Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

भारत में भूख की अंतहीन छाया

जंगल में रहने वाले जनजातीय समूहों से लेकर बड़े शहरों में रोजाना कमाने खाने वाले मज़दूरों तक, भारत में पिछले साल भूख ने लाखों भारतीयों को बुरे तरीके से प्रभावित किया। यह हालात तब बने, जब केंद्र सरकार के पास बेहद बड़े पैमाने पर अनाज का भंडार उपलब्ध था।
hunger

कोविड-19 महामारी और सरकार की संवेदनहीन व गलत तरीके से दी गई प्रतिक्रिया से भारत के लोग बर्बादी में झोंक दिए गए। लगातार लॉकडाउन लगाए जाने से नौकरियों और आय के नुकसान से आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे मरने की कगार पर आ गया। इस बीच कमजोर प्रशासन ने खाद्यान्न और कुछ आर्थिक मदद के ज़रिए आबादी के सिर्फ़ कुछ ही हिस्से को अपर्याप्त मदद पहुंचाई। लोगों द्वारा घास और जंगली कंद खाने, पड़ोसियों और दानार्थ संस्थानों से खाने की भीख मांगने, भयावह ब्याज़ दरों पर सिर्फ़ जिंदा रहने के लिए कर्ज़ लेने से लेकर खाने में कटौती करने की भयावह कहानियां हमारे सामने आईं। वन घूमंतू जनजातियां, भूमिहीन कृषि कामग़ार, औद्योगिक कामग़ार और अनौपचारिक क्षेत्र या निर्माण व सत्कार क्षेत्र में दैनिक भत्ते पर काम करने वाला वर्ग सबसे बुरे तरीके से प्रभावित हुआ। 

जंगली घूमंतू पुलयार समुदाय से आने वाली भुवनेश्वरी अपने परिवार के साथ तमिलनाडु स्थित अन्नामलाई टाइग रिज़र्व में रहती हैं। वे लॉकडाउन में लागू प्रतिबंध के चलते ना तो खुद के द्वारा इकट्ठा किया गया वन उत्पाद बेच पाईं और ना ही राशन कार्ड के आभाव में सरकारी मदद ले पाईं। उनका परिवार जंगली कंदों से बने दलिये के ज़रिए अप्रैल और मई, 2021 में अपना भरण-पोषण कर पाया। 

भुवनेश्वरी ने न्यूज़क्लिक को बताया, "मैं हर सुबह जंगल में 10 किलोमीटर चलती, ताकि उत्पाद इकट्ठा कर सकूं। उत्पाद वाली जगह पर पहुंचने के लिए हमें दो घंटे लगते हैं। हम सुबह 8 बजे शुरू करते और शाम 5 बजे वापस आते। लॉकडाउन के दौरान हमने मूंगफली लगाई थीं। हमने मूंगफलियों को इस आशा में इकट्ठा किया था कि हम उन्हें बाद में मंडी में बेच पाएंगे।"

दक्षिण तमिलनाडु में भुवनेश्वरी और उनका परिवार, जो लॉकडाउन के दौरान अप्रैल और मई 2021 में जिंदा रहने के लिए पूरी तरह जंगली कंद के दलिये पर निर्भर था. (फोटो: श्रुति एमडी)

भुवनेश्वरी परेशान होकर पूछती हैं, "लेकिन हम इस दलिये पर कितने दिन जिंदा रह पाएंगे।"

भारत में कई दूसरे आदिवासी समुदायों की तरह, भुवनेश्वरी के परिवार की आय सिर्फ़ लघु वनोपज पर निर्भर करती है। लॉकडाउन के दौरान सार्वजनिक यातायात बंद होने से इन परिवारों की आय बुरे तरीके से प्रभावित हुई और उनका संपर्क बाकी के समाज से टूट गया। तमिलनाडु में इसी तरह के 40,000 परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है, जबकि राशन कार्ड के ज़रिए ही उन्हें सब्सिडी पर खाद्यान्न अनाज़ मिल पाता। 

