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बिहार की जमींदारी प्रथा ने बिहार में औद्योगीकरण नहीं होने दिया!

बिहार का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि बिहार में पूंजी की कमी और सही समय पर कच्चे माल की गैरमौजूदगी ने बिहार में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को हमेशा पीछे रखा। सड़क और संचार जाल और साथ में बिजली की कमी ने बिहार में उद्योगों के स्थापना का माहौल बनने नहीं दिया।
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अक्सर ही आप सुनते होंगे कि पूरी दुनिया में बिहारियों की भरमार है। पत्थर मार कर देखिए भारत के हर एक कोने में एक न एक बिहारी तो जरूर मिल जाएगा। लोक प्रचलन के मुहावरे ऐसे ही नहीं बन जाते हैं। इनकी जड़ों में सच्चाई का मट्ठा घुला होता है। बिहार के पास जितना चाहिए उतना मानव संसाधन है लेकिन मानव संसाधन का विकास वैसा नहीं हो पाता है जैसा चाहिए। बहुत बड़ी आबादी नौकरी के बजाय मजदूरी करने के लिए अभिशप्त होती है। और वह भी ऐसी मजदूरी जो उसे अपने राज्य में नहीं मिलती। उसे अपना राज्य छोड़कर बाहर जाना पड़ता है। समझिए कि प्रवासी मजदूर बन जाना बिहार के कई नौजवानों के किस्मत में लिखा हुआ है।

रोजगार की संभावनाओं की तलाश करने के लिए अपने घरों को छोड़कर बाहर निकलना दुनिया के हर कोने की सच्चाई है। लेकिन इस सच्चाई से दुनिया के किसी कोने का वास्ता कम पड़ता है और किसी कोने का वास्ता बहुत अधिक। बिहार उनमें से एक है।

बिहार के नौजवानों का प्रवास करने के पीछे बहुत सारे कारण है। लेकिन एक सबसे मजबूत कारण यह है कि बिहार में औद्योगीकरण की स्थिति बहुत बुरी है। उस औद्योगीकरण की जो अपने अंदर नौजवानों को काम देकर खपा लेता है। जब औद्योगीकरण ही नहीं होगा तब तो प्रवास होना तय है। तो चलिए बिहार में औद्योगीकरण को समझने की तरफ बढ़ते हैं।

जब अंग्रेजों का राज था तब भारत का पश्चिमी इलाका विकसित हो रहा था। अधिकतर उद्योग धंधे भारत के पश्चिमी इलाके पर ही लग रहे थे। बीसवीं सदी के शुरुआती तीन दशकों में मुंबई और अहमदाबाद वस्त्र उद्योग के रूप में विकसित हो रहा था। इन उद्योगों में अंग्रेजों ने बिहार के मजदूरों को खपाया। ठीक यही हाल आजादी के बाद भी हुआ।

भारत के पश्चिमी इलाके पहले से विकसित थे। देश के रहनुमाओं ने पश्चिमी इलाकों को विकसित करने में अधिक जोर लगाया। उद्योग धंधों का संकेंद्रण यहीं पर हुआ। बिहार और भारत के पूर्वी इलाके जो खनिज संसाधन के लिहाज से संपन्न थे, वह सरकारी नीतियों के अभाव में बहुत अधिक पिछड़ते चले गए।

बिहार का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि बिहार में पूंजी की कमी और सही समय पर कच्चे माल की गैरमौजूदगी ने बिहार में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को हमेशा पीछे रखा। सड़क और संचार जाल और साथ में बिजली की कमी ने बिहार में उद्योगों के स्थापना का माहौल बनने नहीं दिया।

बिहार के बंटवारे के बाद बिहार में औद्योगीकरण की प्रक्रिया और भी धीमी हो गई या यह कह लीजिए कि रुक सी गई। वजह यह थी कि उद्योगों का संकेंद्रण छोटा नागपुर के पठार के इलाकों में था। और यह बिहार के बंटवारे के बाद झारखंड में चला गया।

मौजूदा समय में खाद्यान्न, तंबाकू, चमड़े, चीनी, दूध, रेशम से जुड़े उत्पाद बिहार में मौजूद हैं लेकिन कोयला, पेट्रोलियम, कच्चा लोहा, मोटर वाहन जैसे भारी उत्पाद झारखंड के हिस्से में हैं।

