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कानून की 'तानाशाही' से नहीं रुकेगी सड़कों पर अराजकता

यातायात को नियंत्रित-व्यवस्थित करने के लिए कानून की कमी नहीं है। ट्रैफिक पुलिस का मुस्तैदी से काम करने की बजाय खुलेआम घूस लेना उसी कार्य संस्कृति का हिस्सा है। विकास के साथ-साथ जिस सड़क संस्कृति की जरूरत होती है वह हमारे देश में अभी तक नही बन पाई है।
new traffic rule
Image courtesy: India Today

देश की सड़कों पर इस समय अराजकता का माहौल है। वाहनों की धरपकड़ जारी है। यातायात पुलिस और वाहन चालकों के बीच टकराव की खबरें सामने आ रही हैं। जितनी कार या मोटरसाइकिल की कीमत नहीं है उससे ज्यादा जुर्माना लगाया जा रहा है। मोटर वाहन संबंधी नए कानून का मकसद सड़कों को सुरक्षित बनाने और सड़क दुर्घटनाओं को कम करने था लेकिन हो रहा है ठीक इसका उल्टा।

संयुक्त राष्ट्र ने दुनियाभर में सुरक्षित सड़क यात्रा की मुहिम चलाई है। भारत ने भी उसका समर्थन किया है और वर्ष 2020 तक सड़क दुर्घटना में 50 प्रतिशत तक कमी लाने के निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के केन्द्र सरकार ने मोटर-वाहन संशोधन विधेयक-2019 में जिस तरह के कानून बनाएं हैं, वह फिलहाल सकारात्मक परिणाम देने की बजाय सड़कों को और असुरक्षित बना रहे हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सड़क पर चलने वाले वाहनों के लिए बने कानून में भी लोकतंत्र होना चाहिए। लेकिन सरकार के नए कानून में सड़क और वाहन संबंधी नियम-कानून तोड़ने पर औसतन दस से बीस फीसदी तक जुर्माने का प्रावधान किया गया है। जमीनी स्तर पर कोई कानून तभी लागू हो पाता है जब वह लोकतांत्रिक हो। नया मोटर वाहन अधिनियम इस पर खरा नहीं उतरता है। सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के नाम पर सरकार तानाशाही पर उतर आई है।

राज्यसभा में मोटर वाहन विधेयक पर हुयी चर्चा का जवाब देते हुए सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि नए प्रावधानों को लागू करने का मकसद परिवहन व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाने और सड़क दुर्घटनाओं को कम करने का है। मोटर वाहन अधिनियम 1989 करीब 30 साल पुराना कानून है। यह आज की जरूरत को पूरा नहीं कर पा रह है। भारत में पहली बार सन् 1939 में मोटर वाहन अधिनियम पारित किया गया था। इस अधिनियम के तहत राज्य स्तर पर क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरण स्थापित किया गया था। क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकरणों के अधिकारियों को मोटर परिवहन उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा, सुविधा और आराम सुनिश्चित करने का अधिकार दिया गया था। लेकिन आज परिवहन कार्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर सड़कों पर अवैध वसूली परिवहन कार्यालयों के इशारे पर ही चल रही है। ऐसे कानून बना कर सारा दोष वाहन चालकों पर मढ़ दिया गया है।

केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी कहते हैं कि सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के मकसद से कठोर कानून बनाए गये हैं। किशोर नाबालिगों द्वारा वाहन चलाना, बिना लाइसेंस, खतरनाक ढंग से वाहन चलाना, शराब पीकर गाड़ी चलाना, निर्धारित सीमा से तेज गाड़ी चलाना और निर्धारित मानकों से अधिक लोगों को बैठाकर अथवा अधिक माल लादकर गाड़ी चलाने जैसे नियमों के उल्लंघन पर कड़े जुर्माने का प्रावधान किया गया है लेकिन सड़क दुर्घटनाओं के एक नहीं कई कारण हैं।

सड़क दुर्घटनाओं का पहला कारण शराब पीकर वाहन चलाना

सड़क दुर्घटनाओं का प्रमुख कारण है शराब पीकर वाहन चलाना। भारत में सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। पिछले दस साल की अवधि में सड़क हादसों में होने वाली मौतों में 42 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार पिछले दस साल में साढ़े चार लाख सड़क दुर्घटनाओं में 1 लाख 41 हजार से ज्यादा लोग मारे गए।
इतना ही नहीं हर साल इससे ज़्यादा बड़ी संख्या में लोग घायल होते हैं।  

सड़कों पर होनी वाली 99 फीसदी दुर्घटना शराब पीकर तेज गति से गाड़ी चलाना है। इसके बावजूद सरकार हाई-वे पर शराब की दुकानें धड़ल्ले से खुलवा रही है।

रैश ड्राइविंग

सड़क दुर्घटनाओं का दूसरा बड़ा कारण रैश ड्राइविंग है और इसी के चलते हमने चीन को भी सड़क दुर्घटनाओं के मामले में पीछे छोड़ दिया है। सड़क परिवहन मंत्रालय के अध्ययन के मुताबिक देश में 22 लाख वाहन चालकों की कमी है। इसके साथ ही 'देश में करीब 30 प्रतिशत ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं। फर्जी लाइसेंस बनने से रोकने और ड्राइवरों को प्रशिक्षण देने के लिए देशभर में 2,000 केंद्र और खोलने की योजना थी लेकिन अभी तक मात्र 28 ड्राइविंग परीक्षण केंद्र ही खोले गए हैं।

