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कश्मीर: संविधान के मूल्यों को कैसे बनाकर रख पाएगी सेना

पाकिस्तानी मिलिटेंट से लड़ने के नाम पर 80 लाख कश्मीरियों को बंधक बनाकर सेना संविधान का मान कैसे रखेगी?
Indian Army

जरूरी नहीं कि एक अच्छा सैनिक, अच्छा सैन्य नेता भी बने। जब सैन्य अधिकारियों ने सत्ताधारियों के पक्ष में विभाजनकारी वक्तव्य दिए, तब भारत के लोगों को यह चीज महसूस हुई।

पूर्व आर्मी प्रमुख, जिन्हें अब ''चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ'' बना दिया गया है, वे एक ऐसी विरासत छोड़ कर जा रहे हैं, जो सत्ताधारी बीजेपी की लाइन से कदमताल करती है। इससे पहले उन्होंने ''ह्यूमन शील्ड (जब एक मेजर ने प्रदर्शनकारियों से बचने के लिए एक इंसान को मिलिट्री की जीप पर बांध दिया था)'' की घटना को ''नवाचार'' बताया था। इस तरह उन्होंने सैनिकों को युद्ध या हथियारबंद विवादों की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित किया था।

इसी पृष्ठभूमि में नए आर्मी चीफ द्वारा दिए गए 11 जनवरी के स्टेटमेंट को देखा जा रहा है। अब वह सत्ताधारियों के प्रशंसक बनकर अपने पूर्ववर्तियों द्वारा अराजनैतिक बने रहने की विरासत से दूर जा रहे हैं। 

एक खुशनुमा वापसी

जनरल एम एम नारावने ने सेना प्रमुख का पद संभालने के बाद पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ कहा कि सैनिक और ऑफिसर संविधान को सुरक्षित रखने की शपथ लेते हैं। ताकि ''प्रस्तावना में बताए गए संविधान के अहम मूल्यों न्याय, आजादी, समता और भाईचारे को सुरक्षित रखा जा सके।'' लेकिन वो यहां पंथनिरपेक्षता की बात कहना भूल गए। लेकिन इस भूल से किसी की भौंहें नहीं तनी। आखिर लंबे वक्त से हमने किसी आर्मी जनरल द्वारा, '' जनता की सेना और जनता के लिए सेना'' किस्म का भाषण नहीं सुना था।

इन शब्दों का वजन है। उन्होंने बताया कि आर्मी के सामने ''फिलहाल  उग्रवाद और आतंकवाद की समस्याएं हैं, लेकिन लंबे वक्त में मुख्य चुनौती हमेशा पारंपरिक युद्ध की ही रहेगी।'' इस तरह उन्होंने इस बात की सलाह दी कि सेना को अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध से वापस बुला लेना चाहिए और अपने प्राथमिक लक्ष्य- पारंपरिक युद्ध की तरफ ही ध्यान रखना चाहिए। यह शब्द सुकून पहुंचाने वाले किसी लेप की तरह हैं। आखिर हम कड़े शब्द, जो शालीनता और धैर्य के परे चले जाते हैं, उन्हें सुनने के आदी हो चुके हैं। कश्मीरियों के लिए खासकर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। 

लेकिन कुछ दिन बाद ही सेना दिवस के मौके पर आर्मी चीफ ने एक ऐसा स्टेटमेंट दिया, जो विभाजनकारी राजनीति के साथ तालमेल खाता है। उन्होंने अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को ''ऐतिहासिक कदम'' करार दिया, जो जम्मू-कश्मीर को भारत की ''मुख्यधारा'' में लाने में मदद करेगा।

