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यूरोप में गैस और बिजली के आसमान छूते दाम और भारत के लिए सबक़

सर्दियों में यूरोपीय यूनियन में गैस के दाम आकाश छूने लगते हैं, जैसा कि पिछले साल हुआ था और इस बार फिर से हुआ है।
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यूरोप में इस समय गैस के ऊपर चढ़ते दामों और शीत लहर के योग ने जिस तरह का संकट पैदा कर दिया है, ये इसी सच्चाई को सामने लाता है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में हरित ऊर्जा की ओर संक्रमण आसान नहीं होने जा रहा है। यह संकट इस प्रकार के संक्रमण की जटिलताओं को भी सामने ले आता है। ऊर्जा विकल्पों का मामला सिर्फ सही प्रौद्योगिकी का चुनाव करने भर का मामला नहीं है बल्कि इसके आर्थिक तथा भूराजनीतिक पहलू भी हैं।

हरित ऊर्जा संक्रमण आसान नहीं

यूरोपीय यूनियन ने, गैस की कीमतों के मामले में पूरी तरह से बाजार-आधारित रुख अपनाने के जरिए, हरित ऊर्जा की ओर संक्रमण की अपनी समस्याओं को और भी बढ़ा लिया है। जैसा कि हमने इससे पहले टैक्सास के प्रकरण में देखा था, इस तरह की नीतियां प्रकृति की मर्जी के सामने फेल ही हो जाती हैं। मिसाल के तौर पर बहुत ज्यादा सर्दी पड़ने के हालात में गैस के दाम बढक़र ऐसे स्तर पर पहुंच सकते हैं कि गरीब तो घर गर्म रखने के लिए बिजली का इस्तेमाल करना बंद ही कर दें। सर्दियों में यूरोपीय यूनियन में गैस के दाम आकाश छूने लगते हैं, जैसा कि पिछले साल हुआ था और इस बार फिर से हुआ है।

भारत के लिए और उसके बिजली ग्रिड के लिए एक सबक तो साफ ही है। ऊर्जा के दाम की समस्या का समाधान बाजार के पास नहीं है क्योंकि इसके लिए नियोजन की, दीर्घावधि के निवेशों की और कीमतों में स्थिरता की जरूरत होती है। बिजली के क्षेत्र को अगर निजी बिजली कारोबारियों के हाथों में सौंप दिया जाता है, जिसके मंसूबे बनाए जा रहे हैं, तो यह इस क्षेत्र का सत्यानाश ही कर देगा। इसी को तारों को, उन पर चलने वाली बिजली से अलग करना कहा जाता है, जो कि वर्तमान बिजली कानून में मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का असली मकसद है।

आइए, यूरोप की और खासतौर पर यूरोपीय यूनियन की, गैस की मौजूदा समस्या पर कुछ विस्तार से नजर डाल लें। यूरोपीय यूनियन ने, कोयला व नाभिकीय बिजली से हाथ खींचते हुए, गैस को बिजली उत्पादन के लिए ईंधन के तौर पर खासतौर पर चुना है और इसके साथ ही साथ उसने वायु तथा सौर ऊर्जा में बड़े पैमाने पर निवेश भी किया है। इस तरह का रास्ता अपनाए जाने के पक्ष में उसकी दलील यह है कि अब जबकि योरपीय यूनियन कम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते पर चल पड़ा है, ईंधन गैस को वह अपना संक्रमणकालीन ईंधन बना रहा है क्योंकि इससे कोयले के मुकाबले कम कार्बन उत्सर्जन होता है।

संक्रमणकालीन ईंधन की मुश्किलें

जैसाकि हम पहले इसी स्तंभ में लिख चुके हैं, हरित ऊर्जा के मामले में एक समस्या यह भी है कि योजना निर्माता इसके लिए, ऊर्जा उत्पादन क्षमताओं में जिस स्तर की बढ़ोतरी का अनुमान कर के चल रहे हैं, उससे कहीं काफी ज्यादा क्षमता विस्तार की जरूरत होगी। मिसाल के तौर पर ज्यादा ऊंचाई के इलाकों में सर्दियों में दिन अपेक्षाकृत छोटे होते हैं और इसलिए, सूरज की रोशनी दिन में कम घंटे ही रहती है। यूरोप की सौर ऊर्जा क्षमताओं की इस मौसमी समस्या को इस साल, हवाओं की धामी गति ने बढ़ा दिया है क्योंकि इससे पवनचक्कियों से बिजली उत्पादन में काफी कमी हो गयी है।

ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में कटौती के अपने अल्पावधि तथा मध्यम अवधि लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, यूरोपीय यूनियन ऊर्जा के स्रोत के रूप में गैस पर बहुत ज्यादा ही निर्भर है। यह बात अलग है कि गैस, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अल्पावधि कमी का ही उपाय है क्योंकि उसके प्रयोग की सूरत में भी, कोयले के मुकाबले ग्रीन हाउस गैसों का आधा उत्सर्जन तो हो ही रहा होता है। बहरहाल, गैस को अल्पावधि तथा मौसमी बढ़ी हुई जरूरतों को पूरी करने के लिए गैस को भंडार कर के रखा जा सकता है और गैस-फील्डों से गैस उत्पादन भी आवश्यकता के अनुसार आसानी से बढ़ाया जा सकता है। इस सबके लिए पहले से नियोजन की तथा अतिरिक्त उत्पादन क्षमता खड़ी करने के लिए निवेशों की जरूरत होगी ताकि मांग में रोजमर्रा के और मौसमी उतार-चढ़ावों की जरूरतों को पूरा किया जा सके।

ये भी देखें: 2021: अफ़ग़ानिस्तान का अमेरिका को सबक़, ईरान और युद्ध की आशंका

दुर्भाग्य से, यूरोपीय यूनियन की इसमें बड़ी आस्था है कि बाजार किसी चमत्कार से सारी समस्याएं हल कर देगा। जहां चीन, भारत तथा जापान आदि में, गैस की कीमतों के मामले में लंबी अवधि के ठेकों का सहारा लिया गया है, जिनमें गैस के दामों को तेल के दामों के साथ जोड़ा गया है, इसके बजाए योरपीय यूनियन गैस के मामले में ‘‘स्पॉट’’ दामों तथा अल्पावधि दामों की ओर ही बढ़ता गया है।

बिजली के दाम पर गैस का ज्यादा असर क्यों?

यूरोपीय यूनियन में गैस के दामों का असर, बिजली के दामों में इतना क्यों पड़ रहा है? आखिरकार, यूरोपीय यूनियन के कुल बिजली उत्पादन का मुश्किल से 25 फीसद हिस्सा ही तो प्राकृतिक गैस से पैदा होता है। लेकिन, यूरोपीय जनता के दुर्भाग्य से यूरोपीय यूनियन में हुए बाजारवादी सुधारों के तहत, सिर्फ गैस के बाजारों का ही नहीं, खुद बिजली के बाजार का भी ‘उदारीकरण’ कर दिया गया है। इसका नतीजा यह है कि वहां बिजली के ग्रिड में विभिन्न स्रोतों से आने वाली ऊर्जाओं का अनुपात, ऊर्जा बाजार में लगने वाली बोलियों से तय होता है। ऊर्जा बाजार में विभिन्न बिजली उत्पादक, ग्रिड के लिए बिजली की आपूर्ति के लिए दाम तथा परिमाण की बोलियां लगाते हैं। ये बोलियां, सबसे सस्ते से महंगे के क्रम में, अगले दिन की प्रत्याशित मांग की पूर्ति के स्तर तक स्वीकार की जाती हैं। अंतत: इस क्रम में आखिरी या सबसे महंगे अपूर्तिकर्ता का लगाया गया दाम ही, सभी आपूर्तिकर्ताओं के लिए दाम बन जाता है। अर्थशास्त्रियों की शब्दावली में यही बिजली की ‘‘मार्जिनल प्राइज़’’ होती है, जिसकी खोज चूंकि बाजार में बोली लगाने के जरिए होती है, इसलिए यही बिजली की ‘स्वाभाविक’ कीमत है।

फिलहाल, यूरोपीय यूनियन के ग्रिडों के लिए यह मार्जिनल उत्पादन, प्राकृतिक गैस से ही आता है और इसलिए गैस की कीमत ही यूरोप में बिजली के दाम भी तय करती है। इसीलिए तो, पिछले साल यूरोप में बिजली के दाम में करीब 200 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी। इस साल, यूरोपीय यूनियन के ही अनुसार, ‘गैस के दाम दुनिया भर में बढ़ रहे हैं, लेकिन और भी ज्यादा बढ़ रहे हैं एशिया तथा यूरोपीय यूनियन जैसे क्षेत्रीय बाजारों में, जो गैस के शुद्घ आयातकर्ता हैं। अब तक 2021 में योरपीय यूनियन में दाम तीन गुने हो चुके हैं और एशिया में दोगुने से ज्यादा हो गए हैं, जबकि अमरीका में दोगुने ही हुए हैं।’