सड़कों का गलत डिज़ाइन

एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में सड़क दुर्घटनाओं का महत्वपूर्ण कारण सड़कों का गलत डिज़ाइन है। हमारे यहां शहरों की बसावट व्यवस्थित और मानक टाउनशिप प्लानिंग के तहत नहीं हुई होती। हमारा कोई शहर ऐसा नहीं है कि जहां पारम्परिक टेढ़ी-मेढ़ी गलियों को नये और आज के शहर में आत्मसात न किया गया हो। शहरों में ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी गलियां व हेरीटेज साइटें भी इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं की बड़ी वजह होती हैं। कई जगहों पर बीच सड़क में धार्मिक स्थलों की मौजूदगी भी हमारे यहां सड़क दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण होती है जबकि सऊदी अरब जैसे इस्लामिक राज्य में सड़कों को व्यवस्थित क्रम देने के लिए वहां दो दर्जन से ज्यादा मस्जिदों को रोड से साफ कर दिया गया।

भारत में छोटी-मोटी सड़कों की बात तो छोडिय़े राजमार्गों तक से किसी धार्मिक स्थल को इधर उधर नहीं किया जा सकता क्योंकि हम धार्मिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं। हमारी इसी तरह की अनदेखियां और उपेक्षाएं हमें सड़क दुर्घटनाओं का सरताज मुल्क बनाती हैं।
केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी कई अवसर पर यह स्वीकार कर चुके हैं कि देश में सड़क हादसों के लिये सड़क निर्माण की खामियां जिम्मेदार हैं। इसके लिये उन्होंने सड़क बनाने वाली कंपनी और इंजीनियरों की जवाबदेही तय करने की भी बात कही थी। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ।

गडकरी ने स्वीकार किया कि बतौर मंत्री पिछले पांच सालों में उनकी एकमात्र नाकामी सड़क हादसों में कमी नहीं ला पाना है। उन्होंने कहा कि तमाम प्रयासों के बावजूद वह सड़क हादसों में उम्मीद के मुताबिक कमी नहीं ला पाए।

पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी

130 करोड़ आबादी वाले देश में पब्लिक ट्रांसपोर्ट यानी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की हालत खस्ता है। अपने देश में सार्वजनिक परिवहन में बस और रेलगाड़ी ही हैं। देश के किसी कोने में रेलगाड़ी और सरकारी बसों में भी भारी भीड़ देखी जा सकती है। आज भी यात्रियों की पहली पसंद सार्वजनिक परिवहन ही है। लेकिन सरकारें जान-बूझ कर सार्वजनिक परिवहन की उपेक्षा में लगी हैं। सरकारी बसों की हालत जर्जर होने से प्राइवेट ट्रांसपोर्टरों का सड़कों पर राज चलता है। जिनका एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना है। ज्यादा फेरों के चक्कर में प्राइवेट बसों को बहुत तेज और असुरक्षित रूप से चलते देखा जा सकता है। सार्वजनिक परिवहन की दुर्दशा के कारण निजी वाहनों की भी संख्या बढ़ी है। जिस तेजी से देश में निजी वाहनों की संख्या बढ़ी है उस अनुरूप हमारे यहां सड़कें नहीं बन सकीं। लिहाजा हम न चाहते हुए भी सड़क दुर्घटनाओं को बढ़ाने में सहायक बन रहे हैं।

कानून का सम्मान या डर

हमारे देश में समाज के एक वर्ग में कानून का सम्मान या उसका डर कोई बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता है। प्रशासनिक असफलता और राजनीतिक भ्रष्टाचार से एक वर्ग में अपार समृद्वि आई है। बड़ी तेजी से धनाड्य हुआ यह वर्ग कानून और समाज से अपने को ऊपर समझ बैठा है। गलत तरीके से ओवरटेकिंग, बेवजह हॉर्न बजाना, निर्धारित लेन में न चलना और तेज गति से गाड़ी चलाकर ट्रैफिक कानूनों की अवहेलना आज के नवढनाड्य युवकों का प्रमुख शगल बन गया है। नवदौलतियों की बेलगाम बीएमडब्ल्यू कारें कभी फुटपाथ पर सो रहे प्रवासी मजदूरों को कुचल देती है तो कभी किसी झुग्गी में मर्सिडीज घुसकर दो चार जानें लेने के बाद ही आगे बढ़ती है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि कानून का लम्बा हाथ भी इनके गिरेबान तक नहीं पहुंचता है।

यातायात को नियंत्रित-व्यवस्थित करने के लिए कानून की कमी नहीं है। ट्रैफिक पुलिस का मुस्तैदी से काम करने की बजाय खुले आम घूस लेना उसी कार्य संस्कृति का हिस्सा है। विकास के साथ-साथ जिस सड़क संस्कृति की जरूरत होती है वह हमारे देश में अभी तक नही बन पाई है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे अंदर सड़क संस्कृति का निर्माण नहीं हो पाया है। एक दूसरे के सुविधाओं, अधिकारों का ख्याल हमारे चिंता का विषय नहीं हो पा रहा है।

व्यक्तिगत कार्यक्रमों के लिए सड़क के आवागमन को रोक देना आम बात है। इसके बाद जो कठिनाई उत्पन्न होती है उससे उन लोगों का कोई लेना देना नहीं होता है। सड़क पर थूकना, सरकारी ज़मीन का अतिक्रमण, बसों में धूम्रपान आम बात हो गई है। हमारे देश में लाइसेंसिंग प्रणाली इतना आसान है कि कोई भी आदमी आराम से कुछ पैसा खर्च करके ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर लेता है, चाहे गाड़ी चलाने में उसकी कुशलता न के बराबर हो । जब तक इस पूरी प्रक्रिया को सही नहीं किया जाएगा तब तक ऐसे ही सड़क दुर्घटना होती रहेगी जब तक सारे तंत्र की कमियों को नहीं सुधारा जाएगा,तब तक किसी न किसी रूप में अराजकता मौजूद रहेगी।

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