ऐसा नहीं है कि आर्मी चीफ यह बात नहीं जानते कि बीजेपी ने जो किया वो विवादित, विभाजनकारी है, जिसका विरोध भारतीय नागरिकों का एक बड़ा तबका कर रहा है। अनुच्छेद 370 पर किसी को आंसू बहाने की जरूरत नहीं है, आखिर 1954 के बाद से ही इसे टुकड़ों-टुकड़ों में खत्म किया जा रहा था। दरअसल आपत्ति जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को छीनकर उसे केंद्र शासित प्रदेश में बदलने को लेकर है। अब यहां केंद्र सरकार का सीधा शासन होगा, जहां कश्मीरियों से सिर्फ एक वस्तु की तरह बर्ताव किया जाएगा, ठीक वैसे ही जैसा 1846 से 1947 के बीच डोगरा राज्य में हुआ करता था।

कश्मीर बंद के 167 दिन गुजरने के बाद अब केंद्र सरकार की कश्मीर नीति पर सवाल उठाने वाले भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है। यहां तक कि जम्मू और लद्दाख के लोग, जो अनुच्छेद 370 हटने के बाद खुशी मना रहे थे, वो भी अब पहले जैसा महसूस नहीं करते। अब उन्हें भी लगता है कि विशेष दर्जे हटने के बाद, एक तरह से केंद्र सरकार के उपनिवेश वाले नए केंद्रशासित प्रदेशों में उनकी ज़मीन और नौकरियां सुरक्षित नहीं रहेंगी। जम्मू से लेकर लद्दाख तक, व्यापारियों से नौकरी पेशा लोग भी नाराज हैं, उन्हें लगता है कि  कैसे अब उनपर नुकसानदायक फैसले थोपे जा रहे हैं। यह नाराजगी इस हद तक है कि जम्मू को छोड़कर बीजेपी कहीं और रैली भी आयोजित नहीं कर पा रही है या उसे रोका जा रहा है।

जहां तक कश्मीरियों की बात है तो अब उनके पास किसी भी तरह के संवैधानिक अधिकार नहीं हैं, उनके सभी नेता (चाहे अलगाववादी या भारत समर्थक) जेलों में बंद हैं। आर्मी चीफ जरूर जानते होंगे कि कश्मीरी भारतीय नागरिक हैं, वह कोई पाकिस्तान के छद्म प्रतिनिधि नहीं हैं। उनका ''जीवन और आजादी का अधिकार'' फिलहाल दमित है। 

जैसा आर्मी चीफ ने कहा, भारत यहां छद्म युद्ध की संक्षिप्त चुनौती से जूझ रहा है। बता दें यह कथित छद्म युद्ध 1990 से चालू है, अब इस युद्ध के 31 साल बीत चुके हैं। इसके चलते सेना अपने ''प्राथमिक लक्ष्य''- बाहरी युद्ध के खिलाफ तैयारियों पर नहीं लौट पा रही है।

मैं आपका ध्यान रक्षा मंत्रालय के ''समन्वित मुख्यालय'' द्वारा लाई गई ''डॉक्ट्रीन ऑफ सब-कंवेंशनल ऑपरेशन'' की ओर खींचना चाहता हूं।  मैं इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) में इस डॉक्ट्रीन की  नागरिक अधिकारों के नज़रिए से आलोचना की थी। इससे जुड़ा एक लेख 2006 से उपलब्ध भी है। इस डॉक्ट्रीन में ''दुश्मन से लड़ने'' और ''अपने लोगों से लड़ने'' में मौलिक अंतर बताया गया है। इसमें युद्ध नीति में आगे से और पीछे से लड़ने में फर्क बताया गया है। साथ ही रणनीतिक और सामरिक अंतर भी समझाया गया है। इसलिए एक सैनिक जिसे ''दुश्मन'' से लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया है, उसे अपने ही लोगों से लड़ने के लिए मानसिकता में बदलाव करना होगा। इसमें यह भी बताया गया है कि यह लड़ाई जरूरी तौर पर संक्षिप्त नहीं होगी और न ही इसमें कम ताकत का इस्तेमाल किया जाएगा।

इसलिए अपने नागरिकों के प्रति जो सहानुभूति है, वो उन्हें छद्म नागरिकों में बदल देती है, जिन्हें दबाया जाना जरूरी हो जाता है।