इस दौरान बिहार में ऊंची जातियों का शासन रहा। इन ऊंची जातियों के गठजोड़ से बनी सत्ता ने ना तो खेती किसानी में कोई ठोस बदलाव किया और ना ही खेती किसानी से इतर उद्योग क्षेत्र को बढ़ाने में कोई कामयाबी हासिल की। इसके बाद सामाजिक न्याय की राजनीति उभरी। जिसका ज्यादातर ध्यान सामाजिक न्याय के नारे उछालकर निचली जातियों में आत्मसम्मान पैदा कर इनकी गोलबंदी के जरिए अपनी गद्दी बचाने में रहा। मौजूदा समय में भाजपा और जनता दल यूनाइटेड का गठबंधन काम कर रहा है।

जनता दल यूनाइटेड की राजनीति में सामाजिक न्याय का अंश है लेकिन भाजपा में मौजूद कुलीनों और ऊंची जातियों के गठबंधन में सामाजिक न्याय का अंश पूरी तरह से गायब है। इसी आधार पर सेंटर फॉर सोसायटी एंड डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफ़ेसर संजय कुमार कहते हैं कि दो विपरीत धड़ों वाले भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन को जोड़ने का काम सुशासन के नारे ने किया है।

इस सुशासन के जरिए जनता में यह भी संदेश फैलाने का इशारा था कि जंगलराज खत्म हुआ, लोक व्यवस्था बनाई जाएगी और भयमुक्त माहौल में बिहार को उन्नति के पथ पर आगे ले चला जाएगा। तो अब थोड़ा आंकड़ों के जरिए यह भांपते है कि बिहार में औद्योगीकरण के क्या हालात हैं?

-बिहार के सीमा के भीतर कुल सामानों और सेवाओं की कीमत यानी जीडीपी में उद्योगों का योगदान तकरीबन 20 फ़ीसदी के आसपास है। यह भारत के दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे कम है। यह झारखंड (37 फ़ीसदी) छत्तीसगढ़ (48 फ़ीसदी) और उड़ीसा ( 42 फ़ीसदी ) से भी कम है। भारत के कुल जीडीपी में उद्योगों के तकरीबन 31 फ़ीसदी के योगदान से तकरीबन 11 फ़ीसदी भी कम है।

-साल 2016-17 में भारत के कुल जीडीपी में बिहार के उद्योगों का योगदान केवल 0.5 फ़ीसदी था। उसके बाद से यह और कम हुआ और अब 0.3 फीसदी के आसपास पहुंच गया है।

- बिहार के एक कारखाने में औसतन 40 लोग काम करते हैं। जबकि पूरे देश का औसत निकाला जाए तो एक कारखाने में तकरीबन 77 लोग काम करते हैं। इस तरह से बिहार की स्थिति इस मामले में आधी बैठती है। और अगर बिहार की तुलना हरियाणा से की जाए, जहां एक कारखाने में औसतन 120 लोग काम करते हैं तो बिहार की स्थिति एक तिहाई के आसपास बैठेगी।

- बिहार में 1528 औद्योगिक इकाइयों में से केवल 236 मध्यम या बड़ी इकाइयां हैं। इनका फैलाव भी बिहार की जमीन पर बराबर तौर पर नहीं है। बिहार के 38 जिलों में से 10 जिलों में मध्यम या बड़े पैमाने पर औद्योगिक इकाइयां नहीं है। 11 जिले तो ऐसे हैं जिनमें औद्योगिक इकाइयों की संख्या 5 भी नहीं पार कर पाती है।

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं कि अभी कुछ महीने पहले ही नीति आयोग की बैठक में नीतीश कुमार ने कहा कि अगर केंद्र मदद करें तो बिहार के विकास का रास्ता औद्योगिकरण के तरफ मोड़ा जा सकता है। केंद्र हमें 1000 करोड़ रुपए का पैकेज दे, हम जीएसटी और कुछ दूसरे तरह के टैक्सों में छूट देकर बिहार में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज करेंगे। नीतीश कुमार की यह बात ठीक है लेकिन नीतीश कुमार को यही पहल आज से 15 साल पहले करनी चाहिए थी। जब वह सरकार में चुनकर आए थे। तब से लेकर अब तक औद्योगीकरण का हाल बेहाल है। प्रवास बिहारी मजदूरों की किस्मत रेखा बन चुकी है। नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार में सड़कों का विकास ऐसा हो गया है कि बिहार के किसी कोने से पटना आने में 5 घंटे से अधिक का समय नहीं लग सकता है।