रिकॉर्ड पैदावार, फिर भी कृषि कामग़ार भूखे

भूमिहीन कामग़ारों और सीमांत किसानों को भी इस संकट में बहुत संकट झेलना पड़ा। हालांकि किसानी से जुड़े काम साल भर चलते रहे और भारत में रिकॉर्ड 395 मिलियन टन के खाद्यान्न अनाज का उत्पादन हुआ, लेकिन कृषि कामग़ारों के भत्तों और वंचित किसानों को मिलने वाला कमतर लाभ भी बुरे तरीके से घट गया। उनका कर्ज़ बढ़ गया। भारत में करीब़ 14 करोड़ भूमिहीन मज़दूर हैं।

पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना इलाके से आने वाले सीमांत किसान मोहम्मद खान के पास ढाई बीघा ज़मीन है। वह डेढ़ बीघा को लीज़ पर दे देते हैं और बाकी पर सब्जियां उगाते हैं। लॉकडाउन और प्रतिबंधों के चलते उन्हें खाने के लाले पड़ गए, क्योंकि उनकी सब्जियों की छोटी सी पैदावार के लिए भी यातायात उपलब्ध नहीं था।

मोहम्मद खान, जिनकी झोपड़ी को तूफान यास ने मई में नुकसान पहुंचाया था, वे मछली पकड़ने के लिए जाला बुन रहे हैं। (फोटो: संदीप चक्रबर्ती)

वह कहते हैं, "मेरे घर में भूख चिरस्थायी है। खाना ना मिलना एक नियमित आदत है।" मई में तटीय इलाकों में तूफान यास आया था, जिसने खान की झोंपड़ी को भी नुकसान पहुंचाया था। उनकी ज़मीन तबाह हो गई और भुखमरी से निकलने के मौके भी बर्बाद हो गए। 

तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के कृषि कामग़ार एस सोमस अपनी आय के लिए पूरी तरह केले और रबर या धान के खेतों में मज़दूरी से होने वाली आय पर निर्भर हैं। लेकिन मार्च, 2020 और अप्रैल, 2021 में लगाए गए लॉकडाउन के चलते सोमस और उनका परिवार बुरे तरीके से प्रभावित हुआ, क्योंकि काम के दिन कम रहे और सरकार से भी पर्याप्त मदद नहीं मिल पाई।

सोमस कहते हैं, "मार्च, 2020 से हमारे काम करने के दिनों में बहुत कमी आई है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत मिलने वाला काम भी पिछले साल बहुत वक़्त के लिए बंद रहा।"

वह आगे कहते हैं, "कीमतों में आई कमी के चलते किसानों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। हम काम के लिए उनके ऊपर निर्भर करते हैं, इसलिए हमारी आय को भी इससे झटका लगा।"

कर्नाटक के रहने वाले रघु तमिलनाडु में प्रवासी मज़दूर हैं। वे कहते हैं कि उन्हें सरकार से किसी तरह की मदद नहीं मिली और ना ही किसी राजनीतिक पार्टी ने उनका हाल जाना, क्योंकि वे राज्य के मतदाता नहीं हैं। फोटो: ए नीलांबरन 

महामारी आने के पहले से ही भारत भुखमरी से जूझ रहा था। FAO (फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइज़ेशन) के 2020 के अनुमानों के मुताबिक़, कम से कम 18 करोड़ 90 लाख भारतीय गंभीर भुखमरी से जूझ रहे हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 में भारत को 107 देशों में 94वें नंबर पर रखा गया। NFHS (नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे) 2015-16 में पाया गया कि पांच साल तक की उम्र के बच्चों में से 59 फ़ीसदी और सभी महिलाओं का 53 फ़ीसदी हिस्सा खून की कमी का शिकार है। करीब़ 38 फ़ीसदी बच्चे बौनेपन का शिकार हैं, वहीं 20 फ़ीसदी बच्चे शारीरिक तौर पर दुर्बल हैं। यह दोनों ही चीजें गंभीर कुपोषण का संकेत हैं। महामारी ने इस स्थिति को और भी भयावह बना दिया और सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। 

शहरी भारत भी परेशान रहा

सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में ही लोगों को परेशानी नहीं रही। शहरी इलाकों में भी कठोर लॉकडाउन प्रतिबंधों, जिसे पुलिस ने क्रूर तरीके से लागू करवाया और नियोक्ताओं को कामग़ारों को बिना वित्तीय मुआवज़े के निकालने की छूट दिए जाने से लाखों लोग पूरे तरह कंगाल होने की कगार पर आ गए। शहरी इलाकों में लाखों की संख्या में अनौपचारिक क्षेत्र में कामग़ार काम करते हैं, जिसमें औद्योगिक कामग़ारों के साथ-साथ घरेलू सेवाएं उपलब्ध कराने वाले कर्मचारी और छोटे दुकानदार, वेंडर भी शामिल हैं।