''....पहली बात, मिलिट्री ऑपरेशन के ज़रिए विवादित क्षेत्रों से उन विरोधी तत्वों को हटाया जाना चाहिए, जो शांति के प्रयासों की शुरूआत में बाधा बनते हैं। दूसरी बात,मिलिट्री ऑपरेशन को लोगों के व्यवहार और संकल्प-शक्ति को बदलने की तरफ केंद्रित होना चाहिए.... प्रयास इस दिशा में होने चाहिए कि लोगों को विश्वास दिलाया जा सके कि सरकार से लड़ाई में जीता नहीं जा सकता और सरकार विरोधी रवैये से सिर्फ शांति और स्थितियां सामान्य होने में देर होगी। इसलिए आतंकवादियों से दूर रहना उनके ही पक्ष में है और यही उनके पास सिर्फ एक विकल्प है। हालांकि, इस कोशिश को पूरा करने में दो साल से लेकर कई दशक तक लग सकते हैं, क्योंकि लोगों का व्यवहार बदलने में वक्त लगता है।''

अब ''विरोधी तत्वों को हटाने'' की स्थिति में कोई अपवाद नहीं है। लेकिन यह विरोधी तत्व कौन होंगे, यह तय करने की शर्तों में लोच की गुंजाइश है। हमने देखा कि कैसे मिलिट्री कमांडर 10 से 12 साल के बच्चों को ''अतिवादी कट्टर'' घोषित कर देते हैं, जिसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता है। यह सब और जटिल हो जाता है, लोगों की ''संकल्प शक्ति और व्यवहार को बदलना'' प्रमुख उद्देश्य बन जाता है। इसके तहत बच्चों को ''अतिवाद'' से दूर ले जाने की कोशिश होती है, जो 1950 में कोरियन युद्ध के बाद हुए ''ब्रेन वॉश'' कार्यक्रम का प्रतिबिंब है। इस क्रम में लोगों की संकल्प शक्ति को खत्म करने की कोशिशें बेहद घिनौनी हो जाती हैं। यह सब आखिर संवैधानिक नैतिकता और न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के  वायदे के साथ कैसे मेल खा सकती है।"?

छद्म तरीके

एक दूसरा उदाहरण लीजिए। दावा किया गया कि जम्मू-कश्मीर में हालिया कार्रवाई से हमारे पड़ोसी और उनके समर्थक तत्वों के कार्यक्रम ध्वस्त हो गए। तथ्य की बात यह है कि कश्मीर में पाकिस्तान और उसके छद्म तत्वों के किरदार की बात सरकार की गलतियों से ध्यान भटकाने के लाई गई थी।  यह सब तब हुआ, जब 1989-90 में विप्लव शुरू हुआ, तब भारत की सफलता की झूठी अवधारणा बनाई जा सके।

दिक्कत यह है कि भारतीय सेना दावा करती रही है कि उसने सीमारेखा पर घुसपैठ की गतिविधियों को ध्वस्त किया है, जिससे पाकिस्तान अपने उग्रवादियों को भेजने में नाकामयाब रहा है। परिणामस्वरूप ऐसी रिपोर्ट आईं कि जो कश्मीर के भीतर उग्रवादी पनपे, वो विप्लव को लगातार जारी रख रहे हैं। ऐसी भी रिपोर्ट हैं कि हिजबुल कश्मीर के भीतर से ही उग्रवादियों को अपने साथ शामिल करने और उन्हें प्रशिक्षण देने में कामयाब रहा है।

आगे की बात यह है कि अभी केवल 220 उग्रवादी हैं, जिनमें से 80 फ़ीसदी ''कश्मीर के भीतर'' से हैं। दूसरे शब्दों में, यह मानना मुश्किल है कि महज 220 उग्रवादियों ने लाखों की भारतीय सेना को बांध रखा है या वे हमारे लिए खतरा हैं। यह गलत बात होगी। खासकर तब, जब वैचारिकता से प्रभावित अवधारणा सरकार की कश्मीर नीति बना रही हो।

