क्वांटम सुप्रीमेसी पर गूगल-IBM आमने-सामने
गूगल के क्वांटम सुप्रीमेसी के दावे को उसके करीबी प्रतिस्पर्धी आईबीएम से चुनौती मिली है। इसलिए नहीं कि गूगल के सायकामोर कम्प्यूटर का आकलन गलत निकला। बल्कि इसलिए कि गूगल ने आईबीएम के सुपर कंप्यूटर ''समिट'' की क्षमता को कम आंका। समिट दुनिया का सबसे ताकतवर सुपरकंप्यूटर है। इस बीच गूगल का एक नासा रिसर्चर द्वारा गलती से लीक हुआ पेपर प्रतिष्ठित साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित हो चुका है।
गूगल के दावे अब आधिकारिक हो चुके हैं। उन्हें अब उसी तर्ज पर तौला जाएगा, जिसपर किसी भी विज्ञान की खोज को तौला जाता है। मतलब इन दावों से संबंधित सभी आशंकाओं के समाधान होने तक इन्हें संशय से देखा जाएगा।
हमने इससे पहले बताया था कि क्वांटम कंप्यूटिंग क्या है, अब हम क्वांटम सुप्रीमेसी की ओर बढ़ेंगे। आखिर आईबीएम की चुनौती के मायने क्या हैं? आईबीएम मानती है कि गूगल ने एक मील का पत्थर पार किया है, पर कंपनी यह मानने को तैयार नहीं है कि गूगल, क्वांटम सुप्रीमेसी के स्तर पर पहुंच चुका है।
आईबीएम ने गूगल के दावों को तब खारिज किया है जब गूगल का 'नेचर पेपर' प्रकाशित हुआ है। गूगल ने दावा किया था कि आईबीएम का 'समिट सुपरकंप्यूटर' जिस सवाल को हल करने में दस हजार साल लगाता, उसे सायकामोर ने महज़ दो सौ सेकंड में हल कर दिया।
आईबीएम ने दिखाया है कि बेहतर प्रोग्रामिंग और बड़ी डिस्क क्षमता के सहारे समिट इस समस्या को ढाई दिन में हल कर सकता है। हालांकि अभी भी सायकामोर, समिट से 1100 गुना तेजी से काम कर सकता है। लेकिन यहां गूगल का वो दावा खारिज़ होता है जिसमें सायकामोर की क्षमता समिट से 157 मिलियन गुना बताई गई थी।
आईबीएम के मुताबिक़ यह क्वांटम सुप्रीमेसी नहीं है। क्योंकि इसमें एक ऐसे सवाल की जरूरत होती है, जिसे पारंपरिक कंप्यूटर आसानी से कम समय में हल न कर पाते हों। इस हिसाब से ढाई दिन बहुत ज्यादा समय नहीं है। इसलिए जैसा आईबीएम ने कहा, क्वांटम सुप्रीमेसी पाने में अभी गूगल को वक्त है।
क्वांटम सुप्रीमेसी की मूल परिभाषा जॉन प्रेसकिल ने दी थी, जिस पर अब उनके थोड़े अलग मत हैं। हाल ही में उन्होंने लिखा, '....सुप्रीमेसी शब्द का जुड़ाव व्हाइट सुप्रीमेसी से होने के कारण इससे एक घृणास्पद राजनीतिक मुद्रा उभरती है। दूसरा कारण है कि इस शब्द से पहले से ही जरूरत से ज्यादा प्रचार की शिकार क्वांटम टेक्नोलॉजी को ज्यादा बल मिलता है।
आईबीएम के दावे पर मशहूर क्वांटम कंप्यूटिंग साइंटिस्ट स्कॉट एरोंसेन ने अपने ब्लॉग में लिखा कि गूगल को आईबीएम की क्षमताओं को आंक लेना था, फिर भी गूगल के दावे अमान्य नहीं हो जाते। मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि गूगल ने जिस सवाल को चुना उसे हल करने के लिए समिट को एक विशेष तरीके की जरूरत है। अगर सायकामोर 53 से 60 क्यूबिट पर पहुंच जाता है तो आईबीएम को 33 समिट की जरूरत पड़ेगी, वहीं सायकामोर 70 क्यूबिट पहुंचता है तो एक शहर जितने बड़े सुपरकंप्यूटर की जरूरत होगी। मतलब समिट के इतने बड़े आकार में बनाए जाने में काफ़ी दिक्कत है।
