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यूपी: दलित-नाबालिगों के ख़िलाफ़ हिंसा पर क्यों नहीं लगती लगाम?

दलित शोषण मुक्ति मंच ने यूपी में दलित नाबालिगों के ख़िलाफ़ हिंसा की तीन हालिया घटनाओं की कड़ी निंदा करते हुए सत्ताधारी पार्टी बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : PTI

पीलीभीत में एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और फिर ज़िंदा जला कर मारने की कोशिश, लखीमपुर खीरी में 2 दलित बहनों के साथ दुष्कर्म और हत्या, बलिया में एक दलित नाबालिग लड़की का दिनदहाड़े रेप.... पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के इन तमाम ज़िलों में हुई ये घटनाएं महिला हिंसा, जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव के लिए नई खबरें नहीं लगतीं।

साल 2014 का बदायूं कांड हो या 2020 का हाथरस मामला प्रदेश में हर साल कई ऐसी घटनाएं होती हैं जो दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की कहानी बयां करने के साथ ही उत्पीड़न की एक नई मिसाल बन जाती हैं। हालिया लखीमपुर खीरी की घटना भी ऐसी ही दर्दनाक घटना है, जिसके चलते एक बार फिर दलितों के शोषण-उत्पीड़न पर सवाल उठने लगे हैं। कहा जा रहा है कि आज़ादी के 73 सालों बाद भी आज दलित समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

बता दें कि इन सभी मामलों में शासन-प्रशासन की भूमिका सवालों के घेरे में है, तो वहीं पुलिस खुद कठघरे में खड़ी है। उस पर पीड़ित को प्रताड़ित करने के गंभीर आरोप लगे हैं। कहा जाता है कि पुलिस स्टेशन पहली जगह होती है जहां कोई पीड़ित न्याय की उम्मीद में जाता है, लेकिन कई बार वहां पर उसे बेरुखी मिलती है। दलितों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमज़ोर है और इसलिए गरीब है, जिसके लिए न्याय पाना हमेशा मुश्किल रहा है।

दलितों पर अत्याचार का बढ़ता ग्राफ़

साल 2017 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से राज्य में दलितों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर होने के आरोप लग रहे हैं, जिसकी तस्दीक़ राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़े भी कर रहे हैं जो बताते हैं कि प्रदेश में दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के मामले कम होने के बजाय बढ़े हैं।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2021 में देश भर में दलितों के खिलाफ 50,744 मामले दर्ज हुए थे। इसमें13,146 मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही सामने आए थे। जबकि साल 2020 में देश भर में 50,202 मामलों में 12,714 मामले यूपी में थे। वहीं साल 2019 में 45,876 मामलों में 11,829 मामले यूपी में दर्ज हुए थे। साल 2020 से 2021 में दलितों के खिलाफ 423 व साल 2019 की अपेक्षा 1317 मामले अधिक सामने आए हैं।
वहीं दलित महिलाओं के साथ यौन हिंसा की बात करें तो, एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट कहती है कि साल 2021 में दलित महिलाओं के साथ यौन शोषण के 671 मामले दर्ज हुए, उनमें सबसे अधिक यूपी में 176 मामले हैं। जबकि साल 2020 में 132 मामले दर्ज हुए थे। साल 2021 में 198 दलितों की हत्या हुई है व साल 2020 में 214 हत्याएं हुई थीं। हालांकि हत्या के मामले में भी यूपी नंबर एक पायदान पर ही है।

दलित हिंसा के खिलाफ़ संघर्षरत कार्यकर्ता, जानकार इसके लिए सामाजिक और राजनीतिक कारणों को जिम्मेदार मानते हैं। संगठन दलित शोषण मुक्ति मंच(DSMM) ने यूपी में दलित नाबालिगों के खिलाफ हिंसा की 3 घटनाओं की कड़ी निंदा करते हुए सत्ताधारी पार्टी बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं।

दलित शोषण मुक्ति मंच ने मनुवादी सोच पर जताई आपत्ति, पीड़ितों के लिए मांगा मुआवजा

संगठन के अध्यक्ष के राधाकृष्णन, उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली और महासचिव रामचंद्र डोम द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में ये कहा गया है कि बीते एक सप्ताह के भीतर राज्य में दलित लड़कियों के बलात्कार और हत्या की तीन घटनाएं सामने आने शर्मनाक है। वो भी तब जब मुख्यमंत्री खुद दावा करते हैं कि महिलाओं के लिए उत्तर प्रदेश बेहद सुरक्षित प्रदेश है।

बयान में आगे बीजेपी प्रवक्ता आलोक वत्स के उस बयान की निंदा की गई है, जिसमें उन्होंने ऐसी घटनाओं के लिए मोबाइल फोन के इस्तेमाल को जिम्मेदार है। संगठन ने इसे मनुवादी सोच बताते हुए घृणित करार दिया है। साथ ही इस बयान के खिलाफ अपनी आपत्ति भी दर्ज करवाई है। दलित शोषण मुक्ति मंच की ओर से पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजे की मांग के साथ ही इन भयानक घटनाओं का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए न किए जाने की बात भी की है।

दलितों के मुद्दे पर सरकार कितनी गंभीर?

गौरतलब है कि भारत में दलितों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 मौजूद है। इसके तहत एससी और एसटी वर्ग के सदस्यों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों का निपटारा किया जाता है। इसमें अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने और दंड देने से लेकर पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास देने का प्रावधान किया गया है। साथ ही ऐसे मामलों के तेज़ी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन भी किया जाता है।

हालांकि मजबूत कानूनों के बावजूद भी सभी शोषण-उत्पीड़न के मामले पुलिस थानों में दर्ज़ भी नहीं हो पाते। कुछ मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेप के कारण सबकी नज़र में आ जाते हैं, लेकिन ज्यादातर किसी तहखाने में ही छिपे रहते हैं। सरकार इन मामलों के प्रति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दलितों से जुड़े महत्वपूर्ण संस्थाओं में लंबे समय से की पद खाली पड़े हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग में अध्यक्ष पद लंबे समय से खाली पड़े हैं। सरकार की ओर से इन पर कोई नियुक्ति नहीं की गई है। ये संस्थाएं अनुसूचित जाति और जनजातियों के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचार पर नज़र रखती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोगों की वेबसाइट पर भी अध्यक्ष के अलावा कई अन्य पद वैकेंट (रिक्त) दिखाई देते हैं।

इन मामलों में पुलिस के व्यवहार भी लगातार सवाल उठते रहे हैं। इसमें सुधार की बहुत ज़रूरत बताई जाती रहा है। दलित चिंतकों के मुताबिक अपराध दर्ज कर कार्रवाई करना ही काफी नहीं है बल्कि ये काम संवेदनशीलता और गंभीरता के साथ किया जाना भी ज़रूरी है।

बहरहाल, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक लखीमपुर खीरी मामले में पुलिस ने वारदात के सात घंटे बाद मुकदमा दर्ज किया,  जो अपने आप में बड़ी बात है। मृत लड़कियों के शव को कब्जे में लेने से लेकर उनकी मां तक से थाने में बदसुलूकी के आरोप पुलिस पर लग रहे हैं। ऐसे में जाहिर है पुलिस सिस्टम में कमज़ोर तबकों को लेकर जिस एक पूर्वाग्रह और जाति की बात कही जाती रही है, वो हर बार सच साबित होती दिखती है।

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