इस तरह, मार्जिनल कीमत को सभी उत्पादकों के लिए बिजली की कीमत बनाने के जरिए, गैस और बिजली के बाजारों को आपस में जोड़ दिए जाने का नतीजा यह है कि अगर गैस की स्पॉट कीमत, तीन गुनी हो जाती है, जैसे कि इस समय चल रही है, तो बिजली की दरें भी तीन गुनी हो जाएंगी। जाहिर है कि इसका अनुमान लगाने के लिए खास कल्पनाशीलता की भी जरूरत नहीं होगा कि बिजली के दाम में ऐसी बढ़ोतरी की सबसे ज्यादा मार किस पर पड़ती है! हालांकि, मार्जिनल कीमत को सभी आपूर्तिकर्ताओं के लिए बिजली का दाम बनाने इस व्यवस्था की, भले ही उनकी लागत कुछ भी क्यों न हो, आलोचना भी होती रही है। फिर भी यूरोप में तो बाजार भगवान की नवउदारवादी भक्ति का ही बोलबाला बना हुआ है।

रूसी आपूर्तियों का सवाल

रूस के यूरोपीय यूनियन के देशों के साथ दीर्घावधि सौदे भी हैं और अल्पावधि सौदे भी। पूतिन ने स्पॉट कीमतों और गैस कीमतों के प्रति योरपीय यूनियन के सम्मोहन की हंसी उड़ायी है और कहा है कि रूस दीर्घावधि सौदों के जरिए ज्यादा गैस की आपूर्ति करने के लिए तैयार है। हालांकि, योरपीय आयोग के अधिकारीगण इस बात को मानते हैं कि रूस ने अपनी दीर्घावधि वचनबद्घताएं पूरी की हैं, फिर भी वे यह कहते हैं कि रूस, यूरोपीय यूनियन की अल्पावधि जरूरतें पूरी करने के लिए, जिनकी वजह से ही गैस की कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, और बहुत कुछ कर सकता था। लेकिन, सवाल तो यह है कि या तो आप यह मानें कि बाजार सब सही करेगा या फिर यह मानें कि बाजार सब सही नहीं करेगा? यह नहीं चल सकता कि जब गैस के स्पॉट दाम कम हों, जैसे कि गर्मियों में, तब तो आप कहें कि बाजार जो तय करें वही सबसे सही और सर्दी में अपनी आस्था बदल लें और रूस से इसकी मांग करने लगें कि वही अपनी आपूर्तियां बढ़ा दे ताकि आपके यहां बाजार में दाम को ‘नियंत्रित’ किया जा सके! और अगर आप सचमुच मानते हैं बाजार जो तय करें वही सबसे सही होगा, तो नॉर्ड स्ट्रीम 2 के लिए नियमनकारी अनुमतियों को तेजी से आग बढ़ाने के जरिए, आप बाजार की मदद क्यों नहीं करते?

यह हमें रूस और यूरोपीय यूनियन के रिश्तों के उलझे हुए प्रश्न पर ले आता है। यूक्रेन का संकट, जो योरपीय यूनियन और रूस के संबंधों को बिगाड़ रहा है, उसका संबंध गैस के मुद्दे से भी है। इस समय रूस से यूरोपीय यूनियन के लिए गैस की अधिकांश आपूर्ति पाइपलाइन नार्ड स्ट्रीम 1 के जरिए होती है जो यूक्रेन व पोलेंड से होकर, सागरतल के साथ-साथ जाती है। रूस के पास इसके अलावा भी गैस आपूर्ति की क्षमता है और वह नयी-नयी बनी नॉर्ड स्ट्रीम-2 पाइप लाइन के जरिए योरप को और गैस मुहैया करा सकता है।

गैस की भूराजनीति में अमेरिकी निहित स्वार्थ

इसमें शायद ही किसी को संदेह होगा कि नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइप लाइन का मसला सिर्फ नियमनकारी पेचीदगियों की वजह से ही नहीं अटका हुआ है बल्कि यूरोप में गैस की भूराजनीति की वजह से अटका हुआ है। अमेरिका ने जर्मनी पर दबाव डाला है कि नॉर्ड स्ट्रीम 2 के लिए इजाजत नहीं दे। इसके लिए उसने पाबंदियों की धमकी तक का इस्तेमाल किया था। एंजेला मार्केल ने अपने करीब-करीब विदाई से पहले के आखिरी बड़े फैसले में अमरीका के उक्त दबाव को नामंजूर कर दिया था और अमरीका को इस मामले में पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। अब यूक्रेन के संकट ने जर्मनी पर इसके लिए दबाव और बढ़ा दिया है कि नॉर्ड स्ट्रीम-2 के पूरा होने को टाल दे, भले ही इसके चलते गैस तथा बिजली की कीमतों का उसका अपना दुहरा संकट बद से बदतर ही क्यों नहीं हो जाए।

