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अमेरिका में क्यों टूट जाती है इंसाफ़ की उम्मीद !

अमेरिकी समाज की मौजूदा त्रासदी न सिर्फ गोरी नस्ल की श्रेष्ठता की त्रासदी है बल्कि वह पूंजीवाद के दंभ की भी त्रासदी है। पूंजीवाद जब भी संकट में आता है तो राष्ट्रवाद, नस्लवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेता है। चूंकि असमानता उसमें अंतर्निहित है इसलिए उसका संकट में आते रहना लाजमी है।
अमेरिका
Image courtesy: Vox

अमेरिका में अन्याय और नस्लवाद के विरुद्ध काले नागरिकों के व्यापक आंदोलन की अलग अलग व्याख्याएं हो रही हैं। जहां चीन इसे अमेरिकी सरकार के पाखंड का परिणाम मान रहा है वहीं भारत के दलित आंदोलनकारी इसमें भारत के लिए एक उम्मीद देख रहे हैं। इसमें सीएए और एनआरसी विरोधी लोकतांत्रिक आंदोलन को भी एक आशा की किरण इसलिए दिखाई दे रही है क्योंकि इससे अधिनायकवादी डोनाल्ड ट्रंप का चुनावी सपना टूट सकता है और उससे पूरी दुनिया में एक संदेश जाएगा।

चीन के `ग्लोबल टाइम्स’ और `पीपुल्स डेली’ जैसे अखबारों ने हांगकांग के लिए अमेरिकी अधिकारियों की ओर से व्यंग्य में प्रयोग किए गए `ब्यूटीफुल लैंडस्केप’ जैसे शब्दों को उन्हीं के मुंह पर दे मारा है। उनका कहना है कि व्हाइट हाउस के बाहर जो कुछ हो रहा है क्या वही `ब्यूटीफुल लैंडस्केप’ है या उसी को `अमेरिकन स्प्रिंग’ कहा जा सकता है। सही कहा गया है कि जो दूसरों के लिए कुएं खोदता है उसके लिए खाई अपने आप तैयार रहती है। इसीलिए हांगकांग में आंदोलन उकसाने वाला अमेरिका अब स्वयं अपने यहां नस्लवादी भेदभाव के कारण गंभीर टकराव में फंस गया है। ऐसे में पूरी दुनिया को अमेरिका कैसे मानवाधिकार का फतवा दे सकता है।

वहीं भारत के दलित आंदोलनकारी अमेरिकी समाज के इस नस्लवादी ज़हर में एक प्रकार का आदर्श भी तलाश रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक दलित प्राध्यापक ने अपने फेसबुक पर लिखा कि जार्ज लायड नामक अश्वेत की हत्या करने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन की श्वेत पत्नी केली शेविन ने अपने पति के कृत्य के दुखी होकर उनसे तलाक़ ले लिया है। क्या भारत की सवर्ण स्त्रियां भी अपने उन पतियों से तलाक लेंगी जो दलितों पर अत्याचार करते हैं? वैसे यह सवाल दोनों समाजों की संरचना को समझे बिना किया गया है लेकिन फिर भी अमेरिका के अश्वेत आंदोलन से भारत के स्त्री आंदोलन को प्रेरणा देने वाला एक सूत्र निकालने का प्रयास है। हालांकि इस दलित लेखिका और शिक्षिका ने अपनी पोस्ट कुछ जल्दी में ही लिखी है क्योंकि चाउविन की पत्नी केली ने सिर्फ तलाक़ का आवेदन अदालत में पेश किया है अभी तलाक़ नहीं मिला है।

तीसरा नज़रिया उन लोगों का है जिन्होंने कोरोना फैलने से पहले भारत में बड़े पैमाने पर सीएए और एनआरसी के कारण फैले आंदोलन पर इसके प्रभाव को देखना चाहा है। उनकी सलाह है कि भारत सरकार को अमेरिकी समाज में फूटे इस नस्लवाद विरोधी असंतोष को देखते हुए उन दोनों कानूनों को ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए। क्योंकि उससे आने वाले समय में फिर विद्रोह भड़क सकता है। यहीं पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणी भी महत्वपूर्ण हो जाती है जो इस पूरे आंदोलन को वास्तविक बदलाव लाने की दिशा में एक अहम मोड़ मानते हैं। उनका सुझाव है कि हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था से निराश होने की बजाय उसमें जम कर हिस्सा लेना चाहिए ताकि आगे बढ़कर संरचनागत नस्लवाद का समाधान निकाल सकें। ओबामा मान रहे हैं कि यह समस्या एक दशक से चल रही उन स्थितियों के कारण पैदा हुई है जिनमें अमेरिका की पुलिस व्यवहार संहिता और आपराधिक न्याय प्रणाली में आवश्यक बदलाव को नहीं किया गया है। इसलिए आज अमेरिकी जनता को इसलिए लड़ना चाहिए कि उनके पास एक राष्ट्रपति, एक कांग्रेस, एक संघीय न्याय व्यवस्था है जो नस्लवाद के ख़तरनाक चरित्र को पहचानती है।

