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क्या तालिबानी हुकूमत से तापी परियोजना में आएगी जान, भारत को होगा फायदा?

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के साथ, तापी (तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत) गैस पाइप लाइन परियोजना को गति मिल सकती है, जो अंततः भारत को फायदा दे सकती है।
Will Taliban Rule in Afghanistan
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: विकिपीडिया

अफगानिस्तान में तालिबान के हालिया कब्जे से तापी (तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत) गैस लाइन परियोजना के निर्माण में प्रगति की उम्मीदें फिर से जग सकती हैं, जिनसे अंततः भारत को फायदा हो सकता है। हालांकि अभी यह देखा जाना है कि नई दिल्ली अफगान के विकासक्रमों पर कैसी प्रतिक्रिया देती है और काबुल में नई हुकूमत के प्रति क्या रुख रखती है।

तापी पाइपलाइन परियोजना का दायरा तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान सीमा से लेकर पाकिस्तान-भारत सीमा के बीच कुल 1800 किलोमीटर तक होगी। जब पाइपलाइन अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने लगेगी तो अनुमान है कि कैस्पियन सागर से अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं भारत तक प्रति वर्ष अनुमानतः 33 बिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करेगी। अभी तक इस परियोजना पर काम तुर्कमेनिस्तान में पूरा हो गया है, लेकिन जमीन के बड़े हिस्से में पाइपलाइन बिछाने का काम बाकी है, और इसके लिए तालिबान की मदद एकदम लाजिमी है।

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अफगानिस्तान की आंतरिक स्थिति की वजह से इस परियोजना में प्राथमिक रूप से विलंब हुआ है, इसके बावजूद, इनमें शामिल किसी भी हितधारक देश ने परियोजना का साथ नहीं छोड़ा है, जबकि इसका 2015 में तुर्कमेनिस्तान में शिलान्यास समारोह किया गया और 2018 में अफगान के हिस्से का उद्घाटन किया गया।

अमेरिका का तेल हित और तालिबान

मौजूदा वक्त में अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत है, उसे सरकार चलाने के साथ इस परियोजना के साथ ऐतिहासिक रूप से बहुत कुछ करना है। अब हम जरा कुछ दशक पीछे लौटें। तापी परियोजना का ब्लूप्रिंट संयुक्त राज्य अमेरिका और उसकी बड़ी तेल कंपनी, खास कर यूनियन ऑयल कंपनी ऑफ कैलिफोर्निया (यूएनओसीएएल) द्वारा 1990 के दशक की शुरुआत में तैयार किया गया था। इससे रूस और ईरान दोनों को छांटते हुए इसका मकसद जरूरतमंद देशों जैसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत को गैस बेचना था। (यूएनओसीएएल को अमेरिका की दूसरे बड़े ऊर्जा निकाय शेवरॉन ने 2005 में अधिग्रहण कर लिया है।)

कई समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि जॉर्ज बुश परिवार एवं बुश प्रशासन का यूएनओसीएल समेत टेक्सास लिंक के जरिए तेल एवं गैस उत्पादक-संघ के संग लंबे समय से जुड़ाव रहा है। जार्ज बुश सीनियर का कार्लायल ग्रुप के साथ जुड़ाव था, जिसे वैश्विक तेल निवेश में महारथ हांसिल थी। डिक चेनी (जो बाद में यूएस के उप राष्ट्रपति नियुक्त हुए थे) हैलिबर्टन के सीनियर कर्मचारी थे, जिसका तेल एवं गैस पाइपलाइंस के कारोबार में अधिक दिलचस्पी थी। मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि कोंडोलिसा राइस भी अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होने के पहले शेवरॉन के लिए काम करती थीं।

