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काला धन – क्यों नेताजी हमें कोलिन से साफ़ करो और खुद गन्दा रहो

बीजेपी के नोटबंदी को जनता का समर्थन मिलता है या नहीं, यह चुनाव के परिणाम से पता चल जाएगा।
काला धन – क्यों नेताजी हमें कोलिन से साफ़ करो और खुद गन्दा रहो

कुछ ही महीनों बाद देश के दो बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पहला यूपी और दूसरा पंजाब। जहां यूपी में अभी सपा की सरकार है वहीं पंजाब में अकाली दल की। इन दोनों राज्यों में होनेवाले चुनाव के जीत और हार का फैसला अपने आप में बहुत बड़े मायने रखता है, क्योंकि बीजेपी के नोटबंदी के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव होगा।

बीजेपी के नोटबंदी को जनता का समर्थन मिलता है या नहीं, यह चुनाव के परिणाम से पता चल जाएगा।

बीजेपी ने नोटबंदी को भ्रष्टाचार, नकलीनोट, आतंकवाद और कालाधन पर बहुत बड़ी चोट बताकर इस कदम को सही ठहरा रही है, जबकि विपक्ष इसे जनता के लिए मुसीबत बता रहा है।

ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि सत्ता पक्ष अपने कदम को सही बताता है वही विपक्ष पक्ष उसे गलत। यह होता रहता है। सही-गलत चलता रहता है, किंतु सही-गलत के चक्कर में यह खबर बहुत दुखी करती है कि संसद का यह शीतकालीन सत्र इसी सही-गलत की भेंट चढ़ गया।

2016 का यह शीतकालीन सत्र सबसे कम समय चलने ( काम) वाला सत्र में बदल गया। इस कम चलने वाले सत्र में बहुत बड़े-बड़े फैसले लिए जा सकते थे। किंतु ऐसा न हो सका।

हद तो अब हो गई कि जो माहौल संसद सत्र में संसद के अंदर था अब वो बाहर भी है। यानि सही-गलत। सही-गलत। सही-गलत।

लेकिन मैं आप से कहूं कि इस सही-गलत की भाग-दौड़ में “राजनैतिक पार्टियों की आय” एक ऐसा मामला है जो हर पक्ष के लिए सही है।

अर्थात् सत्ता पक्ष भी इसे सही कहते और विपक्ष पक्ष भी। यहां तक कि राज्यस्तरीय पार्टियां भी इसे सही ठहराती हैं।

आश्चर्य तो तब होता है जब सारी पार्टियां एकमत दिखाकर इस मुद्दे पर ज्यादा बोलने से बचती है क्योंकि मामला सभी राजनैतिक पार्टियां का है।

कहाँ से आता है पैसा राजनीतिक दलों के पास …

आप देखते होंगे जैसे ही चुनाव का मौसम आता है तो आसमान में हेलीकॉप्टर के आवाज की गुंज सुनाई देने लगती है। सड़कों पर महंगी-महंगी गाड़ियों की लंबी लाइन लग जाती है। बड़े-बड़े विशाल पंडाल बनाये जाते हैं। सैकड़ो रैलियां होती है हजारों जनसभाएं किये जाते हैं। जिसमें लाखों -करोड़ का खर्च होता है।

तो सवाल उठता है कि ये लाखों-करोड़ो रुपये आते कहां से है ? इन्हें खर्च कौन करता है ? और ये पैसे किनके पास आते हैं ?

इन सारे सवाल का जवाब है कि ये लाखों-करोड़ों रुपये राजनैतिक पार्टियों के पास आते हैं। इन्हें खर्च भी वही लोग करते हैं।

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स(एडीआर) के मुताबिक साल 2005 से 2013 के बीच छह राजनैतिक दलों कांग्रेस,बीजेपी,बीएसपी,एनसीपी,सीपीआई और सीपीएम ने कुल 5986.32 करोड़ रुपये अर्जित किये थे। जिसका 73 फीसदी अज्ञात स्रोत से आया था।

अब आप पूछेंगे इस अज्ञात स्रोत का माजरा क्या है ?

तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन करोड़ो रुपये की आय पर न तो कर लगता है और न ही किसी राजनैतिक दल से पूछा जाता है कि इतना पैसा आया कहां से।

दरअसल बात यह है कि आयकर कानून की धारा 13 ए के तहत राजनैतिक दलों को अपनी आय के हर स्त्रोत पर 100 फीसदी कर रियायत है। साथ ही यह प्रावधान है कि 20 हजार रुपये की राशि के नीचे के अनुदान के मामले में उसे स्रोत और दानदाता का नाम बताने की जरुरत नहीं। इसी रियायत का फायदा हर पार्टियां उठती है और अपने चुनावी खर्च के लिए धन एकत्र करती हैं।

अज्ञात स्रोत से आय और चुनावी खर्च…..

सीएमएस के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव में 35,000 करोड़ रुपये फूंके गए थे। यह बात अलग है कि 2014 के चुनाव में हुए खर्च का आधिकारिक अनुमान सिर्फ 7000-8000 करोड़ रुपये के बीच है जिसका मतलब यह हुआ कि बाकी की धनराशि यानि 27,000 करोड़ रुपये ऐसे थे जिनका कोई हिसाब नहीं था।

इस आधार पर यह गणना की जाय तो पता चलता है कि देश की कुल 4,120 विधानसभा क्षेत्रों में प्रत्याशियों ने करीब 12,000 करोड़ रूपये का कालाधन खर्च किया है।

हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री ने राजनैतिक दलों की आय पर सवाल उठाते हुए आयोग की सिफारिश का समर्थन किया है।

पैसा और जीत…..

किसी भी राजनीतिक उम्मीदवार के लिए उसके चुनाव  में जीत और हार  के लिए पैसा एक अहम भूमिका निभाता है।

अगर कहा जाये कि अमीर उम्मीदवार ज्यादा जीतते हैं और गरीब कम तो इसमें आश्चर्य वाली कोई नई बात नहीं है।

क्योंकि इंडिया टुडे की एक खबर बताती है कि महाराष्ट्र के नगर चुनाव के दौरान अधिकत्तर प्रत्याशियों ने मतदाताओं को उपहार में देने के लिए सोना, घरेलू बर्तन और उपकरणों की खरीद की थी। दूसरे ने मदाताओं के ईंधन और दवा का बिल चुकाए हैं।

कुछ ने तो मतदाताओं की संपत्ति कर, जल कर बिजली बिल भी चुकाए हैं।

धुले के एक कारोबारी का कहना है कि मुझे अपने पांच लोगों के परिवार में हर एक वोट के लिए 2,500 रुपये मिले हैं।

कार्नेगी के बैष्णव द्वारा 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा दाखिल हलफनामे की  पड़ताल बताती है कि चुनावी कामयाबी में पैसा कितनी बड़ी भूमिका निभाता है।

वित्तीय परिसंपत्तियों के मामले में सबसे गरीब प्रत्याशियों के संसदीय चुनाव जीतने की प्रत्याशा एक फीसदी रही जबकि सबसे अमीर प्रत्याशियों के जीतने की प्रत्याशा 23 फीसदी से ज्यादा रही।

नोटबंदी और राजनैतिक पार्टियों की आय….

राजनैतिक पार्टियों की आय को लेकर पहले कई बदलाव किये जा चुके हैं। कंपनियों के अनुदान को दोबारा क़ानूनी रूप दिया गया। पार्टियों को कर रिटर्न दाखिल करने का नियम बना। प्रचार अवधि को 21 दिन से घटा कर 14 दिन कर दिया गया। प्रत्याशियों के लिए खर्च का विवरण देना अनिवार्य कर दिया गया। साथ ही आयोग द्वारा चुनाव में प्रत्याशी के खर्च करने की सीमा दी गई है। देश के 533 बड़े चुनाव क्षेत्र में प्रताशियों को 70 लाख रुपये तक और 10 छोटे चुनाव क्षेत्रों में 54 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट है।  8 नवंबर के नोटबंदी के बाद राजनैतिक पार्टियों की आय का मामला तूल पकड़ने लगा है। सवाल सीधा सा है। आप हमें कोलिन से साफ़ करो और खुद गन्दा रहो यह कैसे हो सकता है ?

जब हम साफ़ हो रहे है तो आप भी साफ़ होइए। हमारे पैसों की जाँच आप कर सकते हो तो आप भी ( सारी राजनैतिक पार्टियां) अपने पैसों(आय) का ब्योरा दो। क्योंकि कालाधन सभी के पास काला ही होगा।

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