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नामीबिया के चीते को लाना बहुत बड़ी ग़लती : वन्यजीव विज्ञानी रवि चेल्लम

जाने-माने विशेषज्ञ का कहना है कि भारत में विशेष रूप से चीता के लिए विशाल निर्बाध भू-खंड का अभाव है। यह कई कारणों में से एक कारण है कि प्रोजेक्ट चीता क्यों अव्यवहारिक है।
Cheetahs From Namibia

17 सितंबर को भारत के मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को छोड़ा गया। वर्षों से, इस पार्क को गुजरात के गिर वन के एशियाई शेरों का इंतज़ार रहा लेकिन शेर गुजरात से नहीं जा पाया। बता दें कि गिर वन इन शेरों का निवास स्थान है। इन शेरों के लिए 2013 से लेकर 2018 तक संकट जैसी स्थिति बन गई थी। इस दौरान 413 एशियाई शेरों की मौत हो गई थी। ये प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते मर गए। कूनो में केंद्र द्वारा इन चीतों को छोड़ने का मतलब है कि एशियाई शेर को शायद अब इसमें जगह नहीं मिल पाएगी।

न्यूज़क्लिक ने एशियाई शेरों के स्थानांतरण की निगरानी के लिए केंद्र सरकार की विशेषज्ञ समिति के सदस्य और प्रमुख वन्यजीव जीवविज्ञानी डॉ. रवि चेल्लम से कूनो पार्क में चीता को लाने के संबंध में चर्चा करने के लिए संपर्क किया। उनका कहना है कि भारत को स्थानीय लुप्तप्राय प्रजातियों को संरक्षित करना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का सम्मान करना चाहिए जो कि एशियाई शेरों के स्थानांतरण का आदेश देते हैं। रश्मि सहगल द्वारा ईमेल के माध्यम से लिए गए साक्षात्कार का प्रमुख अंश नीचे दिया गया है।

आपने एक बार नामीबिया से मध्य प्रदेश के कूनो पालपुर में चीता को लाने को "वैनिटी प्रोजेक्ट" के रूप में बताया था। ऐसा क्यों? पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) इसे भारतीय वन्यजीवों के अभिन्न अंग इस चीता को फिर से लाने के लिए एक महत्वपूर्ण क़दम के रूप में बताता है।

इस परियोजना का वर्णन उन शब्दों में करने में मुझे कोई खुशी नहीं है जिनका मैंने कई महीने पहले इस्तेमाल किया था। सच्चाई अपने बारे में स्वयं ही बताते हैं। संरक्षण के अलावा कुछ अन्य लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इस परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2017-2031) में भी इसका उल्लेख नहीं है। यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण संरक्षण मुद्दों से ध्यान हटाएगा। इससे शेरों को कूनो में स्थानांतरित करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में और देरी होगी। वैज्ञानिक आधार वांछित होने के लिए बहुत कुछ छोड़ देता है। संरक्षण के लक्ष्य अवास्तविक हैं और यहां तक कि अव्यवहारिक भी। दुर्भाग्य से, यह एक बहुत बड़ी ग़लती होगी।

2013 में, सुप्रीम कोर्ट की वन बेंच ने कहा था कि चीते को लेकर "जुनूनी" होने के बजाय, हमें स्थानीय लुप्तप्राय प्रजातियों, विशेष रूप से एशियाई शेरों की रक्षा करनी चाहिए। इस फ़ैसले को 2020 के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले में आंशिक रूप से संशोधित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि भारत प्रयोगात्मक आधार पर चीतों का आयात कर सकता है। दूसरा फ़ैसला किस सबूत पर दिया गया था?

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने एक समीक्षा याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण मांगा कि उसके 2013 के आदेश में भारत में अफ़्रीक़ी चीतों को लाने पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। 10 अप्रैल 2018 को दिए गए एक अंतरिम आदेश में अदालत ने कहा, "यह उल्लेख किया जा सकता है कि पहले अफ़्रीक़ी चीतों को कूनो, शिवपुरी (मध्य प्रदेश) में लाने का इरादा था। इस आवेदन के माध्यम से, आवेदन के पैरा तीन में उल्लिखित कुछ अन्य स्थानों पर अफ़्रीक़ा से चीतों को फिर से लाने की मांग की गई है।"

यह ध्यान रखना अहम है कि अदालत ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि एनटीसीए अफ़ीक़ी चीतों को कूनो के अलावा अन्य स्थानों पर लाना चाहता है। मैं एनटीसीए के आवेदन के पैरा तीन से उद्धृत करता हूं, जिसमें 2018 के आदेश में उल्लेख किया गया है कि, "उपरोक्त आदेश के अनुसार, भारत में चीतों के फिर से लाने के लिए वैकल्पिक स्थानों की जांच करने के प्रयास किए गए हैं, जैसे कि मध्य प्रदेश के नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य के साथ ही साथ तमिलनाडु के सत्यमंगलम टाइगर रिजर्व की जांच की गई।" और देखें कि हम कहां लाए हैं!

मध्य प्रदेश वन विभाग ने एशियाई शेरों को फिर से लाने के लिए कूनो पालपुर को तैयार किया लेकिन अचानक इरादा बदल दिया। क्यों?