आखिर क्यों सायकामोर के अतिरिक्त क्यूबिट से निपटने के लिए समिट को इतनी ज्यादा दर की जरूरत है? क्वांटम सुप्रीमेसी को दिखाने के लिए गूगल ने क्वांटम सर्किट का सहारा लिया, जो संख्याओं के अनियमित क्रम की तरह है। पारंपरिक कंप्यूटर अनियमित क्रम की संख्याओं को पैदा कर सकते हैं, लेकिन कुछ ही वक्त में वे इस क्रम को दोबारा दोहरा देंगे।
जरूरी डिस्क स्पेस, कंप्यूटिंग पॉवर और मेमोरी जैसे संसाधन कई गुना बढ़़ाने पड़ते हैं। वहीं क्वांटम कंप्यूटर में कुछ क्यूबिट को सीधे रैखिक तरीके से जोड़ने पर इसकी क्षमता कई गुना बढ़ जाती है। इसलिए 7 क्यूबिट के जितनी क्षमता बढ़ाने के लिए आईबीएम को समिट को 33 गुना बढ़ाना होगा।
अगर सायकामोर में 17 क्यूबिट बढ़ जाते हैं तो समिट के आकार को कई हजार गुना बढ़ाना होगा। यही सायकामोर और समिट के बीच मुख्य अंतर है। पारंपरिक कंप्यूटर को हर अतिरिक्त क्यूबिट के लिए अपने संसाधनों को कई गुना बढ़ाना होगा। यही इनकी कमजोरी है।
हमें यहां गूगल को जीत देनी होगी। इसलिए नहीं कि आईबीएम गलत है, बल्कि इसलिए कि क्वांटम सुप्रीमेसी के सिद्धांत की तरह ये क्वांटम कंप्यूटर काम कर सकता है और एक समस्या का समाधान दे सकता है। इससे पारंपरिक कंप्यूटर को गणना में पछाड़ने की बात सिद्ध हो चुकी है। अब कम समय और इसके भौतिक प्रदर्शन की बात का केवल अकादमिक मूल्य है। अगर 53 क्यूबिट से समस्या का समाधान मिल सकता है, भले ही आईबीएम का समिट धीमा होते हुए भी रेस में हो, तो भी कुछ वक्त में इसे पूरी तरह हरा दिया जाएगा।
हां, यह जरूर है कि कुछ दूसरे तरीकों से यह खास टेस्ट असफल हो सकता था। इस समस्या के समाधान के लिए एक नए एल्गोरिदम को खोज जा सकता है। इससे एक नई दौड़ शुरू होगी। लेकिन यहां कोई दौड़ केंद्र में नहीं है। अहम ये है क्वांटम कंप्यूटिंग एक खास तरह की समस्या को कई गुना तेजी से हल कर सकता है। जबकि पारंपरिक कंप्यूटर ऐसा नहीं कर सकते।
जिन समस्याओं का आकार बहुत ज्यादा नहीं बढ़ता, वहां पारंपरिक कंप्यूटर बेहतर काम कर सकते हैं। वे सस्ते हैं। साथ ही उन्हें क्वांटम कंप्यूटर की तरह शून्य तापमान की भी जरूरत नहीं होती। दूसरे शब्दों में पारंपरिक कंप्यूटर, क्वांटम कम्प्यूटर के साथ जिंदा रहेंगे। वे टाइपराइटर और कैलकुलेटर की तरह टेक्नोलॉजी की कब्र में दफ्न नहीं होंगे।
बेहतर क्वांटम कंप्यूटर निर्माण को इस बात से भ्रमित नहीं करना चाहिए कि यह पारंपरिक और एक नई तकनीक वाले कंप्यूटर में प्रतिस्पर्धा है। अगर हम खास तरह की समस्या के समाधान के जरिए दोनों कंप्यूटर की दौड़ देख रहे हैं, तो बड़ी तस्वीर पर हमारी नज़र नहीं है। दरअसल एक खास स्तर की समस्या के समाधान में पारंपरिक कंप्यूटर को लगने वाला वक्त कई गुना बढ़ जाता है और एक हद के बाद हम तय समय में इस तरह की समस्याओं का हल नहीं कर पाएंगे।
क्वांटम कंप्यूटर के पास इस तरह की बड़ी समस्याओं के समाधान को हल करने का माद्दा है। इससे हमें एक तरीका मिलता है जिससे एक खास तरह की समस्याओं को हल करने के लिए हमें नए एल्गोरिदम बनाने वाली उलझी हुई विधि पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।क्या वाकई इस तरह की समस्याएं है और क्या उनसे जरूरी तकनीकी मदद मिलेगी? गूगल की समस्या (क्वांटम सर्किट की भविष्य अवस्था) किसी प्रायोगिक जरूरत से नहीं चुनी गई थी। इसे केवल क्वांटम सुप्रीमेसी दिखाने के लिए चुना गया था।