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अफगानिस्तान में डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका के विशेष राजदूत रहे जाल्मय खालिलजाद ने अमेरिकी सरकार की तरफ से 2020 में तालिबान के मुल्लाह बरादर के साथ दोहा में समझौता किया था, जिसके तहत ही अफगान से अमेरिकी फौज की वापसी का रास्ता साफ हुआ था। राजदूत के रूप में अपनी नियुक्ति के पहले जाल्मय यूएनओसीएएल के मुख्य सलाहकार थे। वे अमेरिकी विदेश मंत्रालय में अफगानिस्तान मध्यस्थता के लिए विशेष प्रतिनिधि रहे थे और संयुक्त राष्ट्रसंघ में अमेरिका के राजदूत भी बनाए गए थे। कहा जाता है कि पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भी यूएनओसीएएल के लिए काम कर चुके हैं, लेकिन जाल्मय एवं करजई दोनों ने ही वहां काम करने से इनकार किया और कंपनी ने भी।

तालिबान के साथ पहले की गुफ्तगू

पाइपलाइंस का ख्याल जब पहली बार आया, तब इसे पाकिस्तान के मुल्तान तक ही ले जाने की बात तय हुई थी। लेकिन यूएनओसीएल और परियोजना के अन्य समर्थक इस पाइपलाइन को खींच कर भारत तक ले जाना चाहते थे, जो उनकी गैस का एक विशाल खरीदार बाजार है। यूएनओसीएल ने इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तालिबान से भी सौदेबाजी की कोशिश की थी, जिसने 1997-98 में विनाशक गृह युद्ध के बाद अफगान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया था। अमेरिका ने तब कट्टरपंथी तालिबानी हुकूमत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की पहली कोशिश की भी थी, जिसकी सत्ता को उस समय अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने मान्यता नहीं दी थी, जैसा कि पूर्व भारतीय राजनयिक पार्थसारथी बताते हैं।

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यूएनओसीएएल ने इस पर समझौते की कोशिश में तालिबान के कुछ वरिष्ठ सदस्यों को 1997 में विमान से टेक्सास भी लाया गया था। राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के प्रशासन में अमेरिकी विदेश विभाग में अधिकारी रहे खलिलजाद ने तब उस कंपनी (अब निष्क्रिय) के सलाहकार के रूप में काम किया था। ह्यूस्टन के शहर में खलिलजाद ने तालिबान के सदस्यों से मुलाकात की थी और तब कट्टर इस्लामिकों के सार्वजनिक रूप से समर्थन में अपनी आवाज बुलंद की थी। उन्होंने वाशिंगटन पोस्ट के ओपेड पेज पर 1990 में एक लेख लिखा था,"अमेरिका के विरुद्ध ईरान जैसा कट्टरवादी रवैया अपनाता है, तालिबान वैसा सलूक नहीं करता-वह सऊदी अरब के मॉडल करीब है।" वाशिंगटन पोस्ट के ही अनुसार:"…ह्यूस्टन के एक आरामदायक होटल में, तेल कंपनी के सलाहकार जाल्मय खलिलजाद अफगानिस्तान के तालिबान हुक्मरानों के साथ डिनर पर अनेकों बिलियन डॉलर्स मूल्य की प्रस्तावित पाइपलाइन परियोजना पर बात बनने के अपने उत्साह को उल्लास के साथ साझा कर रहे थे।"

पार्थसारथी के विवरण के अनुसार, पाइपलाइन पर समझौते पर बातचीत में मुल्ला उमर के निजी सलाहकार मुल्ला सैयद रहमतुल्लाह, पूर्व सीआइए निदेशक रिचर्ड हेल्म्स की भतीजी मिस लीला हेल्म्स, रूस के पूर्व विदेश मंत्री आंद्रेई कोजीरेव, पाकिस्तान में पूर्व अमेरिकी राजदूत रॉबर्ट ओकले और टॉम सिमंस और क्लिंटन प्रशासन के कार्ल इंदरफर्थ शरीक थे। अंतर्वर्ती के रूप में पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव एवं भारत में हाइकमीश्नर रहे नियाज नाइक काम कर रहे थे। लेकिन इस काम को बिगाड़ देने के लिए प्रतिबद्ध बिन लादेन ने 2001 में न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर एवं पेंटागन पर हमले करवा दिए।