गुजरात के सूरत में हीरा पॉलिश करने का काम करने वाले 30 साल के मितेश प्रजापति अपने चार सदस्यों वाले परिवार में एकमात्र कमाऊ सदस्य थे। पिछले साल लॉकडाउन के बाद उनकी उन्हें कोई काम नहीं मिल पाया था। उनका परिवार पड़ोसियों से उधार और बाकी जगह से कर्ज लेकर सात महीने तक काम चलाता रहा। लेकिन प्रजापति अपनी बीमार मां के इलाज़ का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं। पिछले साल जुलाई की शुरुआत में वह बीमार पड़ गए और उन्हें कोविड के इलाज के लिए कहा गया। लेकिन प्रजापति अपना खर्च उठाने में सक्षम नहीं थे, 4 जुलाई 2020 को उन्होंने नदी में कूदकर जान दे दी।

उनके भाई हितेश प्रजापति ने न्यूज़क्लिक को बताया, "वे बहुत मानसिक तनाव में थे। रोजना के खर्चों के अलावा हमारी मां बीमार हैं और उन्हें हर महीने दवाईयों की जरूरत पड़ती है। जब डॉक्टरों ने कहा कि उन्हें कोविड हो सकता है और जांच करवानी चाहिए, तो उन्होंने उसे एक और खर्च के तौर पर देखा और उसका भार उठाने की कल्पना भी नहीं कर पाए।"

उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में न्यूज़क्लिक ने 43 साल की गुड्डी को गंभीर भुखमरी से जूझते पाया। पांच बच्चों की मां गुड्डी की हालत पिछले दो महीनों से ऐसी है। उनके परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य गुड्डी के पति थे, जिनकी पिछले साल कोविड के चलते मौत हो गई। इसके चलते गुड्डी को 4000 रुपये महीने के वेतन पर एक फैक्ट्री में काम करना शुरू करना पड़ा। लेकिन कुछ महीने पहले लॉकडाउन के चलते फैक्ट्री बंद हो गई। उनके बड़े बेटे अजय (22) ने तब एक निर्माण स्थल पर दैनिक मज़दूरी करनी शुरू की, लेकिन दूसरी लहर ने उससे यह काम भी छीन लिया। आखिरकार उनकी बचत भी खत्म हो गईं।

तनाव में रह रहीं गुड्डी, जिनकी हालत फिलहाल स्थिर है, उन्होंने बताया, "भूख और बीमारी ने हमें इतना प्रभावित किया था कि हम ठीक से चल और बोल भी नहीं पा रहे थे। स्थिति तब और भी खराब हो गई, जब हमारे पड़ोसी ने कुछ भी देना बंद कर दिया। हम उनसे खाने के लिए भीख मांगते, लेकिन वह भी हमें कितने लंबे वक़्त तक खाना देते और ऐसे वक़्त में जब हर कोई संघर्ष कर रहा है।" वह बताती हैं कि कैसे दिन के आखिर में उनका परिवार सिर्फ पानी पर जिंदा रहता था। आखिरकार एक स्थानीय एनजीओ ने उन्हें बचाया और अस्पताल पहुंचाया।

औपचारिक क्षेत्र के कामग़ारों को भी इन इलाकों में बहुत दिक्कत उठानी पड़ी है। मध्य प्रदेश के भोपाल में घरेलू काम में सहायिका के तौर पर काम करने वाली विमला देवी और निर्माण कार्य में मज़दूरी करने वाले उनके पति की नौकरी चली गई। दो छोटे बच्चे भी परिवार में थे, विमला देवी को सरकार से बहुत शिकायत है कि मुश्किल दौर में उन्हें कोई मदद उपलब्ध नहीं कराई गई। 

