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कश्मीरियों को विश्वास नहीं रहा कि केंद्र उनकी बात सुनेगा : कपिल काक

मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता का कहना है कि कश्मीर में लोग अपने नागरिक अधिकारों के हनन को लोकतंत्र, राजनीति का अंत और अपनी उम्मीदों की मौत के रूप में देख रहे हैं।
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एयर वाइस मार्शल कपिल काक (सेवानिवृत्त), फ़ोटो साभार: द वायर

एयर वाइस मार्शल कपिल काक (सेवानिवृत्त), सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज के पूर्व उप निदेशक, उन याचिकाकर्ताओं में से एक हैं, जिन्होंने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। काक, जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार फोरम के सदस्य हैं, हाल ही में ईमेल के ज़रिए न्यूज़क्लिक से उनकी बात हुई। फोरम ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट, 'थ्री इयर्स एज़ ए यूनियन टेरिटरी: ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर' में, पूर्व राज्य में केंद्र सरकार की भारी-भरकम रणनीति की आलोचना की है। वे कश्मीरी पंडित संघर्ष समुदाय के अध्यक्ष संजय टिक्कू द्वारा हाल ही में पंडितों के घाटी से बाहर जाने के आह्वान को इस क्षेत्र के प्रति केंद्र सरकार की नीतियों के "कड़े आरोप" के रूप में देखते हैं। पेश हैं संपादित अंश:

सरकार का दावा है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में सामान्य स्थिति लौट आई है, लेकिन आपकी नवीनतम रिपोर्ट बहुत अलग स्थिति को दर्शाती है। क्या आप इस बात पर प्रकाश डाल सकते हैं कि यह भिन्नता क्यों मौजूद है?

"सामान्य स्थिति की वापसी" के दावे के लिए समय-मीट्रिक के सह-संबंध की जरूरत है। अनुच्छेद 370 को हटाने के तुरंत बाद, कुछ भी सामान्य नहीं था: पूरे राजनीतिक नेतृत्व को  कैद कर लिया गया था, संचार बंद कर दिया गया था, राज्य में सविनय अवज्ञा आंदोलन जारी था, व्यापार और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को बंद कर दिया गया था, स्वास्थ्य सेवाएं टूट गई थी, शिक्षा क्षेत्र बंद कर दिया गया था, और सार्वजनिक परिवहन, वगैरह पटरी से उतर गया था। इन क्षेत्रों में सामान्य स्थिति काफी हद तक 5 अगस्त 2019 से पहले की स्थिति में लौट आई है।

लेकिन दूसरी तरफ, राज्य में नेताओं और राजनीतिक हस्तियों को निवारक हिरासत में लिया गया था और उनकी एक बड़ी संख्या जेल में रही, कुछ राज्य के बाहर ही रह गए थे। उग्रवाद के कारण आम नागरिकों की मृत्यु असामान्य रूप से अधिक थी। आतंकवाद विरोधी और राजद्रोह कानूनों को राजनीतिक नेताओं और पत्रकारों के खिलाफ असमान रूप से लागू किया जा रहा है। कथित तौर पर पुलिस उत्पीड़न, डराने-धमकाने और मनमाने ढंग से हिरासत में लिए जाने के जरिए प्रेस की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसा जा रहा है। जैसा कि [पूर्व मुख्यमंत्री] महबूबा मुफ्ती ने ठीक ही कहा था, “दिल्ली की सामान्य स्थिति की तलाश में जम्मू-कश्मीर का हर निवासी तोप का निवाला बन गया है।”

आप घाटी में वर्तमान मानवाधिकार स्थिति का वर्णन कैसे करेंगे और वहां रहने वाले लोग इस स्थिति को कैसे देखते हैं?

