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Covid-19: वैक्सीन आने के बाद भी प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने में आएंगी बड़ी चुनौतियां

हो सकता है बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश पैसे के दम से कतार में आगे आकर या सिर्फ़ अपने लिए उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल कर वैक्सीन की समस्याओं से निजात पा लें, लेकिन बाकी दुनिया का क्या होगा?
Covid-19

जैसे-जैसे दुनिया में कोरोना बढ़ता जा रहा है, कुछ देश इसके खिलाफ़ हार मानते जा रहे हैं। यह देश कोरोना के खात्मे के लिए अब वैक्सीन का इंतजार कर रहे हैं। अब दुनिया में कोरोना के तीन करोड़ बीस लाख से ज्यादा मामले हो चुके हैं, जिनमें पांच लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। 1929-39 के बीच महान आर्थिक मंदी के बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था को अब तक का सबसे बड़ा झटका लगा है।

अमेरिका और भारत में अब सबसे ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं, दोनों देशों में कुल मामलों की संख्या भी सबसे ऊपर है। अब दोनों देशों में महामारी को रोकने पर विमर्थ थम चुका है और अब केवल अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए कोशिश की जा रही है। भारत में इसे 'अनलॉकडॉउन' कहा जा रहा है।

कोरोना महामारी को रोकने की कोशिशें थमने का मतलब है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र अब असफल हो चुका है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र बेहद खराब अवस्था में है। भारत में दुनिया का सबसे ज्यादा निजीकृत स्वास्थ्य सेवा ढांचा है। अमीर देशों में अमेरिका के स्वास्थ्य सेवा तंत्र का सबसे ज्यादा निजीकरण हुआ है। इसके बेहद खराब़ नतीजे निकले हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इन दोनों देशों ने एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती के सामने हथियार डाल दिए हैं। कोरोना महामारी ने मुनाफ़े के लिए खराब स्वास्थ्य से चलने वाली पूंजी और लोगों के स्वास्थ्य में विरोधाभास को सामने रख दिया है।

दुनिया के लिए अच्छी बात यह है कि करीब़ 40 वैक्सीन क्लीनिकल ट्रायल के अलग-अलग स्तरों पर परखी जा रही हैं, वहीं 149 अभी इंतज़ार में हैं। कैडिला हेल्थकेयर और भारत बॉयोटेक नाम की दो भारतीय कंपनियों की वैक्सीन ट्रायल भी 1/2 फेज़ में है, जल्द ही इनमें तीसरे चरण की ट्रायल चालू होंगी। भारत बॉयोटेक का वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के साथ गठजोड़ भी है, इसकी वैक्सीन में नाक के ज़रिए वैक्सीन पहुंचाई जाएगी।

आमतौर पर वैक्सीन के विकास और उसकी जांच करने में 5 से 10 साल का वक़्त लगता है। अगर हम इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक वैक्सीन बनाने में सफल रहे, तो यह अपने आप में एक बड़ी सफलता रहेगी। यह चीज बताती है कि हमारे पास किसी संक्रामक बीमारी के खिलाफ़ बड़ी संख्या में वैक्सीन बनाने की वैज्ञानिक क्षमताएं मौजूद हैं। इन्हें ना बनाने के पीछे की वजह है कि हम इस तरह की संक्रामक बीमारियों को गरीब़ देशों की बीमारी मानते रहे हैं, जो वैक्सीन निर्माण में निवेश करने के लिए बड़ी वैश्विक फार्मा कपंनियों को जरूरी मात्रा में मुनाफ़ा उपलब्ध नहीं करवा सकते। स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में वैक्सीन विकास को प्राथमिकता पर आने के लिए अमीर देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात की जरूरत होती है।

हमारी प्रतिरोधक क्षमता स्थायी नहीं हो सकती, बशर्ते वैश्विक स्तर पर हमने "हर्ड इम्यूनिटी" के स्तर को ना पा लिया हो, इसलिए अलग-अलग देशों में फिलहाल कोरोना महामारी के नए विस्फोट होते रहेंगे। यह वायरस राष्ट्र की सीमाओं को नहीं मानेगा। एक तरफ वैश्विक आबादी के बड़े हिस्सों के लिए वैक्सीन की कोई गारंटी नहीं है, वहीं अमेरिका और यूरोपीय संघ ने "अग्रिम भुगतान" और "तेजी से पैसा" देकर अपनी जरूरत से 4 से 5 गुना वैक्सीन आरक्षित कर लिया है।