हाल ही में एक चीनी टीम, जिसका नेतृत्व जिआनवेई पान कर रहे थे, उन्होंने एक पेपर को प्रकाशित कर बताया कि एक 20 फोटॉन वाली बोसॉन सैंपिलिंग समस्या को भी क्वांटम सुप्रीमेसी को दिखाने का ज़रिया बनाया जा सकता है। यह दोनों समस्याएं को असली दुनिया की समस्याओं का हल बताने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए बनाया गया ताकि बताया जा सके कि क्वांटम कंप्यूटिंग काम करती है और असली दुनिया की समस्याएं भी सुलझा सकती है।
आखिर क्वांटम कंप्यूटर द्वारा हल की जाने वाली समस्याएं कौन सी हैं? जैसा नोबेल विजेता रिचर्ड फेमेन ने कहा था, क्वांटम दुनिया के लिए क्वांटम कंप्यूटर।
ऐसी कई घटनाएं क्वांटम दुनिया और मैक्रो वर्ल्ड के बीच परस्पर क्रिया से सामने आते हैं। साफ हो चुका है कि हम पारंपरिक कंप्यूटर का इस्तेमाल कर प्रोटीन फोल्डिंग जैसी क्रियाओं का अनुकरण नहीं कर सकते। इनके लिए क्वांटम की दुनिया का मैक्रो दुनिया से भेदन जरूरी होता है। एक क्वांटम कंप्यूटर उन प्रायकिताओं का पता लगा सकता है कि कितने तरीकों से प्रोटीन मुड़ सकता है और क्या आकार ले सकता है। इससे न केवल हम नई सामग्रियों का निर्माण कर पाएंगे, बल्कि बॉयोलॉजिक्स जैसी मेडीसिन भी बना पाएंगे।
बॉयोलॉजिक्स बड़े परमाणु होते हैं जिनका इस्तेमाल कैंसर और ''ऑटो इम्यून'' रोगों को ठीक करने में किया जा सकता है। वे केवल अपने मिश्रण पर ही काम नहीं करते, बल्कि इसमें उनके आकार का भी योगदान होता है। अगर हम उनके आकार पर काम करने में कामयाब रहे, तो हम नए प्रोटीन या नए बॉयोलॉजिकल ड्रग टार्गेट की पहचान कर सकेंगे, साथ ही नई सामग्रियों को बनाने के लिए नए रसायनों को भी जान पाएंगे। असल दुनिया के दूसरे उदाहरण, जैसे बड़े डेटाबेस में खोजबीन, क्रिप्टोग्राफिक समस्याओं को हल करना, मेडिकल इमेजिंग को बेहतर बनाना और दूसरी समस्याओं को भी हम इसके जरिए हल कर पाएंगे।
व्यापारिक दुनिया की बड़ी कंपनियां जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और आईबीएम, क्वांटम कंप्यूटर के ऐसी समस्याओं के समाधान में होने वाले उपयोग को लेकर बेहद उत्साहित हैं। इसलिए वे इस पर ज्यादा वक्त लगा रहे हैं। नेचर ने बताया कि 2017 और 2018 में क्वांटम कंप्यूटिंग में करीब 450 मिलियन डॉलर का निवेश हुआ। यह पिछले दो सालों से चार गुना ज्यादा था। राष्ट्र राज्य खासकर अमेरिका और चीन भी हर साल अरबों डॉलर का निवेश क्वांटम कंप्यूटिंग में कर रहे हैं।
पर अगर क्वांटम कंप्यूटिंग से व्यापारिक फायदा नहीं हुआ तब क्या हमें इसे छोड़ देना होगा? क्या होगा अगर यह सिर्फ क्वांटम मैकेनिक्स और इसकी दुनिया को बेहतर तरीके से ही समझने में बस मददगार रही? क्या हमने 13.25 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बने और सालाना एक बिलियन डॉलर से चलने वाले हैड्रॉन कोलाइडर को सिर्फ इसलिए बनाया कि हमें इससे व्यापारिक मूल्य वाली खोजों की अपेक्षा थी? या समाज को क्वांटम दुनिया समेत अंतरिक्ष के मूल गुण जानने के लिए निवेश करना चाहिए? अगर क्वांटम कंप्यूटर्स से हमें सिर्फ क्वांटम दुनिया को ही देखने की खिड़की मिलती है तो भी हमें इसका ज्ञान मिलेगा।
इस ज्ञान की कीमत क्या है?
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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