जैसा कि हम अपनी रिपोर्ट में औसत रूप से देखते हैं, लोग नागरिक अधिकारों (अभिव्यक्ति और सभा की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार, नियमित स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का अधिकार और स्वतंत्र प्रेस का अधिकार) से वंचित कर उनका लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है और यहाँ के लोग इसे राजनीति का अंत तथा उम्मीदों की मौत मानेट अहीन जो स्पष्ट संकेत है कि केंद्र अब कश्मीरियों की नहीं सुनेगा।

उदारवादी हुर्रियत नेता, मीरवाइज उमर फारूक को पिछले तीन वर्षों में 156 शुक्रवारों में से किसी पर भी मशहूर जामा मस्जिद में उनके साप्ताहिक उपदेश देने की अनुमति नहीं दी गई और इस पूरे समय में वे घर में नजरबंद रहे हैं।

पत्रकारिता एक बहुत ही प्रतिकूल पारिस्थितिकी तंत्र का सामना कर रही है, और मीडिया से जुड़े लोगों में अत्याधिक भय की भावना है। लोग अब मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खंबे के रूप में नहीं देखते हैं। लोग बता रह हैं कि मीडिया और नागरिक समाज समूहों पर कार्रवाई बेरोकटोक जारी है, जिसमें कठोर आतंकवाद और अन्य कानूनों जैसे धन शोधन निवारण अधिनियम, 2003, सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, 1967 शामिल हैं। केंद्र शासित प्रदेश सरकार की नई मीडिया नीति, 2020 ने समाचारों को सेंसर करना आसान बना दिया है।

आपकी टीम ने जम्मू और घाटी में कश्मीरी पंडित समुदाय के सदस्यों का भी साक्षात्कार लिया है। क्या आप कश्मीर फाइल्स फिल्म के बारे में बात कर सकते हैं और इसने कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के बीच संबंधों को कैसे प्रभावित किया है, जो 1990 के दशक के बाद खराब हो गए थे।?

हमारी रिपोर्ट इस मुद्दे को बहुत विस्तार से संबोधित करती है। बॉलीवुड फिल्म द कश्मीर फाइल्स उन असहाय पंडितों की प्रशंसापत्र और कहानियों पर आधारित है, जो एक पवित्र भूगोल में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के अपने सहस्राब्दी-लंबे भू-सांस्कृतिक मोज़ेक से बाहर निकल गए हैं। इस कहानी को बताना जरूरी था। लेकिन चिंताजनक पहलू पर, फिल्म घाटी के बहुसंख्यक समुदाय के तीन दशकों से अधिक के दर्द और पीड़ा को बदनाम करने, और उसे  अवैध दिखाने का प्रयास करती है, जिसके दौरान इसके हजारों युवा मारे गए थे।

ज़ाहिर है, बहुसंख्यकवाद के लिए पंडितों के उत्पीड़न को एक कच्चे राजनीतिक-वैचारिक और व्यावसायिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। शेष भारत में पंडित प्रवासियों द्वारा फिल्म के उल्लास और उत्सव ने कश्मीर में सह-अस्तित्व की भावना को धूमिल कर दिया, जो शायद वापस आ रहा था लेकिन ऐसा लगता है कि यह सह-अस्तित्व फिर से भंग हो गया है।

मोटे तौर पर 4,500 कश्मीरी पंडित पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 2010 के रोजगार पैकेज का हिस्सा थे और घाटी लौट आए थे। वर्तमान शासन द्वारा इसे फिर से शुरू किया गया, यह लौटने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए सुरक्षित घरों का भी वादा करता था। लेकिन कई लोगों ने जम्मू लौटने का फैसला किया है। क्या आप इस परिदृश्य की व्याख्या कर सकते हैं?

हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि 4,000 पंडित जो कभी भी घाटी से बाहर नहीं गए, वे तीन दशकों में लगभग सौ स्थानों पर रहे हैं, हमेशा अपने बहुसंख्यक भाइयों की चौकस निगाह में। नदीग्राम [2003 में कश्मीरी पंडितों की हत्या] संहार के बाद से 18 वर्षों तक, किसी भी पंडित को निशाना नहीं बनाया गया था। लेकिन अक्टूबर 2021 में एक लोकप्रिय मेडिकल स्टोर के मालिक एमएल बिंदू की हत्या ने उनके बीच असुरक्षा और भेद्यता का डर पैदा कर दिया है। प्रधानमंत्री पैकेज कर्मचारी राहुल पंडिता की हत्या का असर ऐसे कर्मचारियों पर कहीं ज्यादा पड़ा है। उनमें से लगभग पचास प्रतिशत ने काम बंद कर दिया है और जम्मू की सापेक्ष सुरक्षा में चले गए हैं।