नेशनल फेडरेशन ऑफ रेलवे पोर्टर्स के अध्यक्ष राम सुरेश यादव ने लखनऊ में न्यूज़क्लिक को बताया, "कोरोना की दूसरी लहर ने हमें लगभग भुखमरी की कगार पर पहुंचा दिया। अगर कुछ एनजीओ और सामाजिक समूह आगे ना आए होते, तो हम अब तक भूखे मर चुके होते।"

जम्मू-कश्मीर के सांबा से आने वाली नीरू अपने 63 साल के पिता देशराज कुमार के बारे में बात करते हुए सारी चीजें एकसाथ समझा दीं। उनके पिता सब्जियां बेचते थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान उनकी आय ख़त्म हो गई और वे बहुत गहरे कर्ज में फंस गए। अब वे शादियों में बर्तन धोते हैं।

वह कहती हैं, "कई ऐसे दिन होते थे, जब उन्हें लगता था कि ऐसे जिंदा रहने से बेहतर खुद का जीवन खत्म कर लेना है। लेकिन मैंने अपने आप को समझाना जारी रखा कि चीजें अच्छी होंगी। लेकिन मैं गलत थी। हम अपना कर्ज़ कैसे चुकाएंगे? हमारे पास कोई बचत नहीं है। कोरोना वायरस भी खत्म होता हुआ नहीं दिख रहा है। मैं नहीं चाहती कि एक बार फिर उन्हें भूखा रहना पड़े।"

वेयरहाउसों में मौजूद है जरूरत से ज़्यादा अनाज

अगर भारत में इतनी बंपर पैदावार हुई है, तो इतने बड़े स्तर पर लोग कैसे भूख से तड़प रहे हैं? रिकॉर्ड स्तर पर खाद्यान्न उत्पादन के चलते महामारी के दौरान सरकारी वेयरहाउस अपनी क्षमता से ज़्यादा भरे हुए थे। सरकार के मासिक आंकड़ों के मुताबिक़, अप्रैल और मई, 2020 के बीच जब कठोर लॉकडाउन लगाया गया था, तब भारत में खाद्यान्न अनाजों का भंडारण क्रमश: 57 मिलियन टन और 64 मिलियन टन था। यह सामान्य स्थितियों में होने वाले भंडारण से दो से तीन गुना है। लेकिन इसके बावजूद सरकार ने इस अनाज के वितरण से इंकार कर दिया। सरकार ने सिर्फ़ इतना किया कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सामान्यत: जितना अनाज़ मिलता है, उससे कोरोना काल में सिर्फ़ 5 किलो ज़्यादा अनाज ही उपलब्ध कराया। यह ना केवल अपर्याप्त था, बल्कि इस दौरान सरकार ने कठोर वास्तविकता से भी मुंह मोड़ा कि लोगों के पास तेल, ईंधन जैसी खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजें भी नहीं हैं। जून, 2021 में खाद्यान्न अनाज भंडार 91 मिलियन टन के रिकॉर्ड स्तर पर थे। इसके बावजूद सरकार ने भूखे लोगों के बीच अनाज वितरण नहीं किया। 

ट्रेड यूनियन लगातार तेल जैसी बुनियादी वस्तुओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल करने की मांग करते रहे। लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही कुछ परिवारों को नगदी द्वारा मदद की अपील भी नज़रंदाज कर दी गई। 

राहत के लिए संघर्ष और बदलाव

जब देश के लोग भयावह महामारी से जूझ रहे थे, तब सरकार ने उन्हें उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया था। लेकिन तब वामपंथी ताकतें आम आदमी के जीवन और उनकी आजीविका के लिए लगातार संघर्ष करने वाली शक्तियों के लिए उभरीं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक करने, इसके तहत आने वाली वस्तुओं का दायरा बढ़ाने, अतिरिक्त अनाज वितरण को 10 किलोग्राम प्रति व्यक्ति करने, सभी गैर करदाता परिवारों को मासिक तौर पर 7500 रुपये की मदद दिलवाने और जन विरोधी कानूनों की वापसी के लिए वामपंथियों ने लगातार कड़े प्रदर्शन किए। पिछले साल कोरोना महामारी द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद कामग़ारों के रहवासी इलाकों और फैक्ट्रियों के गेट पर साल भर प्रदर्शन हुए। 26 नवंबर को पूरे भारत में आम हड़ताल भी करवाई गई। नवंबर से किसान भी कृषि क्षेत्र में तीन विवादित कानूनों के ज़रिए कॉरपोरेट को थोपने का विरोध कर रहे हैं। अब यह सारे प्रतिरोध इकट्ठे हो चुके हैं।

