अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर की रिसर्च ने 2019 के लोकसभा चुनाव में गड़बड़ी का इशारा किया
अशोका विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर ने 2019 के लोकसभा चुनाव में संभावित भाजपा वोट हेरफेर की ओर इशारा करते हुए संस्थान को राजनीतिक विवाद में डाल दिया है।
'डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी' शीर्षक वाला पेपर 25 जुलाई को सोशल साइंस रिसर्च नेटवर्क पर सब्यसाची दास द्वारा प्रकाशित किया गया था।
पेपर के कारण ट्विटर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच वाकयुद्ध शुरू होने के बाद, विश्वविद्यालय ने दास से खुद को अलग कर लिया। शिक्षाविदों और प्रमुख हस्तियों ने 'दबाव के आगे झुकने' और दास का समर्थन नहीं करने के लिए विश्वविद्यालय की आलोचना की।
चुनावी हेरफेर?
शोध में, दास ने "2019 के आम चुनाव में अनियमित पैटर्न" का दस्तावेजीकरण किया और पहचान की कि "क्या वे चुनावी हेरफेर या प्रेसाइज़ कंट्रोल के कारण हैं, यानी, चुनाव प्रचार के माध्यम से जीत के अंतर की सटीक भविष्यवाणी करने और प्रभावित करने की मौजूदा पार्टी की क्षमता।"
उन्होंने "कई नए डेटासेट" संकलित किए और ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए "जो करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावी हेरफेर के अनुरूप हैं और प्रेसाइज़ कंट्रोल परिकल्पना का कम समर्थन करते हैं। यह हेरफेर भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह-मुसलमानों के खिलाफ लक्षित चुनावी भेदभाव का रूप लेता हुआ प्रतीत होता है, जो आंशिक रूप से चुनाव पर्यवेक्षकों की कमज़ोर निगरानी के कारण संभव हुआ है।"
पेपर के अनुसार, 2019 का आम चुनाव, “चुनाव डेटा में कई अनियमितताओं को दर्शाता है – मौजूदा पार्टी के जीत के मार्जिन का घनत्व सीमा मूल्य पर एक असंगत उछाल दर्शाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में मौजूदा पार्टी के उम्मीदवार और प्रतिद्वंद्वी के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा थी, वहां मौजूदा पार्टी (भाजपा) ने हारने के बजाय असंगत रूप से अधिक जीत हासिल की।''
दास लिखते हैं, "इसे मैकक्रेरी परीक्षण के रूप में जाना जाता है और अब यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विश्लेषण में उपयोग की जाने वाली प्रतिगमन पद्धति में चल रहे हेरफेर के लिए एक मानक जांच है।"
शोध में "भाजपा या कांग्रेस के लिए पिछले आम चुनावों के साथ-साथ 2019 के आम चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में इसी तरह की गड़बड़ियां नहीं पाई गईं।"
दास आगे लिखते हैं, "नज़दीकी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा की असंगत जीत मुख्य रूप से चुनाव के समय पार्टी द्वारा शासित राज्यों में केंद्रित है।"
हालांकि, दास के अनुसार, मैकक्रेरी परीक्षण की विफलता "ज़रूरी नहीं कि चुनावी धोखाधड़ी हो।" “अगर मौजूदा पार्टी, अपनी बेहतर चुनावी मशीनरी के कारण, करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में जीत के अंतर का सटीक अनुमान लगाने और इसे प्रभावित करने में सक्षम थी - एक घटना जिसे प्रेसाइज़ कंट्रोल के रूप में जाना जाता है, तो यह ऐसे पैटर्न भी उत्पन्न कर सकता है। भारत में मौजूदा पार्टी 2019 में प्रेसाइज़ कंट्रोल रखने में सक्षम हो सकती है क्योंकि उसने 2014 के आम चुनाव में जीत के बाद कई राज्यों में अपनी संगठनात्मक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि की है।
भाजपा ने "पोलिंग बूथ लेवल पर पार्टी कार्यकर्ताओं को संगठित किया, जिन्होंने मतदाताओं के रुझान की निगरानी की और उन्हें आकार दिया। इन कार्यकर्ताओं को केंद्रीय प्रबंधित टीमों द्वारा समर्थित हासिल था जो एकत्रित जानकारी का विश्लेषण करने और अभियान रणनीतियों का सुझाव देने का काम करती हैं।
इसलिए, इस संदर्भ में प्रेसाइज़ कंट्रोल, यदि प्रयोग किया जाता है, तो इसे पार्टी संगठन की ज़मीनी स्तर की उपस्थिति द्वारा स्थानीयकृत और लक्षित अभियान की सुविधा मिलने की संभावना है।
हालांकि, दास ने "प्रेसाइज़ कंट्रोल के सीधे परीक्षण के लिए संसदीय चुनाव क्षेत्र के प्रतिनिधि सैंपल में भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों द्वारा घर-घर दौरे के रूप में प्रचार को मीज़र करने के लिए 2019 में एनईएस में एक नये प्रश्न को जोड़ा गया।"
उन्होंने पाया कि न तो भाजपा और न ही किसी अन्य पार्टी ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में बहुत अधिक प्रचार किया, जहां भाजपा मुश्किल से जीत पाई थी। “इसके अलावा, भाजपा शासित राज्यों में, भाजपा द्वारा प्रचार करना सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण असंतोष प्रदर्शित नहीं करता है जबकि अन्य दलों के लिए ऐसा होता है। इससे प्रेसाइज़ कंट्रोल के प्राथमिक तंत्र होने की संभावना कम हो जाती है।"
हालांकि वह ईवीएम में हेरफेर की संभावना पर विचार नहीं करते हैं, दास काउंटिंग में गड़बड़ी की ओर इशारा करते हैं। भारत के चुनाव आयोग (ECI) ने शुरू में चुनाव के सात चरणों में से पहले चार (543 संसदीय क्षेत्र में से 373) के लिए प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के लिए डाले गए ईवीएम वोटों की 'फाइनल' गिनती जारी की।
