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कोयलांचल में बढ़ रहा पर्यावरणीय संकट

कोयला उत्पादन ने राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बिजली उत्पादन में कोयले की बदौलत मप्र जैसे कई राज्य आत्मनिर्भर होने का दावा कर रहे हैं। ...
coal mine

काला हीरा कहलाने वाली कोयले की खुदाई से उद्योग जगत व सरकार की तकदीर बदलने वाली कोयला खदानों ने गोफ क्षेत्र के रूप में बड़े पर्यावरणीय खतरे की जमीन तैयार कर दी है। प्रतिदिन करोड़ों रुपयों कमाने वाली ये कोयला कम्पनियाँ स्थानीय जनता को सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा प्रदान करने में कमजोर साबित हुई है। पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी कानूनों के बावजूद भूमिगत खदानों से कोयले का दोहन करके बड़े पैमाने पर जमीनों को खोखला छोड़ दिया जा रहा जिसके धसकने का डर हमेशा है।

कोयला उत्पादन ने राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बिजली उत्पादन में कोयले की बदौलत मप्र जैसे कई राज्य आत्मनिर्भर होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन प्रदेश के कई खदानों में कोयला निकाल लेने के बाद गोफ क्षेत्र तैयार हो गया है जो एक बड़ा कब्रगाह है। यंहा पर्यावरणीय असुरक्षा के साथ ही इन बंद कोयला खदानों से दबे छिपे कोयला व कबाड़ निकालने बेचने का काम जारी है जिसमें कई जानें जा रही है। मध्यप्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी हिस्सा कोयलांचल के रुप में खास पहचान रखता है। यहां के उमरिया, शहडोल और अनूपपुर जिलों से व्यापक मात्रा में कोयले का उत्खनन किया जाता है।

कोल इण्डिया की सबसे बड़ी कंपनी एसईसीएल द्वारा संचालित भूमिगत खदानों का यहां जाल बिछा हुआ है। इस क्षेत्र की कई खदानें बहुत पुरानी हैं, जहां आजादी के पूर्व से ही कोयले का खनन किया जाता रहा है। उमरिया की खान तो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की है। विन्ध्य क्षेत्र की जोहिला, सोहागपुर, जमुना-कोतमा और इसी से लगे छत्तीसगढ़ के हसदेव में समय-असमय खदान धसकने की घटनाएं प्रकाश में आती रही हैं।

आज भी कोयला खदानों में होने वाले दगानों (विस्फोटों) के कारण कई खदानों के ऊपर बसी आबादी निरंतर भय और खतरे में निवास कर रही है। दगानों की धमक ऊपर तक सुनाई देती है और उनके कारण इमारतों की दीवारें तक दरक जाती हैं। साथ ही सैकड़ों, नदी-नालों, कुएं -तालाबों की मौत हो चुकी है।

“गोफ” क्षेत्र में आने वाली खेती एवं आवास की भूमियों का कोयला कंपनियों ने अधिग्रहण तो कर लिया है, किंतु समुचित पुनर्वास नहीं होने के कारण अभी भी कई प्रभावित परिवार उस खतरनाक क्षेत्र में रहने को अभिशप्त हैं। सिर्फ अनूपपुर जिले में ही कुरजा, लोहसरा, सोमना, भगता, भवनिहा टोला जैसे कई गांव आज गोफ से प्रभावित हैं। कुरजा कोयला खदान से प्रभावित कई परिवार आज भी नौकरी व मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं । लोहसरा गांव के तालाब में मोटी दरार पड़ गयी तो कुछ साल पूर्व बारिश से भवनिहा टोला के खेत भी धंसक गए। बिजुरी नगर पालिका क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए अत्यंत कम ठोस भूमि बची है। बरसात का मौसम आते ही इस तरह के गोफ खुल जाते हैं जिससे हादसों का खतरा और बढ़ जाता है। इस समस्या पर स्थानीय नागरिकों के असंतोष के बाद ऐसे कई दरारों गङ्ढों को ऊपरी तौर पर मिट्टी से पाटकर  कंपनी अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेता है।

उमरिया नगर में ऐसे ही एक बड़े गोफ स्थान को प्रशासन द्वारा कृष्ण सरोवर ताल बनाने में लाखो खर्चने की कहानी आज भी चर्चित है। नौरोजाबाद मौहारपारा के बंद कोयला खदान से अवैध कोयला उत्खनन के मामले सामने आते रहे हैं। इसी के साथ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कोर्ट में जिले में जमीनें ख़राब होने के मामले पर एक याचिका भी लगाईं गई। लेकिन यह दशा केवल एक दो जिलों की नहीं है बल्कि इसी प्रकार धनपुरी कोयला खदान से कई वार्डों में दगानों के कारण इमारतें ध्वस्त हो चुकी हैं। इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में बढे पलायन के बीच इन खतरनाक जमीनों पर घर बनाकर रहने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। चूंकि कोयला खदान प्रबंधन का गोफ क्षेत्र में बाड़ लगाने पर विशेष ध्यान नहीं है इससे उस क्षेत्र में अचानक होने वाले खतरों तथा नए अपराध की जमीन बनी हुई है। इसी के साथ शहडोल बुढार के बटुरा गाँव में 35 अवैध लघु खदानों को बंद कराया गया है।

पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी नीतियों के अनुसार खुली खदानों में दोहन के पश्चात् भूमि का समतलीकरण,वृक्षारोपण तथा समूचे क्षेत्र को बाड़ के घेरना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार खदानों का कोयला निकालने के पश्चात् उनमें रेत मिटटी की भराई होनी चाहिए। ऐसे सभी खतरनाक क्षेत्र को चिन्हित करके उसे बाड़ लगाकर घेर देना चाहिए, ताकि किसी प्रकार के दुर्घटना से बचा जा सके। इसके साथ ही गोफ क्षेत्र में चेतावनी का बोर्ड भी लगाया जाना चाहिए। इधर भारत के योजना आयोग ने सन् 2031-2032 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) विकास दर 8-9 फीसदी बनाये रखने के लिए आवश्यक बिजली उत्पादन के लिए जो कोयला जरूरत बताई है वह 1475 से 1659 मिलियन टन के बीच होगी। यह मात्रा वर्तमान कोयला खपत 650 मिलियन टन प्रति वर्ष से दुगुने से ज्यादा है। आयातित कोयले की काफी ऊंची कीमत को देखते हुए बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए घरेलू स्तर पर ही अधिक कोयला उत्पादन करने का प्रयास हो रहा है। कोयला खनन सेक्टर की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इन 13 कोयला क्षेत्रों का सम्पूर्ण वनक्षेत्र भी निशाने पर होगा और खनन को बढ़ाने के लिए इन सभी वनक्षेत्रों को भी खोल दिया जायेगा।

कोयला खदान क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक संगठन श्रमिक समस्याओं से जुड़े मुद्दे तो उठाते हैं, किंतु गोफ क्षेत्र व पर्यावरणीय समस्याएं इन श्रमिक नेताओं की प्राथमिकता में नहीं है । अतः राज्य सरकार को अपना ध्यान कोयले की कमाई व टैक्स अर्जन सहित इन पर्यावरणीय स्थितियों में सुधार के लिए भी देनी होगी। सामाजिक संस्थाओं के लिए भी कोयलांचल में जन समुदाय पर पड़ने वाले स्वास्थ्य व पर्यावरणीय प्रभावों के व्यवस्थित अध्ययन की दरकार बनी हुई है।

 

नोट - लेखक जन मुद्दों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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