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कश्मीर का भविष्य क्या है?

घाटी में व्याप्त विरोध के लिए निश्चित रूप से विरोध प्रदर्शन की सामाजिक रज़ामंदी पर आंतरिक बातचीत का रास्ता खोलने के अलावा कोई दूसरा आसान विकल्प नहीं है।
कश्मीर का भविष्य क्या है?
Image Courtesy : Kamran Yousuf

कश्मीर की स्थिति को लेकर विडंबना का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार के पिछले पाँच वर्षों में यह सुर्खियों में बना रहा फिर भी यहाँ सबसे कम मतदान हुआ। लगता है कि कश्मीर ऐसे स्थान में प्रवेश कर गया है जहाँ से वापसी का रास्ता नहीं है।चाहे जो भी राजनीतिक दल सत्ता में हो  यह कश्मीरी मुसलमानों द्वारा आज़ादी के लिए तेज़ होती आवाज़ तथा आत्मनिर्णय और इसके जवाब में इस भारतीय राज्य में द्वारा बढ़ता दमन और रोज़मर्रा की हिंसा, उनके बीच चार दशकों से चल रहा एक बुनियादी गतिरोध है।

उदार लोकतंत्र में धरातल पर मौजूद स्थिति की तुलना में राजनीतिक संवाद तेज़ी से बदलता है और संघर्ष क्षेत्रों में ये स्थिति जारी रहती है लेकिन राजनीतिक संवाद प्रभावित होता है जहाँ यह शुरू हुआ था और इसलिए समाधान आसानी से नहीं होते हैं। कश्मीर का ये राजनीतिक संवाद आज़ादी की बिना शर्त घोषणा और एक अलग राष्ट्र-राज्य की मांग करते हुए कमोबेश ऐसा ही रहा है। कश्मीर को लेकर वैश्विक और राष्ट्रीय स्थिति बदलती रही है। क्या कश्मीर में राजनीतिक विरोध ने इन परिवर्तनों के बारे में अवगत कराया है? क्या वे कश्मीर में वर्तमान राजनीतिक संवाद से परिलक्षित होते हैं?

विश्व स्तर पर वर्ष 1993 में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार पर विएना कन्वेंशन के बाद इसकी आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई थी कि ग़ैर-औपनिवेशीकरण की अवधि समाप्त हो गई है और कोई कॉलोनियाँ नहीं हैं और आत्मनिर्णय अब विश्व में कहीं भी प्रमुखता से नहीं है। इसी तरह के अधिकांश संघर्ष जैसे कनाडा में क्यूबेक, चीन में तिब्बत और भारत में नागालैंड ने मामले को अधिक स्वायत्तता से सुलझाया है न कि आत्मनिर्णय या संबंध विच्छेद से।

भूमंडलीकृत दुनिया में वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंतर्संबंध के कारण भौगोलिक क्षेत्रों की फिर से कल्पना की जा रही है। निस्संदेह राष्ट्र-राज्यों के भीतर स्थान-विषयक मांगें जैसे कि अलग राज्यों के गठन से कोई परिणाम नहीं निकलते हैं। हाल में तेलंगाना के गठन का उदाहरण लिया जा सकता है। न तो किसान की आत्महत्या का मामला समाप्त हुआ है और न ही बेरोज़गारी की समस्या दूर की गई है। कुछ ही समय में तेलंगाना में असंतोष पनप रहा है और मैं समझता हूँ कि युवा अपने बुनियादी कुछ अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरेंगे।

विकास का वैश्विक मॉडल किसी भी विकल्प को जगह नहीं दे रहा है; इस मुद्दे को हल करने के लिए राजनीतिक पार्टी में महज़ परिवर्तन के लिए कृषि संकट और बेरोज़गारी प्राकृतिक रूप से कहीं अधिक गहरी और संरचनात्मक हैं। सड़कों पर पथराव करते हुए कश्मीर के युवा विकास के मॉडल पर चर्चा किए बिना अपनी दुर्दशा की उम्मीद करेंगे?