इसके बाद, चुनाव आयोग ने "ईवीएम में गिने गए वोटों की, निर्वाचन क्षेत्र-वार, संख्या जारी की, जो शुरुआती संख्याओं से मेल नहीं खाती।"
“जब मीडिया ने गड़बड़ी की ओर इशारा किया, तो चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट से पहले के आंकड़े हटा दिए” दास लिखते हैं।
'मुसलमान मतदाता का दमन'
दास ने वोटर लिस्ट के तीन प्रतिशत रेप्रेज़ेन्टेशन सैंपल का उपयोग करके विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के स्तर पर मुसलमानों की मतदाता हिस्सेदारी की गणना की और उनके नामों पर "अत्यधिक सटीक धर्म भविष्यवाणी एल्गोरिदम लागू किया और इसे हेरफेर के संभावित तंत्र के रूप में समुदाय के लक्षित मतदाता दमन की जांच हेतु मतदान केंद्रों और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से मिलान किया।"
चुनावी हेरफेर "मतदाता पंजीकरण के दौरान या मतदान या गिनती के वक़्त हो सकता है।" हेरफेर की सुविधा देने वाले तंत्र की जांच करने के लिए वे "मुस्लिम मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो आम तौर पर भाजपा का समर्थन नहीं करते हैं और अपने सांस्कृतिक रूप से अलग नामों के कारण मतदाता सूची में आसानी से पहचाने जाते हैं। इसलिए, वे संभावित रूप से पंजीकरण और मतदान में हेरफेर के शिकार हो सकते हैं।"
दास लिखते हैं, “मैं दो चैनलों पर विचार करता हूं; सबसे पहले, पंजीकृत मतदाताओं या मतदाता सूची से मुस्लिम नामों को रणनीतिक रूप से हटाना।''
दूसरा, "मतदान (या गिनती) के समय मुस्लिम वोटों का रणनीतिक दमन।"
रिसर्च पेपर के अनुसार, “उसी समय, मतदाता सूची से माइनॉरिटी ग्रुप्स के मतदाताओं के नाम बड़े पैमाने पर हटाने की खबरें भी थीं। चूंकि मौजूदा पार्टी को माइनॉरिटी ग्रुप्स के बीच कम चुनावी समर्थन प्राप्त है, इसलिए इस तरह के विलोपन से पार्टी को चुनावी लाभ मिल सकता है।”
वाक्युद्ध
पेपर ने उस समय विवाद खड़ा कर दिया जब कांग्रेस के लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने ट्वीट किया कि "...यदि चुनाव आयोग या भारत सरकार के पास इन तर्कों का खंडन करने के लिए उत्तर उपलब्ध हैं, तो उन्हें विस्तार से बताना चाहिए।" वोटों की संख्या में गड़बड़ी को स्पष्ट करने की ज़रूरत है क्योंकि इसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है।''
This thread offers a hugely troubling analysis for all lovers of Indian democracy. If the Election Commission and/or the Government of India have answers available to refute these arguments, they should provide them in detail. The evidence presented does not lend itself to… https://t.co/intL81n9nH
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) August 1, 2023
भाजपा के लोकसभा सदस्य निशिकांत दुबे ने शोध पर ट्वीट किया और इसे "आधा-अधूरा" करार दिया। “नीतिगत मामलों पर भाजपा से मतभेद होना ठीक है, लेकिन यह इसे बहुत आगे तक ले जा रहा है… आधे-अधूरे शोध के नाम पर कोई भारत की जीवंत चुनाव प्रक्रिया को कैसे बदनाम कर सकता है? कोई यूनिवर्सिटी इसकी इजाज़त कैसे दे सकती है? जवाब चाहिए- यह रेस्पोंस पर्याप्त नहीं है।”
It is fine to differ with the BJP on matters of policy but this is taking it too far…how can someone in the name of half-baked research discredit India’s vibrant poll process? How can any University allow it? Answers needed- this is not good enough a response. https://t.co/vDCDFuPC58
— Dr Nishikant Dubey (@nishikant_dubey) August 1, 2023
ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक बयान में, अशोका विश्वविद्यालय ने कहा कि वह "इंडिविजुअल फैकल्टी मेंबर द्वारा स्पेसिफिक रिसर्च प्रोजेक्ट को निर्देशित या अनुमोदित नहीं करता है" - इसलिए दास से खुद को अलग कर रहे हैं।
बयान में कहा गया है कि, “अशोका उस शोध को महत्व देते हैं जिसकी समीक्षकों द्वारा समीक्षा की जाती है और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता है। हमारी सर्वोत्तम जानकारी के अनुसार, विचाराधीन पेपर ने अभी तक एक महत्वपूर्ण समीक्षा प्रक्रिया पूरी नहीं की है और इसे किसी अकादमिक जर्नल में प्रकाशित नहीं किया गया है।''
Ashoka University is dismayed by the speculation and debate around a recent paper by one of its faculty members (Sabyasachi Das, Assistant Professor of Economics) and the university's position on its contents.
As a matter of record, Ashoka University is focused on excellence in…— Ashoka University (@AshokaUniv) August 1, 2023
विश्वविद्यालय ने कहा, "अशोका विश्वविद्यालय अपने एक फैकल्टी मेंबर के हालिया पेपर और उसकी सामग्री पर विश्वविद्यालय की पोजीशन को लेकर चल रहीं अटकलों और बहस से निराश है।"
मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
Ashoka University Professor’s Research Hints at BJP Vote Manipulation in 2019
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