पंडित बागवान, सुनील कुमार भट की 16 मार्च को हुई घातक गोली मारकर हत्या और उनके रिश्तेदार पीतांबर नाथ भट को गोली लगने से हुई गंभीर चोट ने इस छोटे से समुदाय को  एक बार फिर स्तब्ध कर दिया है। कभी पलायन नहीं करने वाले कश्मीरी पंडित संघर्ष समुदाय के अध्यक्ष संजय टिक्कू ने सरकार पर कड़ा आरोप लगाते हुए कहा कि जहां पर्यटक और अमरनाथ यात्री सुरक्षित हैं, वहीं गैर-स्थानीय मुसलमान और कश्मीरी पंडित आतंकवादियों के निशाने पर हैं। उन्होंने पंडितों से घाटी छोड़ने का आह्वान किया है। यह देखा जाना बाकी है कि इस तरह की अपील उस समुदाय के साथ कैसे प्रतिध्वनित होती है और कैसे आगे बढ़ती है।

कुलगाम में वेसु शिविर में एक व्यक्ति ने बताया है कि शिविर के 60 प्रतिशत निवासी जम्मू के लिए रवाना हो गए हैं।

शायद इससे अधिक लोग वेसु प्रवासी स्थान से बाहर चले गए हैं, लेकिन सभी शिविरों का कुल आंकड़ा लगभग 40-50 प्रतिशत है।

मोदी सरकार ने अक्सर इस बात पर प्रकाश डाला है कि यह कैसे कश्मीरी पंडितों की वापसी की सुविधा प्रदान कर रही है। लेकिन उनके लिए बनने वाले 6,000 घरों में से अब तक 1,025 ही बन पाए हैं।

हां, यह जानना बहुत उत्साहजनक था कि 2014 में सत्ता में आई राजनीतिक व्यवस्था ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी जम्मू-कश्मीर नीति का केंद्रीय मुद्दा बना दिया था। लेकिन ब्रिटिश कवि टीएस एलियट की व्याख्या करने के लिए विचार और वास्तविकता के बीच एक छाया पड़ गई है। लौटने वाले पंडितों को सरकारी नौकरी प्रदान करने की 2010 की नीति 2015 में 6,000 कर्मचारियों के लिए सुरक्षित और गेटेड अस्थायी आवास के निर्माण को शामिल करने के लिए दोबारा तैयार की गई थी। लेकिन जैसा कि आप कह रहे हैं, कि अब तक केवल 1,025 गहरों का निर्माण किया गया है-यह तथ्य पंडितों के लिए भारी निराशा का कारण है।

आपकी रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर में 3,900 पंचायत सदस्यों के सामने आने वाली जबरदस्त बाधाओं को उजागर करती है। एक तथ्य यह कि, उनमें से कई को आतंकवादियों ने गोली मार दी है। क्या हम जान सकते हैं कि ऐसी कितनी हत्याएं हुई हैं?

हां, आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम करने वाले 3,900 पंचायत सदस्यों को कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। 2012-22 के दौरान उग्रवादियों ने 26 सरपंचों और पंचों की हत्या कर दी है। 

पंचायत सदस्यों ने आपके मंच से शिकायत की थी कि इन हमलों के बाद उनके आंदोलनों को गंभीर रूप से रोक दिया गया था, जिससे जनता के साथ उनकी बातचीत पर रोक लगा दी गई थी।

हां, कुछ पंचायत सदस्य पाबंदियों की शिकायत जरूर करते हैं। ऐसा लगता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल के साथ गठबंधन करने वाले सदस्यों में भेद्यता की अधिक भावना पैदा हुई है। दूसरी ओर, अपने संगठनात्मक नेताओं के साथ बातचीत के दौरान जो धारणा बनती है, वह यह है कि सदस्य मौजूदा सुरक्षा स्थिति में जितना हो सके अपने काम को बेहतर तरीके से कर रहे हैं।

कई लोग शिकायत कर रहे हैं कि उनके पास जमीन पर काम करने की ताक़त नहीं है। दूसरों की शिकायत है कि नौकरशाही उन्हें हाशिए पर रख रही है। आम लोग इन निर्वाचित प्रतिनिधियों को कैसे देखते हैं?