कश्मीर में निरंतर और अक्षुण्ण संघर्ष का ज़िम्मेदार शेख़ अब्दुल्लाह को बताया जाता है। लेकिन उनके द्वारा किए गए भूमि सुधारों को लेकर कश्मीरियों ने विरोध प्रदर्शन जारी नहीं रखा। यह तभी संभव हुआ है क्योंकि भयानक ग़रीबी नहीं है और निर्वाह योग्य जीवन संभव है। लेकिन यह आर्थिक गतिशीलता की तलाश कर रहे युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफ़ल रहा है।

इसी तरह जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और यासीन मलिक समाजवाद की बात करने के लिए जाने जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। हुर्रियत ने कभी भी अलगाववाद की अपनी बयानबाज़ी से परे विकास के मॉडल पर कोई गंभीर संवाद नहीं किया। हुर्रियत ख़ुद युवा पीढ़ी में अपनी वैधता के संकट से जूझ रहा है।

वास्तव में घाटी में कोई विश्वसनीय नेतृत्व नहीं है जो बढ़ते असंतोष को एक सार्थक दिशा दे सके। पाकिस्तान के साथ गठजोड़ करने का विकल्प अब कोई आकर्षक विकल्प नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ख़ुद आर्थिक संकट और जिहादी आतंक का शिकार है। घाटी में असंतोष की प्रकृति पाकिस्तान में राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से मेल नहीं खाती है। धार्मिक राष्ट्रवाद कुछ हद तक इस ख़ाली स्थान को भरने में कामयाब रहा है हालांकि कश्मीर का धार्मिक चरित्र इस तरह के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पूरी तरह स्वीकार नहीं करता है। निस्संदेह यहाँ कश्मीर ख़ुद के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है। इस्लाम के चरित्र में गहरी आस्था के बजाय भारत की मुख्य भूमि के सशक्त राष्ट्रवाद को पीड़ा पहुँचाने के लिए युवा आईएसआईएस का झंडा उठाते हैं। बुरहान वानी (मारा गया हिजबुल कमांडर) घाटी का हीरो और एक नए युग का प्रतीक न केवल अपनी मौत को लेकर बल्कि अमरनाथ यात्रा के लिए अपने सहयोग की भावना व्यक्त करने को लेकर भी बन गया। सांस्कृतिक संगम के लिए ये तड़प धार्मिक राष्ट्रवाद की विशिष्टता के साथ नहीं हो सकती।

आंतरिक रूप से कश्मीर के कुलीन लोग इस संघर्ष का नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं हैं। सभी संघर्ष क्षेत्रों की तरह चाहे पूर्वोत्तर हो या मध्य भारत कश्मीर में भी भ्रष्ट कुलीन वर्ग है जो विकास पैकेजों और इस भारतीय राज्य के बड़े पैमाने पर उदारता से विकसित हुआ है। घाटी में राजनीतिक, नौकरशाही और व्यवसायिक अभिजात वर्ग के बीच सांठगांठ शायद भारत की मुख्य भूमि की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत है। इस भारतीय राज्य ने घनिष्ट मित्र कुलीन वर्ग के माध्यम से घाटी में संरक्षण और स्थिति को नियंत्रित करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। स्थानीय पुलिस और उग्रवादियों के बीच संघर्ष का हालिया वाक़या उस तबाही का एक उदाहरण है जो बाहर की दुनिया के लिए महसूस और दिखाई देने वाली निर्भीक प्रतिबद्धता में मौजूद है।

घाटी में व्याप्त विरोध के लिए निश्चित रूप से विरोध प्रदर्शन की सामाजिक रज़ामंदी पर आंतरिक बातचीत का रास्ता खोलने के अलावा कोई दूसरा आसान विकल्प नहीं है जिसमें पुंछ और राजौरी के सीमावर्ती क्षेत्रों के गुज्जर और पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़, लद्दाख के मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचलित पूर्वाग्रह शामिल हैं जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच व्यापक विभाजन की प्रकृति, घाटी में वर्गवाद और नस्लवाद की प्रकृति, लिंग और महिलाओं के स्थान के सवाल, संस्थानों और पदानुक्रम की आंतरिक प्रकृति जो किसी भी स्वतंत्र विचार की अनुमति नहीं देता, विकास का मॉडल जो कि समावेशी हो सकता है, कश्मीरी पंडितों और अन्य सभी ग़ैर-मुस्लिम समुदायों के लिए जगह जो घाटी में अल्पसंख्यक हैं ऐसे कई अन्य मुद्दों में शामिल हैं। राज्य से जुड़ा स्वयं संप्रभु भी प्रकृति रूप से बेहद सामाजिक है। इस तरह के संवाद को खोलने से उन विकल्पों का मार्ग प्रशस्त होगा जिनका हम फ़िलहाल स्पष्टता से कल्पना नहीं कर सकते हैं।

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल साइंस में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने हाल ही में 'इंडिया आफ़्टर मोदी: पॉपुलिज़्म एंड द राइट’ पुस्तक लिखी है। इस लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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