बातचीत फेल हो गई

यह तो बाद में रहस्य खुला कि तालिबान से गुफ्तगू जो बुश प्रशासन के सरकार में आने के बाद जुलाई 2001 तक होती रही थी, वह इस वजह से टूट गई कि तालिबान ने बिन लादेन को अमेरिका को सौंपने से इनकार कर दिया था। लादेन के संगठन अल कायदा ने तब अफ्रीका में अमेरिका के दूतावासों पर आत्मघाती हमले किए थे, जिनमें अमेरिका को उसकी तलाश थी।

तालिबान को तो अमेरिका की अगुवाई वाली फौजों ने 2001 में सत्ता से बेदखल कर दिया। बिन लादेन पहले ही सूडान से अफगानिस्तान आ चुका था और तालिबान की मदद से कंधार में अपना अड्डा जमा लिया था। तालिबान के लिए लादेन वैसे तो एक असुविधाजनक मेहमान था, लेकिन उसे अमेरिका को सुपुर्द करने का मतलब बेशुमार निवेशों और संपत्ति से हाथ धोना होता, जो सऊदी का ये आतंकी नेता अपने साथ लाया था।

अतः यह गौर किया जाना चाहिए कि अफगानिस्तान के रास्ते तुर्कमेनिस्तान के गैस संसाधनों के दोहन करने की कवायद के पीछे तगड़ी लॉबी है, जिनका इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता को कायम करने में स्वाभाविक दिलचस्पी है और इसे सुनिश्चित करने के लिए वे अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान दोनों ही देशों में एक सहयोगीसरकारें चाहती हैं।

तापी पर भारत का मत एवं वर्तमान स्थिति

नरेन्द्र मोदी सरकार ने 23 फरवरी, 2018 को अफगान वाले हिस्से में तापी परियोजना की शुरुआत के लिए एक शीर्ष प्रतिनिधिमंडल ऐतिहासिक शहर हेरात भेजा था। इसमें अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान एवं भारत के शीर्ष एवं वरिष्ठ अधिकारी शरीक हुए थे और उन सबने उम्मीद जताई थी कि यह परियोजना क्षेत्र की ऊर्जा जरूरतों को पूरी करेगी।

अफगानिस्तान में परियोजना के उद्घाटन समारोह में दिए गए अपने भाषण में भारत के विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर ने कहा था: “भारत इस दूरदर्शी परियोजना के इस हिस्से को पूरा करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है, यह अपनी जवाबदेहियों एवं उत्तरदायित्वों का आदर करेगा। हम भरोसा करते हैं कि तापी एक फायदे की परियोजना है, जिसका लाभ हमें गरीबी उन्मूलन एवं जीवनस्तर में तत्काल सुधार के हमारे लक्ष्य को साधने में सहायक होगा।

इसके दो साल बाद, 2020, में खलिलजाद और तालिबान नेता मुल्ला बरादर ने यूएस-तालिबान समझौते पर दस्तखत किया, जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका को अफगानिस्तान से अपनी एवं सहयोगी नाटो की फौज वापसी का रास्ता साफ किया। अब वहां तालिबानी हुकूमत कायम हो गई है और अफगानिस्तान में उसके प्रवक्ताओं ने तापी पाइपलाइन के मसले पर सकारात्मक बातें की हैं।

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ताजा विकासक्रम पर संज्ञान लेते हुए नई दिल्ली को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए कड़ी सौदेबाजी की नीति अपनानी होगी। यह देखना चाहिए कि ईरान उभरते रणनीतिक परिदृश्य से बाहर नहीं है। अमेरिकियों एवं अन्यों को भी यह जानने की जरूरत है कि भारत के पास अपनी ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति के लिए तमाम बहुआयामी विकल्प मौजूद हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन के साथ आगामी मुलाकात महत्त्वपूर्ण होगी।

(अमिताभ रॉय चौधरी ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के लिए आंतरिक सुरक्षा, रक्षा एवं नागरिक उड्डयन मामलों की गहन रिपोर्टिंग की है। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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