याद रखिए कि 2003 तक जैश-ए-मोहम्मद खत्म हो चुकी थी, वहीं 2013 तक लश्कर-ए-तैयबा को पीछे ढकेल दिया गया था। अगर सालों  की गुमनामी के बाद यह संगठन वापसी करने में कामयाब रहे हैं, तो इसमें किसकी गलती है।अगर कड़े तरीकों को अपनाने वाली, मुस्लिमों के प्रति क्रूरता से भरे वैचारिक झुकाव वाली बीजेपी की गलती नहीं है, तो किसकी है? इसके बावजूद मिलिटेंसी काबू में ही रही है। दरअसल विरोध प्रदर्शनों ने अपनी जगह बनाई। छद्म युद्ध लड़ने की आड़ में आम कश्मीरियों और उनके प्रदर्शन को दबाया गया।

भारत पूरी तरह से अपने हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर के नियंत्रण में रहा है। इस बीच पाकिस्तान द्वारा अपनी तरफ से कुछ कोशिशें करना नामुमकिन था। वह इसलिए दखल बना पाया क्योंकि भारत में आई तमाम सरकारों, जिनमें मौजूद सरकार भी शामिल है, उन्होंने बिना कोई राजनीतिक मूल्यों के सैन्य दबाव की गलत नीति जारी रखी और नागरिकों का दिल जीतने में असफल रहे। पिछले तीस सालों में भारतीय सेना, अर्धसैनिक बल, सुरक्षा एजेंसियों की कश्मीर में बड़ी मौजूदगी रही है। बल्कि कश्मीर जाने वाला कोई भी यात्री खुद भारतीय सेना, उनके बंकर, कैंप और छावनियों की मौजूदगी देख सकता है। 

पाकिस्तान से प्रेरित मिलिटेंट से निपटने के लिए भारत सरकार ने 80 लाख की एक पूरी आबादी को बंधक बना लिया है, यह एक विषम नीति है और न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे की बात करने वाले संविधान का उल्लंघन है। दरअसल हम ''राष्ट्रीय सुरक्षा'' के नज़रिए वाली नीति पर चलते हैं, दो इसे संविधान के ऊपर रख देती है।

''नेल्सन'' जैसी एकतरफा नजर

अचंभित करने वाली बात है कि पूर्व आर्मी प्रमुख और मौजूदा सीडीएस इस्लामिक ''अतिवाद'' के खिलाफ अपनी ''नेल्सोनियन'' नज़र से एकतरफा देखते हैं। रायसीना वार्ता मे उन्होंने दावा किया कि ''अतिवाद की ओर यह झुकाव स्कूलों से शुरू हो जाता है, जो यूनिवर्सिटीज़ और धार्मिक जगहों पर भी आगे बढ़ाया जाता है।'' उन्होंने ''कट्टरता को हटाने'' के लिए 10 से 12 साल के बच्चों को भी अलग करने की सलाह दी।

तो पूर्व आर्मी चीफ 10 से 12 साल के बच्चों में मुस्लिम अतिवाद को तो देख सकते हैं। लेकिन बीजेपी सरकार द्वारा प्रायोजित हिंदू युवाओं और बच्चों को हिंदुत्व की तरफ बढ़ाकर, अतिवाद की ओर ढकेलकर उन्हें लिंच मॉब और गोरक्षक बनाने वाले कदम, उन्हें देखने में इनकी नज़र अंधी हो जाती है। खासकर जम्मू में यह प्रक्रिया जारी है, जबकि जम्मू-कश्मीर के अशांत इलाके में बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती है और वहां बीजेपी शासन है। यह सब सेना की नाक के नीचे हो रहा है।

जिस मुख्यधारा में आर्मी चीफ नारावने कश्मीर को लाना चाहते हैं, वो अब बीच में टूट चुकी है। जहां सांप्रदायिक जहर घोला जा चुका है, जहां कट्टरता अर्ध-आधिकारिक नीति बन चुकी है, असहमति रखने वालों को प्रताड़ित किया जाता है, छात्रों पर हमले हो रहे हैं और राज्य की शह वाले लिंच मॉब खुल्ले घूम रहे हैं।