ज्ञानेश्वर कहते हैं कि सड़कों का विकास हुआ है लेकिन इतना भी नहीं जितना नीतीश कुमार कह रहे हैं। अगर आपकी गाड़ी में हूटर और सायरन ना हो तो बहुत मुश्किल है कि कोई 5 घंटे के अंदर पटना पहुंच पाए। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है कि आरा से पटना जाने में कई लोगों को तकरीबन 23 घंटे का समय लग गया। कभी कभार तो इतना जाम होता है कि हाजीपुर से पटना के बीच में मौजूद पुल को पार करने में साढ़े 3 घंटे से अधिक का समय लग जाता है।  

अंग्रेजी के द हिंदू अखबार में Asian development research institute Patna के शैबल गुप्ता का एक आर्टिकल छपा है। शैबल गुप्ता अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि भारत की दूसरे राज्यों के मुकाबले बिहार में जमींदारी प्रथा बड़ी मजबूती स्थिति में थी। यहां अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का काम जमींदारों ने किया। लेकिन हमेशा अपना फायदा सोचा। इसलिए जिस तरह का सोशल रिफॉर्म दक्षिण भारत और बंगाल में हुआ उस तरह का सोशल रिफॉर्म बिहार में नहीं हुआ। बिहार में ठीक तरीके से आजादी के बाद अपनाई गई भूमि सुधार की नीति भी नहीं लागू हो पाई।

जमींदारों ने अपने लिए नियम कानूनों को ढाल लिया। इसलिए बिहार की भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों में एक खास किस्म की प्रवृत्ति यह है कि जो सरकारी प्रोजेक्ट का बिचौलिया होता है यानी जो सरकारी प्रोजेक्ट का अफसर होता है। वह सरकार से मिलने वाले सहयोग में ही धांधली करके अपनी कमाई करता है। यानी किसी प्रोजेक्ट में लगने वाले इनपुट में धांधली करके बिहार के अफसर बड़ी कमाई करते हैं। इसलिए डिवेलपमेंट प्रोजेक्ट पूरा होने में बड़ी देर लगती है अगर पूरा भी हो जाता है तो उस में धांधली इतना होता है कि डेवलपमेंट के नाम पर एक सड़ा गला ढांचा मिलता है।

इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे राज्य में भ्रष्टाचार नहीं होता। दूसरे राज्य में भी भ्रष्टाचार होता है। लेकिन वहां थोड़ी दूसरी प्रवृतियां है। वहां के अवसर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पूरा हो जाने के बाद डेवलपमेंट प्रोजेक्ट से होने वाली कमाई से अपना जेब गर्म करते हैं। इसलिए दूसरे राज्यों में बिहार के मुकाबले डेवलपमेंट प्रोजेक्ट कम से कम दिख तो जाते हैं।

बिहार पर काम कर रहे रिसर्च स्कॉलर कमलेश्वर सिन्हा कहते हैं कि बिहार में संभावनाएं हैं लेकिन उनका दोहन करने के लिए अब तक सही तरीके का माहौल नहीं बना है। अभी भी इसमें बहुत वक्त लगेगा। जैसे कि बिहार में लेबर फोर्स है, बहुत बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र में लगी हुई है लेकिन कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण के साथ उसे बाजार लायक बनाने की नीति बिहार के पास नहीं है। बिहार के अधिकतर नेता अभी भी साल 1990 के बयार से बाहर नहीं निकल पाए।

बिहार में राजनीति के नाम पर केवल आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दे हावी रहते हैं। एक जातिगत और सांप्रदायिक समाज में इन मुद्दों की मुद्दों की बहुत अहमियत है लेकिन समाज धीरे-धीरे बहुत तेजी से बदल रहा है। अभी भी बिहार के अगुआ इस बात पर विचार नहीं कर रहे हैं कि बिहार के लोग लेबर फोर्स को किस तरीके से बिहार में ही रोक लिया जाए। स्थिति इतनी गंभीर है कि कोरोना की वजह से सबसे बड़ी संख्या में बिहारी प्रवासी दूसरे राज्यों से बिहार लौट कर आए लेकिन अभी जब करो ना पूरी तरह से खत्म भी नहीं हुआ है तो अपनी जिंदगी को बचाने के लिए वह फिर से वही लौट गए जहां पर वह मजदूरी कर रहे हैं। यह सारी स्थितियां बताती हैं की बिहार के आम लोगों का बिहार की राजनीति पर बहुत अधिक गहरा विश्वास नहीं है। ऐसा भरोसा नहीं है कि वह खुद को रोक पाए कि उन्हें बिहार में काम मिल जाएगा।

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