हां, पंचायत सदस्यों के बीच व्यापक भावना यह है कि उन्हें वादे के अनुसार अधिकार नहीं दिया गए हैं। सर्वशक्तिमान नौकरशाही, खासकर जब राज्य और फिर केंद्र शासित प्रदेश चार साल से अधिक समय से प्रत्यक्ष केंद्रीय शासन के अधीन हैं, वह पंचायतों को शक्तियां सौंपने में कोताही बरत रही हैं, जिनके सदस्य स्पष्ट रूप से खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं।

कई पंचों और सरपंचों को कोई प्रशिक्षण नहीं मिला है और लोग उन्हें नौसिखिए या रबर स्टैंप के रूप में देखते हैं। क्या इससे सार्वजनिक रूप से उनके प्रति सनक बढ़ गई है?

हां, यह सच है कि सरपंचों और पंचों को दस्तावेजीकरण और नियमों की बुनियादी जानकारी के अलावा कोई सार्थक प्रशिक्षण नहीं मिला है। उनमें से कुछ को भारत के बाकी हिस्सों में चुनिंदा जगहों पर ले जाने का वादा किया गया था, जहां पंचायतें कुशलतापूर्वक काम करती हैं, वह भी फलीभूत नहीं हुई हैं। लेकिन जिस व्यापक स्थिति और परिस्थितियों में पंच काम करते हैं, उसे देखते हुए, जिन्होंने उन्हें चुना है, वे उनके बहुत निंदक नहीं हैं।

क्या केंद्र सरकार पंचायत चुनावों का इस्तेमाल तत्कालीन राज्य में राजनीतिक दलों के अवमूल्यन और उन्हें दरकिनार करने के लिए करना चाहती थी? क्या 'प्रयोग' सफल हुआ है?

घाटी के लोग इन प्रयासों को 'मुंगेरीलाल के सपने' कहते हैं, जिनका हक़ीक़त से कोई लेना देना नहीं है। आखिरकार, राष्ट्रव्यापी, शासन के तीन अलग-अलग स्तर मौजूद हैं: पंचायत, जिला या ब्लॉक स्तर के प्रशासन, और फिर राज्य या केंद्र शासित प्रदेश-स्तर की विधायिका। यह कल्पना करना व्यर्थ होगा कि ये एक दूसरे की जगह ले सकते हैं!

आपकी रिपोर्ट 2021 में जम्मू में आयोजित एक रियल एस्टेट शिखर सम्मेलन को संदर्भित करती है, जिसके बाद श्रीनगर में एक और सम्मेलन होना था। कश्मीर में भूमि संबंधी मुद्दों  इसके बारे में आपको क्या प्रतिक्रिया मिली है?

हां, अपनी तरह का पहला रियल एस्टेट शिखर सम्मेलन पिछले साल जम्मू में आयोजित किया गया था। लेकिन भूमि उपयोग और सर्किल दरों पर सरकार की नीति पर स्पष्टता की कमी के कारण, रियल एस्टेट खिलाड़ी निवेश करने से कतराते हैं। खुद की भूमि (जहां पानी निकलता है) पर कारखानों या भवनों के निर्माण की अनुमति, अब अनुमति नहीं है। यह एक और बाधा डालता है। ऐसा लगता है कि जम्मू चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने इन मुद्दों पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है, लेकिन आगे की गति धीमी रही है, जिससे जम्मू व्यवसायी समुदाय पूरी तरह से निराश है। अक्टूबर 2022 में श्रीनगर में एक और रियल एस्टेट शिखर सम्मेलन निर्धारित है। यह देखा जाना बाकी है कि इससे कौन से मुद्दे निकलेंगे।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को नीचे दिए लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता हैः

Kashmiris no Longer Believe the Centre Will Listen to Them—Kapil Kak

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