वामपंथी संगठन मुश्किल में चल रहे परिवारों को राहत पहुंचाने में भी आगे थे। केरल में वामपंथी सरकार ने आदर्श तरीके से इसे अंजाम दिया, जो पूरे देश के लिए नज़ीर बना। लॉकडाउन की शुरुआत के पहले 2 हफ़्तों में ही 1255 सामुदायिक रसोई का निर्माण वालेंटियर्स ने कर लिया, जिसके ज़रिए हर दिन 2,80,000 लोगों को खाना खिलाया गया। लॉकडाउन की शुरुआत में, राज्य सरकार द्वारा घर-घर राशन किट्स और किराना आपूर्ति करने के पहले यही रसोईयां वह साधन थीं, जिनसे केरल ने अपने लोगों को भूख से बचाए रखा। सामुदायिक रसोईयां करीब़ 5 लाख प्रवासी कामग़ारों के लिए वरदान साबित हुईं। जबकि दूसरे राज्यों में प्रवासी मज़दूरों को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। राज्य सरकार ने 1000 से ज़्यादा जानाकीय होटेल्स भी खोले, जहां सब्सिडी पर खाना मिलता था।

एक स्थानीय निकाय द्वारा तिरुवनंतपुरम में सामुदायिक रसोई (फोटो: सूबिन डेनिस)

सरकारी कोशिशों के अलावा, वाम और प्रगतिशील संगठनों ने भी राहत सामग्री, जिसमें खाद्यान्न और दैनिक उपयोग के सामान शामिल थे, उनका वितरण किया। जैसे डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया ने हृद्यपुरम प्रोजेक्ट में सक्रिय तरीके से हिस्सा लिया, जहां मरीज़ों और उनके साथ आने वाले लोगों को सरकारी मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में दोपहर का खाना उपलब्ध कराया जाता था। संगठन के कार्यकर्ताओं ने पैकेट वाले खाने और किराना को भी जरूरतमंदों तक पहुंचाने का काम किया। महामारी के दौरान खाद्यान्न सुरक्षा के लिए केरल में प्रशासनिक के साथ-साथ ऐसे सामुदायिक प्रयास भी जिम्मेदार थे। पश्चिम बंगाल में रेड वालेंटियर्स ने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाईं और लोगों की रोजाना की खाद्यान्न जरूरतों को पूरा किया।

इसी तरह सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियन ने फूड किट और जरूरी सामान लगभग भारत के सभी राज्यों में करीब़़ तीन महीने तक देना जारी रखा। इसके लिए चंदे की मदद ली जाती थी।

पश्चिम बंगाल की एक सामुदायिक रसोई की तस्वीर (फोटो: संदीप चक्रबर्ती)

मोदी सरकार द्वारा पैदा किए गए आर्थिक संकट में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और खाद्यान्न असुरक्षा बढ़ने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुविधाएं और शैक्षणिक सुविधाओं जैसे बुनियादी अधिकारों में कटौती की गई है। ठीक इसी दौरान समाज के एक तबके, बड़े-बड़े कॉरपोरेट ने बहुत पैसा कमाया है। इस अति असमानता ने लोगों में बहुत गुस्सा और अंसतोष पैदा कर दिया है, जो आने वाले महीनों में दिखाई देगा।

(तमिलनाडु में नीलांबरन ए और श्रुति एम डी, पश्चिम बंगाल में संदीप चक्रबर्ती, उत्तर प्रदेश में अब्दुल अलीम जाफरी, गुजरात में दमयंती धर, केरल में अज़हर मोईदीन, मध्य प्रदेश में काशिफ़ काकवी और जम्मू-कश्मीर में सागरिका किस्सू की रिपोर्टिंग) 

"हंगर इन द वर्ल्ड" ARG मेडिओस, ब्रासिल डे फाटो, ब्रेकथ्रू न्यूज़, मदार, न्यू फ्रेम, न्यूज़क्लिक और पीपल्स डिस्पैच की साझा श्रंखला है।
इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/The-Long-Shadow-of-Hunger-in-India

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest