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हिमाचल प्रदेश की बल्ह घाटी को क्यों हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहित नहीं किया जाना चाहिए?

अगर इस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को बनाया जाता है तो आठ गाँवों के करीब 10,000 लोग, जिनमें दलितों और ओबीसी तबकों से जुड़े बहुसंख्यक किसान हैं, सबको राज्य की सबसे अधिक उपजाऊ घाटी में से अपनी खेती योग्य जमीनों से हाथ धोने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
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“बल्ह” एक पहाड़ी संकेतार्थ है जिसका हिमाचल प्रदेश की स्थानीय बोली में आशय समतल भूमि से है। यह मंडी जिले के एक क्षेत्र का नाम भी है जहाँ पर एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण कार्य प्रस्तावित है, और इस क्षेत्र के निवासियों द्वारा इसके खिलाफ सुस्पष्ट प्रतिरोध खड़ा किया गया है। उनकी माँग है कि राज्य के सबसे उपजाऊ भूमि क्षेत्रों में से एक में हवाई अड्डे का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन क्यों?

केंद्र सरकार की इस परियोजना का विरोध किये जाने के कई कारण हैं, जिसको लेकर राज्य सरकार बेहद उत्सुक प्रदाता बनी हुई है। राज्य के मुख्यमंत्री मंडी जिले से आते हैं और इस प्रोजेक्ट के प्रबल समर्थकों में से हैं। हालाँकि इसके विरोध के कारणों में पारिस्थितिकी, सामाजिक, आर्थिक और वे सभी चीजें शामिल हैं जो इस क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका की स्थिरता से जुडी हुई हैं।

इस परियोजना को समझने से पहले बेहतर होगा कि इस क्षेत्र के इतिहास के बारे में पता लगाया जाए, खासतौर पर यह कि किस प्रकार से इस भूमि को जमींदारों के खिलाफ सतत संघर्षों के बाद जाकर सुरक्षित किया जा सका था और फिर इसे एक झील में परिवर्तित किये जाने या डूबने से बचाया गया था।

बल्ह क्षेत्र मंडी के सुकेत रियासत के अधीन हुआ करता था, एक ऐसा क्षेत्र जिसे जमींदारों के खिलाफ “जमीन खेत जोतने वाले की” नारे के साथ आन्दोलन चलाए जाने के नाम से विख्यात रहा है। किसान सभा इस आन्दोलन की पथ प्रदर्शक हुआ करती थी और बाद में इसी आन्दोलन की वजह से यहाँ पर सफलतापूर्वक भूमि सुधारों को लागू किया जा सका था। यह क्षेत्र राज्य के सर्वाधिक कृषि उत्पादक क्षेत्रों में से एक है। यहाँ पर भूजल-स्तर काफी ऊँचा (करीब 10-15 फीट) है और जमीन बेहद उपजाऊ है। किसानों ने खेत हासिल करने के बाद (भूमि सुधारों के जरिये) व्यावसायिक खेती की ओर रुख किया था और साल भर वे गैर-मौसमी सब्जियों की उपज को उगाते हैं, जिसके चलते उनकी आय में गुणात्मक वृद्धि हुई है। बल्ह घाटी के बंगरोटू स्थित इंडो-जर्मन कृषि परियोजना ने इस परिवर्तन में व्यापक प्रभाव डालने का काम किया है।

अभी तक यह घाटी करीब 10,000 लोगों और 2,200 परिवारों का घर रही है। यदि इस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को निर्मित किया जाता है तो ये सभी अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे और उन्हें इस इलाके से पलायन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पशुपालन एवं इस क्षेत्र की सम्पूर्ण जैव-विविधता पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ने जा रहा है।

हिमाचल का एक बड़ा हिस्सा खेतीबाड़ी के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश भूभाग चट्टानी-पहाड़ों एवं जंगलों से आच्छादित है, जिसमें लगभग 67% इलाका जंगलों के अंतर्गत आता है। कुल भूमि का मात्र 14% हिस्सा ही खेती के लिए उपलब्ध है। इन स्थितियों के बावजूद खेती योग्य जमीनों के एक बड़े हिस्से को पहले से ही ‘राष्ट्रीय हितों’ – जल-विद्युत् उत्पादन एवं बड़े बाँधों के नाम पर गँवा दिया गया है, जिसके चलते राज्य में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ खेती योग्य जमीनें जलमग्न अवस्था में हैं।

दो बड़े बाँध, बिलासपुर जिले में भाखड़ा और कांगड़ा में पोंग बाँध के बन जाने से अभी तक हजारों परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है। चार दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद अभी तक उन्हें पुनर्वासित नहीं किया जा सका है। उनमें से कुछ को, जिन्हें राजस्थान भेजा गया था, लेकिन उन्हें भी खाली हाथ वापस लौटना पड़ा है। राज्य में खेती योग्य करीब 6 लाख हेक्टेयर उपलब्ध भूमि में से करीब 1 लाख हेक्टेयर भूमि को इन परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित कर लिया गया था। तत्पश्चात फोर-लेन सड़कों के विस्तार एवं ट्रांसमिशन टावरों को बिछाने के नाम पर किसानों से और जमीनें अधिग्रहित की गईं। इस प्रकार की पृष्ठभूमि में राज्य में छोटे किसानों के लिए अपनी जमीनों को सुरक्षित रख पाना एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाता है, अन्यथा उनके लिए अपनी आजीविका से हाथ धोने का खतरा बना हुआ है। 

इस बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि ब्यास सतलुज लिंक को लेकर शुरूआती प्रस्ताव में (ब्यास को मंडी के पंडोह बाँध से डाइवर्ट किया जा रहा था और एक भूमिगत सुरंग को बल्ह घाटी के जरिये एक बड़ी नहर और इसके बाद इसे सतलुज में समाहित होना था- जिसे ब्यास सतलुज लिंक नाम दिया गया था)। इसे एक झील के तौर पर प्रस्तावित किया गया था, बजाय कि नहर के घाटी से गुजरने के। इस प्रस्ताव को 1962 में प्रस्तावित किया गया था। लेकिन लोगों और बल्ह से (1972-77) में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) विधायक रहे तुलसी राम की ओर से कड़े विरोध का सामना करने के कारण इस प्रस्ताव को ठन्डे बस्ते में डालना पड़ा था, और इस प्रकार इस भूमि को बचाया जा सका था।

इसके अलावा यह वह क्षेत्र है जिसे बाढ़ क्षेत्र के तौर पर नामित कर रखा गया है और यह इलाका कई बार बाढ़ग्रस्त रहा है। लेकिन इसके बावजूद ऐसी जगह पर हवाई अड्डे के निर्माण का प्रस्ताव हैरान करने वाला है।
प्रस्तावित हवाई अड्डे के कारण आठ गाँव पूरी तरह से नक़्शे से गायब हो जायेंगे और इसमें करीब 3,500 बीघे की जमीन (1 हेक्टेयर = 12 बीघा) अधिग्रहित करनी होगी, जिसमें से 3,040 बीघे जमीन का स्वामित्व किसानों के पास है और 460 बीघा सरकारी भूमि है। तकरीबन 2,000 घरों को धराशायी करना पड़ेगा।

इतना ही नहीं तकरीबन 12 हेक्टेयर की सीमांकित की हुई वन संपदा को भी काटना होगा, जो कि सदियों पुराने जंगल हैं और विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों एवं अन्य वनस्पतियों का निवास-स्थल हैं। यह अधिग्रहण एक प्रकार से भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013 का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए बहु-फसलीय बुवाई वाली जमीन को अधिग्रहित नहीं किया जाना चाहिए।1

हवाई अड्डे का मुख्य उद्येश्य इसके बावजूद पूरा नहीं हो सकेगा। बड़े हवाई जहाजों की लैंडिंग के लिए इसे इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है, क्योंकि उसके लिए 3,150 मीटर लंबी हवाई पट्टी की जरूरत पड़ती है। जबकि यहाँ पर हवाई-पट्टी को 2,150 मीटर से अधिक लंबा नहीं बनाया जा सकता, और ऐसे में सिर्फ 75 सीटों वाले हवाई जहाज के लायक ही जगह यहाँ पर उपलब्ध है। इस प्रकार के विमानों की लैंडिंग के लिए यहाँ से 50-किलोमीटर के आसपास के क्षेत्र में ऐसे तीन हवाई अड्डे: शिमला-50किमी, भुंटर (कुल्लू)-30 किमी और गग्गल (कांगड़ा) -50किमी पहले से ही मौजूद हैं। 

इसके अलावा इन आठ गाँवों में से छह में 75% आबादी दलितों एवं 20% ओबीसी की है। भूमि सुधार आंदोलनों के चलते जिन अधिसंख्य लोगों को जमीने हासिल हुई थीं उनमें दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग बहुतायत में थे। यह कदम उन्हें भूमिहीन के तौर पर तब्दील कर देगा।

किसानों एवं अन्य वर्गों के लोग सरकार के इस एकतरफा कदम के खिलाफ लगातार आवाज उठाते रहे हैं, वो चाहे केंद्र के खिलाफ हो या राज्य सरकार के। ‘बल्ह बचाओ किसान संघर्ष समिति’ के झंडे तले इस समूचे क्षेत्र में कई सफल विरोध प्रदर्शनों को आयोजित किया जा चुका है।

इस क्षेत्र के किसानों द्वारा हाल ही में एक सफल मानव श्रृंखला का आयोजन भी किया गया था। सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं सहित समाज के विभिन्न तबकों के लोगों को बल्ह घाटी के आंदोलनकारी लोगों की माँग को अपना समर्थन दिए जाने की आवश्यकता है, ताकि सरकार के प्रस्ताव में बदलाव किये जाने को प्रभावी बनाया जा सके।


लेखक शिमला, हिमाचल प्रदेश के पूर्व डिप्टी मेयर रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
 

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