ताकतवर और ऊंचे लोग भी अब सार्वजनिक तौर पर नीचे गिरते जा रहे हैं। इससे लोगों के बड़े हिस्से में हताशा है। लेकिन इन सब पर कोई बात नहीं है। क्यों? आखिर अनुच्छेद 370 को हटाने को वो समर्थन कर सकते हैं, जो कि एक संवैधानिक प्रबंध था, जिसे हटाकर कश्मीर के लोगों को ''अधीन जनता'' के स्तर तक गिरा दिया गया है, ठीक वैसा ही जैसा ब्रिटिश राज में होता था। तो क्या उनसे सरकार की दोहरी नीतियों, जिनके चलते देश का ध्रुवीकरण हो रहा है, जिनके तहत कश्मीरियों को बंधक बनाकर रखा गया है, उन नीतियों पर बोलने की मांग करना गलत है?
मुद्दा यह नहीं है कि अनुच्छेद 370 बहुत पवित्र था। अगर ऐसा होता तो पहले ही इसे बहुत कमजोर नहीं किया गया होता। और जो लोग आज इसे हटाए जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने पहले भी जोर-शोर से इसका विरोध किया होता। लेकिन इसका निरसन सिर्फ एक हिस्सा भर है। अनुच्छेद 370 को हटाकर क्या दिया गया? राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदल दिया गया। यह कदम और अवनति की ओर ले गया।

किसी बंधक बनाई हुई जनता पर कोई समाधान लादना, जो उनकी सहमति के बिना लाया गया है, जिसे सिर्फ इसलिए लाया गया ताकि भारत की महानता को सिद्ध किया जा सके तो हम संविधान सम्मत नहीं हैं।  हम यहां संविधान का पालन नहीं कर रहे हैं।

सैन्य इतिहासकार और क्लॉसविट्ज पर गहरी पकड़ रखने वाले क्रिस्टोफर बॉसफोर्ड ने एक बात की ओर इशारा किया है कि ''राजनीतिज्ञों को उन युद्ध के औजारों का सहारा नहीं लेना चाहिए, जो किसी समस्या के लिए अनुकूल नहीं हैं।'' उन्होंने यह भी बताया है कि यह सैन्य नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वो नागरिक नेतृत्व को समझाए कि सैन्य औजारों की सीमाएं और विशेषताएं क्या हैं। यह तब और अहम हो जाता है, जब हम अपने ही लोगों के खिलाफ एक लंबी लड़ाई चला रहे हों।

तो यह अच्छी बात है कि भारतीय सेना अपनी निष्ठा संविधान के प्रति दिखा रही है, लेकिन यह निष्ठा अशांत क्षेत्रों में इनकी तैनाती के वक्त झलकनी भी चाहिए। जहां ''अफस्पा'' से लैस, इन लोगों की तैनाती अपने ही लोगों के खिलाफ की जाती है। उन्हें विरोधी की तरह देखना, अपने ही नागरिकों का दमन करना है, क्योंकि वह हमारे दुश्मन नहीं हैं। अगर सेना, भारतीय लोगों की है, तो अब नारावने के नेतृत्व में सेना को अशांत क्षेत्रों में लंबी तैनाती से बचना चाहिए और अपने ''प्राथमिक लक्ष्य पारंपरिक युद्ध की तैयारी'' की ओर मुड़ना चाहिए।

क्योंकि जितने लंबे वक्त तक सेना की तैनाती हमारे अपने ही लोगों के खिलाफ होगी, तब तक ''संविधान के न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे'' के वायदे को निभाया नहीं जा सकेगा।  जब एक दमन की लड़ाई में लंबे वक्त से सेना की तैनाती हो, जिसमें बीत चुके उपनिवेशवाद की बू आती हो, तब साथी नागरिकों का यह वैध अधिकार है कि वे सेना के खिलाफ बात कर सकें।

(यह निजी विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Indian Army: A Good Step Forward Raises Questions

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