ये बदलाव भारत सरकार की ओर से हुआ है और राज्य सरकार ने केवल आदेश का पालन किया है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे राज्य सरकार ने शुरू किया है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि सरकार को एशियाई शेरों को गिर से स्थानांतरित करना चाहिए था। 30,000 वर्ग किलो मीटर जंगल में 674 शेरों के पास केवल 1,648 वर्ग किलो मीटर संरक्षित वन है। असुरक्षित जंगलों, बंजर भूमि और कृषि भूमि में घूमते हुए ये शेर अक्सर पशुओं के शवों को खाते हैं और जंगली कुत्तों के हमलों के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। एक जगह पर रहने से ये जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। 'गुजरात के गौरव' को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती?

इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए कठिन है। मैं जो जानता हूं वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट का एक स्थायी आदेश है जो दिनांक 15 अप्रैल 2013 का है। इसमें भारत सरकार को छह महीने के भीतर एशियाई शेरों को गिर से कूनो में स्थानांतरित करने के लिए कहा गया था। यह आदेश हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय का है। यदि सरकार इसे अनदेखा करना जारी रखती है तो यह निश्चित रूप से कानून के शासन के सम्मान से संबंधित मुद्दों को उठाती है।

प्रोजेक्ट चीता का ख़र्च 990 करोड़ रुपये के अलावा रखरखाव पर सालाना ख़र्च 500 करोड़ रुपये होगा। क्या हम स्थानीय प्रजातियों और आवासों को संरक्षित करने के लिए इन पैसों का इस्तेमाल कर सकते थे? क्या हमारी प्राथमिकताएं ग़लत हैं?

बेहद व्यापक रूप से ख़र्च के कई अनुमानों के बारे में बताया गया है। मैंने जो हाल ही में देखा है उनमें 92 करोड़ रुपये की बात है। इस फ़ैसले के लिए सटीक बजट और इसे कैसे वित्त पोषित किया जाएगा, इस बारे में स्पष्टता का अभाव है। जैसा कि मैंने उल्लेख किया है कि यह भारत द्वारा शुरू की गई सबसे महंगी संरक्षण परियोजनाओं में से एक होगी। समस्या यह है कि बताए गए संरक्षण का उद्देश्य अवास्तविक और अविश्वसनीय हैं। यह कहीं अधिक कुशल और प्रभावी होता यदि हमारे ध्यान को और संसाधनों को यथार्थवादी और व्यावहारिक संरक्षण कार्यों में लगाया जाता। उदाहरण के लिए, भूमि के इस्तेमाल में बदलाव को रोकना, घास के मैदानों और खुले वन पारिस्थितिकी तंत्रों का विखंडन और क्षरण, शेरों को कूनो में स्थानांतरित करना आदि शामिल है।

चीता को ज़िंदा रहने के लिए घास के मैदान की आवश्यकता होती है, लेकिन कूनो पालपुर तो एक जंगल है। चीता के शिकार काला हिरन और चिंकारा है, जो कूनो पालपुर में लगभग न के बराबर है। इसके अलावा, क्या चीते और उसके शिकार को बाड़े में रखना बहुत ख़र्चीला काम नहीं है?

सभी बातों पर विचार किया जाए तो यह वास्तव में एक बहुत ही ख़र्चीला है। विशेष रूप से यह दुखद है कि कई जारी और उच्च प्राथमिकता वाले जैव विविधता संरक्षण और अनुसंधान कार्यों पर धन को अनियमित और न के बराबर जारी करने या शून्य वित्तीय आवंटन के चलते यह गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं। चीता कई प्रकार के स्थानों में पाए जाते हैं, जिनमें गर्म रेगिस्तान, ठंडे रेगिस्तान, पहाड़ी क्षेत्र, सवाना जंगल और सूखे जंगल शामिल हैं। मैं इस दृष्टिकोण से कूनो में कोई परेशानी नहीं देखता हूं। हालांकि, मुझे उसके शिकार को लेकर चिंता है क्योंकि चीतल सबसे ज़्यादा शिकार प्रजाति होगी। एक और बड़ी बाधा यह है कि हमारे पास चीतों के लिए आवश्यक आकार के घास के मैदान नहीं हैं। चीतों को भारत में रखने और संख्या में वृद्धि होने के लिए हमें 2,000 से 3,000 वर्ग किलो मीटर के हिस्सों में 10,000 से 20,000 वर्ग किलो मीटर अच्छी गुणवत्ता वाले आवास की आवश्यकता है। हमारे पास इस दायरे का निवास स्थान नहीं है। उपयुक्त उच्च गुणवत्ता वाले आवासों के बिना, इस परियोजना के सफल होने की संभावना नहीं है। सरकार को इन चीतों को लाने से पहले आवास तैयार करना चाहिए था। यह एक घटिया योजना है।

आपको क्यों लगता है कि हमारे वन्यजीव संबंधी फ़ैसले ग़लत प्राथमिकताओं से ग्रस्त हैं?

विज्ञान आधारित, तार्किक, परामर्शी, भागीदारीपूर्ण और समावेशी निर्णय लेने से यह सुनिश्चित होगा कि हमारे वन्यजीव संरक्षण प्रयास समय के साथ क़ायम रहने वाले ज़मीनी परिणाम देते हैं। हमें ऐसे मामलों में कहीं अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की ज़रूरत है।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Cheetahs From Namibia Will be Very Costly Mistake—Wildlife Biologist Ravi Chellam

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