इस सब में अगर किसी का फायदा हो रहा है, तो अमेरिका का। उसे अपनी कहीं महंगी फ्रेकिंग गैस के लिए खरीददार मिल रहा है। रूस इस समय यूरोपीय यूनियन की गैस के करीब 40 फीसद हिस्से की आपूर्ति कर रहा है। अगर इस आपूर्ति में रूस का हिस्सा घट जाता है, तो इसका फायदा अमरीका को हो सकता है, जो कि यूरोपीय यूनियन की गैस के 5 फीसद से भी कम की ही आपूर्ति कर रहा है। रूस की गैस के खिलाफ पाबंदियां लगाने तथा नॉर्ड स्ट्रीम-2 को चालू न होने देने में अमरीका के स्वार्थ का सीधा संबंध, अमरीका के यूक्रेन को समर्थन देने से है। वह यह सुनिश्चित करना चाहता है कि रूस, यूरोपीय यूनियन के लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण न हो जाए। उसे डर है कि यह सिलसिला एक साझा सर्व-यूरोपीय बाजार और वृहत्तर यूरेशियाई सुदृढ़ीकरण तक जा सकता है। पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया की ही तरह, इस मामले में भी अमरीका के निहित स्वार्थ इसमें हैं कि व्यापार, भूगोल से संचालित न होकर, राजनीति से ही संचालित हो। यह दिलचस्प है कि सोवियत संघ से पश्चिमी यूरोप के लिए पाइप लाइनें, शीत युद्घ के दौरान बनी थीं और इनके मामले में भूगोल तथा व्यापार के तकाजों को, शीत युद्घ की राजनीति के तकाजों के ऊपर तरजीह दी गयी थी।

अमेरिका, नाटो तथा हिंद-प्रशांत पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है, क्योंकि उसका ध्यान समुद्रों पर है। नाटो आखिरकार, उत्तरी एटलांटिक संधि संगठन है और जाहिर है कि हिंद-प्रशांत का अर्थ हिंद महासागर तथा प्रशांत महासागर ही है। भौगोलिक दृष्टि से सागर अलग-अलग नहीं होते हैं बल्कि एक अविभाज्य जल राशि बनाते हैं। यह जलराशि पृथ्वी का 70 फीसद से ज्यादा हिस्सा घेरे हुए है और इसके बीच में तीन प्रमुख महाद्वीप स्थित हैं- यूरेशिया, अफ्रीका और अमरीकी महाद्वीप। इनमें यूरेशिया सबसे बड़ा महाद्वीप है, जिसमें दुनिया की 70 फीसद से ज्यादा आबादी बसी हुई है। इसीलिए, अमरीका नहीं चाहता है कि ऐसा सुदृढ़ीकरण हो।

पर्यावरण की चुनौती और भारत के लिए सबक

पर्यावरण परिवर्तन की चुनौती का सामना करने में हम शायद अपनी सभ्यता की जानकारी में सबसे बड़े संक्रमण से गुजर रहे हैं। इसके लिए ऊर्जा संक्रमण की जरूरत है और यह संक्रमण बाजारों के जरिए हासिल नहीं किया जा सकता है, जो फौरी मुनाफों को, दीर्घावधि सामाजिक लाभों पर तरजीह देते हैं। अगर गैस वाकई वह संक्रमणीय ईंधन है, जो कि कम से कम यूरोप में है, तो इसके लिए उसके बिजली के ग्रिड को, पर्याप्त भंडारण क्षमताओं के साथ और गैस फील्डों से जोडऩे वाली, दूरगामी नीतियों की जरूरत होगी। इसके लिए, उसे अमरीका को ही फायदा पहुंचाने के लिए, अपने ऊर्जा तथा पर्यावरणीय भविष्य से खिलवाड़ करना बंद करना चाहिए।

भारत के लिए इसके सबक एकदम स्पष्ट हैं। बुनियादी ढांचे के मामले में बाजार काम ही नहीं करते हैं। सभी भारतीयों को बिजली मुहैया कराने तथा अपने हरित संक्रमण के लिए, हमें शासन के नेतृत्व में दीर्घावधि नियोजन की जरूरत है न कि उन बिजली बाजारों पर रहस्यात्मक अंध विश्वास की, जिन्हें कृत्रिम तरीके से चंद नियमनकर्ताओं द्वारा ऐसे नियम बनाने के जरिए खड़ा किया जा रहा है, जो अंबानी, अडानी, टाटा, बिड़ला आदि, निजी बिजली उत्पादकों के मुनाफे को ही नजर में रखकर बनाए जा रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

What India Needs to Learn From Spiralling Gas, Electricity Prices in Europe

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