज्य को कानून द्वारा, "किसी पेशे का अभ्यास करने या किसी धंधे, व्यापार या व्यवसाय को चलाने के लिए आवश्यक पेशेवर या तकनीकी योग्यता" निर्धारित करने हेतु सक्षम बनाता है। हालांकि, अनुच्छेद 19 (6) गुजरात राज्य बनाम मिर्जापुर मोती कुरैशी कसाब जमात (2005) मामले में उचित प्रतिबंध लगाने के लिए कई शर्तों को बताता है, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 19(6) में "आम जनता के हित में" व्यापक महत्व रखता है मसलन सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक सुरक्षा, नैतिकता, समुदाय के आर्थिक कल्याण और संविधान के भाग IV में उल्लिखित विषय।

इसके अलावा, जबकि एक व्यवसाय या पेशा करने पर उचित प्रतिबंध हो सकते हैं, जीवन के अधिकार पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं हो सकता है। चेन्नई के एक प्रमुख अधिवक्ता कुमारस्वामी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि जीवन का अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों की तुलना में उच्च पद पर है।

स्वास्थ्य का अधिकार केवल कानूनी अधिकार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। 1948 का WHO संविधान और 1948 में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा अंतरराष्ट्रीय कानून के पहले ऐसे उपकरण थे जिन्होंने स्वास्थ्य के अधिकार को मानव अधिकार घोषित किया।

स्वास्थ्य का अधिकार कोई अमूर्त अधिकार नहीं है। यह इसके ठोस पहलुओं में निहित है जैसे सस्ती दवाओं तक पहुंच का अधिकार, आसपास में सस्ती और सुरक्षित संस्थागत देखभाल का अधिकार, महामारी संबंधित मुद्दों पर सुरक्षा का अधिकार और उचित पर्यावरणीय स्वास्थ्य का अधिकार आदि। स्वास्थ्य का अधिकार राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करता है कि लोग जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभावों जैसे फ्लैश फ्लड्स, और हीट वेव आदि से सुरक्षित हैं।

स्वास्थ्य का अधिकार केवल राज्य द्वारा प्रदान किए गए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रावधान के दायरे तक ही सीमित नहीं है।

अगले दस वर्षों में भारत में स्वास्थ्य सेवा बाजार का मूल्य आज के 150 अरब डॉलर से बढ़कर 450 अरब डॉलर होने का अनुमान है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 87% स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र द्वारा प्रदान की जाती है। कोई भी कानून स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी तभी दे सकता है, जब वह निजी क्षेत्र को स्वास्थ्य सेवा के दायरे में रखे।

क़ानूनी मिसालें

दिल्ली सरकार की नीति के अनुसार सुपर स्पेशियलिटी सहित निजी अस्पतालों में 20% बिस्तर बीपीएल श्रेणी के रोगियों के लिए आरक्षित होने चाहिए, जिनका मुफ्त इलाज किया जाना चाहिए। कुछ अन्य राज्य सरकारों की भी ऐसी योजनाएं हैं जो बीपीएल श्रेणी के लिए 5 लाख रुपये तक की प्रतिपूर्ति की पेशकश करती हैं। केंद्र आयुष्मान भारत योजना की पेशकश करता है और 5 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा कवरेज भी प्रदान करता है और निजी अस्पताल इससे लाभान्वित हो रहे हैं। लेकिन यह केवल 40% आबादी को कवर करता है।

यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज का मतलब यूनिवर्सल हेल्थकेयर नहीं है

नीतिगत स्तर पर, 1978 के अल्मा अता लक्ष्य (Alma Ata Goals) 'हेल्थकेयर फॉर ऑल' द्वारा व्यक्त की गई सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल को भारत सरकार के साथ-साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज में सीमित कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, यदि 5 लाख आबादी वाले इलाके को एक पीएचसी (PHC) मिलता है तो उन सभी लोगों को सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के अंतर्गत माना जाता है। लेकिन जब वे पीएचसी से सर्जरी और अन्य तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल या जीवन रक्षक दवाएं नहीं प्राप्त कर सकते हैं, तो यह स्वास्थ्य सेवा का सार्वभौमिकरण नहीं है।स्वास्थ्य के अधिकार पर एक कानून को स्वास्थ्य सेवा के सभी आयामों का ख्याल रखना चाहिए। तभी अधिकार सार्थक होगा। दुर्भाग्य से राजस्थान बिल ऐसा नहीं करता। इसमें दवा की कीमतों या अस्पताल के बिलों को सीमित करने का कोई प्रावधान नहीं है।

राजस्थान स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक द्वारा निजी अस्पतालों पर न्यूनतम बोझ

राजस्थान स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक कानूनी रूप से लोगों को केवल सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों से "मुफ्त ओपीडी सेवा, इन-पेशेंट सेवाओं, परामर्श, दवाओं, निदान, आपातकालीन परिवहन और आपातकालीन देखभाल" का लाभ उठाने का अधिकार देता है। विधेयक निजी अस्पतालों को केवल आपातकालीन सेवाएं प्रदान करने का अधिकार देता है।

यदि निजी अस्पतालों को आपातकालीन देखभाल के बारे में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता थी और वे चाहते थे कि सरकार उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवा के लिए भुगतान सुनिश्चित करे, तो वे पूरे प्रावधान को खारिज करवाने के बजाय सरकार से प्रतिपूर्ति के लिए बातचीत कर सकते थे।

भले ही राजस्थान का विधेयक नया है, इमरजेंसी केयर का मामला काफी पुराना है। 1 मार्च 2013 को, दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि निजी अस्पताल बलात्कार पीड़ितों, दुर्घटना पीड़ितों और अन्य आपातकालीन मामलों को लेने से इंकार नहीं कर सकते। इसने केंद्र सरकार और राज्य सरकार से प्रतिपूर्ति के लिए नीतियां बनाने को कहा। इससे पहले, 1989 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निजी अस्पताल आपातकालीन मामलों के इलाज से केवल इसलिए इनकार नहीं कर सकते क्योंकि उनके साथ मेडिको-लीगल मामले जुड़े हुए हैं। SC ने कहा, "चिकित्सा के लिए लाए गए प्रत्येक घायल नागरिक के जीवन को बचाने के लिए तुरंत चिकित्सा सहायता दी जानी चाहिए और उसके बाद लापरवाही से मौत को रोकने के लिए प्रक्रियात्मक आपराधिक कानून को संचालित करने की अनुमति दी जानी चाहिए।" चूंकि यह शीर्ष अदालत का एक अवलोकन है, यह देश का कानून है, और राजस्थान बिल किसी भी तरह से अवैध या असंवैधानिक नहीं है।

अशोक गहलोत को इसपर अड़ना चाहिए था और निजी अस्पतालों की लॉबी के दबाव के आगे झुकने से इनकार कर देना चाहिए था। कांग्रेस आलाकमान को भी समय पर हस्तक्षेप करना चाहिए था, और अपने मुख्यमंत्री के साथ खड़े होकर उन्हें दृढ़ रहने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए था।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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