भारत दूसरे विकासशील देशों से ज्यादा भाग्यशाली है क्योंकि हमारे पास वैक्सीन बनाने की बड़े स्तर की क्षमताएं मौजूद हैं। अगर एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन बन जाती है, जिसमें पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट की एस्ट्राजेनेका के साथ भागीदारी है, तो वैक्सीन का बड़ा हिस्सा भारत के लिए इस्तेमाल में आएगा। कैडिला और भारत बॉयोटेक के स्वदेशी वैक्सीन फिलहाल क्लीनिकल ट्रायल के चरणों में हैं। इनके पास भी बड़े स्तर की उत्पादन क्षमताएं मौजूद हैं। डॉ रेड्डी लेबोरेटरी ने रूस की 'गामालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी' के साथ स्पुतनिक V वैक्सीन के वितरण के लिए साझेदारी की है। न्यूज़ रिपोर्टों के उलट, स्पुतनिक V वैक्सीन का कभी सामान्य आबादी पर इस्तेमाल नहीं किया गया। फिलहाल अगस्त से यह वैक्सीन रूस, यूएई, सउदी अरब, ब्राजील मैक्सिकों और संभावित तौर पर भारत में ट्रायल के तीसरे चरण में चल रही है।

महामारी से निपटने में पूरी तरह असफल हो चुके ट्रंप, नवंबर में चुनाव से पहले किसी तरह की सफलता दिखाने के लिए आतुर हैं। वह 'फेडरल ड्रग अथॉरिटी (FDA)' पर कुछ वैक्सीन को आपात अनुमति देने के लिए दबाव बना रहे हैं। यह ऐसे वैक्सीन हैं, जिसमें अमेरिका ने 11 बिलियन डॉलर के ऑपरेशन वार्प स्पीड प्रोग्राम के जरिए निवेश किया हुआ है। इन वैक्सीन को अभी इस चीज के सबूत पेश करना बाकी है कि उनका इस्तेमाल सुरक्षित है और उनसे बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है या फिर उसे धीमे स्तर तक रोक दिया जाता है। लेकिन इनमें से कई वैक्सीन "टू-शॉट" वैक्सीन हैं, जिनमें अंतिम खुराक के बाद कम से कम दो महीने का इंतज़ार करना होता है, इसलिए किसी भी तरह वैक्सीन का यह कार्यक्रम 3 नवंबर को मतदान से पहले नहीं निपटाया जा सकता।

हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और प्लाज़्मा थेरेपी की आपात अनुमति देने के बाद उनसे कुछ खास फायदा ना होने और सार्वजनिक आलोचना के चलते FDA तीसरी गलती करना नहीं चाह रहा है। खासकर तब जब वैक्सीन को लेकर अमेरिका में कुछ ज्यादा निराशा है। अमेरिका में 'नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी इंफेक्शियस डिसीज़' के प्रमुख डॉ फॉउची ने वैक्सीन ना लगवाने के इच्छुक लोगों को विज्ञान विरोधी आंदोलन का हिस्सा बताया है, जो अमेरिका में बड़े स्तर पर अपना प्रभाव जमा चुका है। विज्ञान-विरोधी रवैया, नस्लभेद औऱ सरकार में गहरे अविश्वास के चलते अमेरिकी राजनीति दक्षिणपंथ की ओर ज्यादा मुड़ रही है। वैक्सीन पर एक भी गलती, लंबे वक़्त में लोगों को सुरक्षित करने की मुहिम को बहुत नुकसान पहुंचा सकती है।

हमने भारत में भी ऐसी ही गलतियां देखी हैं, जहां ICMR के डॉयरेक्टर जनरल ने एक पत्र जारी कर भारत बॉयोटेक के कोवैक्सिन वैक्सीन के सभी तीनों चरणों के ट्रॉयल को पूरा करने के लिए 6 हफ़्ते का वक़्त तय कर दिया था। ताकि 15 अगस्त के पहले वैक्सीन बनाए जाने की घोषणा की जा सके। जब इस चीज की काफ़ी आलोचना हुई, तो ICMR ने कहा यह आदेश नहीं, बल्कि एक सुझाव था। जबकि इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि इतना नासमझी वाला निर्देश जारी ही क्यों किया गया।

जब कोई वैक्सीन तीसरे चरण के ट्रायल में सफल हो जाएगा, तो लगेगा कि हमारी समस्याएं जल्दी खत्म हो जाएंगी। लेकिन यह उतने जल्दी भी खत्म नहीं होंगी, क्योंकि तब हमारे सामने वैक्सीन को 4-5 अरब लोगों तक पहुंचाने की बड़ी चुनौती होगी, जिससे हर्ड इम्यूनिटी का विकास किया जा सके। इसका मतलब होगा कि हमें वैक्सीन की 8 से 9 बिलियन खुराक बनानी होंगी, क्योंकि ज़्यादातर वैक्सीन दो खुराकों वाली हैं। तब हमारे पास इस वैक्सीन के वितरण के आपूर्ति श्रंखला बनाने की भी चुनौती होगी, जिसके जरिए हर देश तक वैक्सीन पहुंचाकर, फिर वहां के लोगों तक इसकी पहुंच बनाकर, उन्हें वैक्सीन लगाया जा सके। दुनिया के सबसे बड़े जेनरिक वैक्सीन निर्माता, सीरम इंस्टीट्यूट के CEO पहले ही कह चुके हैं कि भारत को वैक्सीन खरीदने और उसे पहुंचाने के लिए कम से कम 80 हजार करोड़ रुपये की जरूरत होगी। यह भी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है।

भारत में कई वैक्सीन उत्पादनकर्ताओं ने अपनी क्षमताओं का विस्तार चालू कर दिया है, मतलब कि हम तेजी से वैक्सीन का उत्पादन कर सकेंगे। लेकिन एक बड़ी चुनौती फिर कोल्ड चेन बनाने की भी है, जिससे वैक्सीन को वैक्सीनेशन सेंटर तक पहुंचाया जा सके।

पुराने निष्क्रिय वायरस या हाल में एडिनोवायरस के मामलों में 2 से 8 डिग्री सेल्सियस की कोल्ड चेन की जरूरत होती थी। फ्लू और पोलियो वैक्सीन समेत ज्यादातर वैक्सीन के लिए इसी कोल्ड चेन की जरूरत होती है। लेकिन आधुनिक और Pfizer-BioNTech, mRNA वैक्सीन के लिए -70 से -80 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वाली कोल्ड चेन की जरूरत होती है, यह काम अमेरिका जैसे देश के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है। अगर mRNA वैक्सीन ही सफल और दूसरे असफल हुए, तो पूरी दुनिया के लिए -70 से -80 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वाली कोल्ड स्टोरेज चेन बनाने में एक साल से ज्यादा का वक़्त लग जाएगा।

एक दूसरी चुनौती यह होगी कि हमने कभी इतने कम समय में इतनी बड़ी आबादी को वैक्सीन नहीं लगाया है। भारत में पल्स पोलियो कार्यक्रम में मौखिक खुराक दी जाती थी और साल में करीब़ 17 करोड़ लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित की जाती थी। यह भारत के लिए जरूरी 1.5 से 2 बिलियन वैक्सीन खुराकों से काफ़ी नीचे है। ध्यान रहे ऑक्सफोर्ड या गामालेया वैक्सीन, दोनों ही दो खुराकों वाली वैक्सीन हैं। फिर दो खुराक वाली वैक्सीन में हमें उन लोगों की पहचान करने की भी जरूरत होगी, जिन्हें पहली खुराक मिल चुकी है। ताकि यह लोग दूसरी खुराक से छूट ना पाएं।

हो सकता है कि बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने पैसे के दम पर या सिर्फ़ अपने लिए उत्पादन कर वैक्सीन हासिल करने की समस्या से निजात पा लें, लेकिन बाकी दुनिया का क्या होगा? उनके लिए बड़ा विकल्प सिर्फ़ WHO-GAVI-CEPI का कोवैक्स प्लेटफॉर्म है, जिसे दिसंबर, 2020 तक 2 बिलियन डॉलर की जरूरत होगी। प्लेटफॉर्म ने अब तक 700 मिलियन डॉलर इकट्ठा कर लिए हैं। 64 देशों ने इसे पैसा देने का वायदा भी किया है, लेकिन अब भी प्लेटफॉर्म अपने लक्ष्य से 700 से 800 मिलियन डॉलर पीछे है।

WHO से पीछे हटने के बाद अमेरिका किसी भी वैश्विक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं है और उसका साफ़ कहना है कि पहले अपनी मदद करने के बाद ही वह दूसरे देशों की मदद कर पाएगा। रूस और चीन भई COVAX का हिस्सा नहीं हैं और दोनों द्विपक्षीय कार्यक्रम के तहत काम कर रहे हैं, जिसमें एक-दूसरे की वैक्सीन को साझा करने के करार शामिल हैं।

अगर वैक्सीन विकसित करना एक सामान्य वैज्ञानिक कार्यक्रम है, तो हमें इस सवाल का जवाब पता होना चाहिए कि कब हमें बड़े स्तर के टीकाकरण के लिए जरूरी क्लीनिकल ट्रायल के नतीजे मिल पाएँगे? किस वर्ग के लोगों को पहले और कब वैक्सीन मिलेगा? कितनी कीमत पर यह वैक्सीन मिलेगा? हमें इस बात पर भी विमर्श करने में सक्षम होना चाहिए था कि कैसे दुनिया के सभी देशों के लिए राष्ट्रीय और वैश्विक इंफ्रास्ट्रक्चर को तैयार किया जाए, जिससे सभी लोग सुरक्षित हो सकें। इसके बजाए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद का भद्दा चेहरा दिख रहा है, जहां हर देश बस अपना ख्याल रख रहा है। इससे ना तो इन देशों की सुरक्षा होगी और ना ही इनके नागरिक सुरक्षित रहेंगे। तकनीक युद्ध और व्यापारिक जंग के बाद वैक्सीन युद्ध में आपका स्वागत है!

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Even with Vaccines, It is a Long and Rocky Road to Immunity

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