एक ओर बराक ओबामा इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा की आलोचना करते हुए उसे शांतिपूर्ण तरीके से चलाने की अपील कर रहे हैं तो दूसरी ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कह रहे हैं कि `जब लूटिंग शुरू होती है तब शूटिंग शुरू होती है’। वे इस आंदोलन को दबाने के लिए मेयरों और गवर्नरों को हावी होने की सलाह दे रहे हैं और धमकी दे रहे हैं कि वे सेना उतार देंगे। उनके ट्वीटर पर दिए गए बयान इतने भड़काऊ हो रहे हैं कि उन्हें फेसबुक पर मार्क ज़ुकेरबर्ग उनसे बात करके संशोधित कर रहे हैं जिसके विरोध में फेसबुक के कर्मचारी छुट्टी पर चले जा रहे हैं।

निश्चित तौर पर अमेरिका में हो रहे इस भीषण विरोध प्रदर्शन का संबंध मिनियापोलिस की उस घटना से है जहां पुलिस अधिकारी ने अश्वेत नागरिक जार्ज लायड को गिरफ्तार करने के न सिर्फ अतिरिक्त बल प्रयोग किया बल्कि नस्लवादी मानसिकता भी दिखाई। लेकिन यह मामला इतना ही नहीं है। इस मामले के पीछे हाल में कोरोना संकट भी जिम्मेदार है। इस महामारी से अश्वेतों और गरीबों की मौतें और तबाही ज्यादा हुई है। जबकि उन्हें मदद कम मिली है। इस दौरान अमेरिका की अन्यायपूर्ण और असमानता भरी व्यवस्था ज्यादा उघड़ हो गई है। महामारी में उजागर हुआ नस्लवाद, अन्याय और असमानता वहां के समाज को आंदोलित कर रहे हैं। लेकिन इसके पीछे डोनाल्ड ट्रंप का अधिनायकवादी चरित्र भी कम जिम्मेदार नहीं है जिसके कारण पिछले चार सालों से अमेरिका खदबदा रहा है।

स्टीवन लेविट्स्की और डैनियल जिबलाट ने `हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ में अधिनायकवाद के जो चार सूचकांक बताए हैं डोनाल्ड ट्रंप उन सब पर खरे उतरते हैं। पहला है राजनीतिक खेल के लोकतांत्रिक नियमों को ख़ारिज करना। यानी संविधान में पूरा विश्वास न प्रकट करना या उसके उल्लंघन की इच्छा जताना। मतलब संविधानेतर उपायों में यकीन करना और अनुकूल चुनावी परिणाम न आने पर उसे ठुकराने की बात करना। दूसरा सूचकांक है राजनीतिक विरोधियों की वैधता से इंकार करना। यानी अपने विरोधियों को बिना किसी आधार के अपराधी, अयोग्य बताना। तीसरा सूचकांक है हिंसा को सहना या उसे उकसाना। यह स्थिति ऐसी है जहां संबंधित नेता समय समय पर हिंसा को जायज ठहराता रहता है। चौथा सूचकांक है नागरिक अधिकारों को कम करने की तैयारी रखना। जैसे कि मानवाधिकारों की अवहेलना करना।

आज अमेरिका उस चौराहे पर खड़ा है जहां वह न सिर्फ मार्टिन लूथर किंग के सपने को ध्वस्त कर रहा है बल्कि वह अब्राहम लिंकन के 1863 में दासता खत्म करने के महान वादे को भी झुठला रहा है। वह फ्रैंकलिन रूजवेल्ट की ओर से घोषित—भय और भूख से मुक्ति और धर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी चार स्वतंत्रताओं को भी दरकिनार करने की तैयारी में है। मार्टिन लूथर किंग ने 1963 में `आइ हैव अ ड्रीम’ नामक जो मशहूर भाषण दिया था उसमें उनका सपना अमेरिकी समाज को नस्लवाद के बालुई दलदल से निकालकर भाईचारे की चट्टान की ओर ले जाना था। लेकिन ट्रंप ने जिस तरह से अमेरिकी समाज को गोरी नस्ल की श्रेष्ठता में फंसा दिया उससे वह वहां जाने से रहा। हालांकि ट्रंप इन सबके के लिए कम्युनिस्टों और फासिस्ट विरोधी संगठनों को दोषी ठहरा रहे हैं और उन्हें आतंकी संगठन घोषित करने की धमकी दे रहे हैं। पर क्या इससे वे बिगड़ती स्थितियों को नवंबर के चुनाव तक संभाल लेंगे ?

अमेरिकी समाज की मौजूदा त्रासदी न सिर्फ गोरी नस्ल की श्रेष्ठता की त्रासदी है बल्कि वह पूंजीवाद के दंभ की भी त्रासदी है। पूंजीवाद जब भी संकट में आता है तो राष्ट्रवाद, नस्लवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेता है। चूंकि असमानता उसमें अंतर्निहित है इसलिए उसका संकट में आते रहना लाजमी है। इस बात को थामस पिकेटी भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक  `कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में लिखते हैं कि जब तक सोवियत संघ था तब तक पूंजीवादी देशों में असमानता घट रही थी और जैसे ही उसका पतन हुआ वह बढ़ने लगी। इसे वे अपने यू कर्व से समझाते हैं। आज दुनिया में समानता का एक मॉडल चीन ने प्रस्तुत किया है जो अपने देश में गरीबी उन्मूलन के सफल कार्यक्रम चला रहा है। देखना है चीन से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा में अमेरिकी समाज सुधरता है या अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा, व्यापारिक युद्ध और वास्तविक युद्ध में उलझ कर स्थितियों को और बिगड़ लेता है।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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