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रूस की नए बाज़ारों की तलाश, भारत और चीन को दे सकती  है सबसे अधिक लाभ

रूस की नए बाज़ारों की खोज से भारत और चीन को सबसे अधिक लाभ होगा। 
Tianjin
टियांजिन, चीन में एक टर्मिनल पर रूसी तरलीकृत प्राकृतिक गैस टैंकर खड़ा है 

यूरोप और रूस, ऊर्जा व्यापार के मामले में एक घातक प्रतिस्पर्धा में प्रवेश कर रहे हैं। यूरोप, रूस से परे हटकर अपने ऊर्जा के स्रोतों में विविधता ला रहा है। रूस, यूरोपीय बाजार पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए यूरोप के साथ दौड़ लगा रहा है और वह "पूर्व की ओर देखो" नीति के साथ इसमें बदलाव ला रहा है जिसके ज़रिए वह एशियाई ऊर्जा बाजार की विशाल संभावनाओं का दोहन कर सकता है।

वाशिंगटन को भी इससे लाभ मिलने उम्मीद है। वह रूसी गैस और तेल को यूरोपीय बाजार में अपने निर्यात को बढ़ाकर कर इस स्थिति को बदलने की नीति पर काम कर सकता है; क्योंकि उसका मानना है यदि यूरोप के ऊर्जा बाजार से रूस की आय में कमी आती है तो उसकी अर्थव्यवस्था को झटका लग सकता है; और, इस तरह एक कमजोर रूस, चीन का छोटा भागीदार बन सकता है। 

अभी रूस बढ़त में है ऐसा इसले भी कहा जा सकता है क्योंकि रूस, यूरोप को तेल और गैस कम कीमतों पर उपलब्ध करा रहा है, जिसकी आपूर्ति रूस लंबी अवधि के अनुबंधों के आधार पर  पाइपलाइनों के माध्यम से कर रहा है।

रूस इस अंतराल का इस्तेमाल कर, नए बाजारों को विकसित करने की योजना बना रहा है। भारत और चीन, नए बाजारों के मामले में रूस की खोज का सबसे अधिक लाभ उठा सकते हैं। रूस ने उन्हें और अन्य को, स्थानीय मुद्राओं में भुगतान प्रणालियों के लिए रियायती कीमतों की पेशकश की है।

हालांकि, भारत और चीन की प्रतिक्रिया इस सब के विपरीत एक अध्ययन पेश करती है। भारत एक रक्षात्मक रुख अपना रहा है कि रूस से उसका ऊर्जा आयात बहुत कम है। लेकिन ठोस पश्चिमी दबाव में आकर, दिल्ली को पश्चिम से किसी तरह के सौदे की उम्मीद है। भारत की यूरोपीय कूटनीति चरम पर है।

भारतीय गणना में हर चीज में "चीन का कोण" अनिवार्य रूप से होता है। भारत को यूक्रेन संकट के परिणाम के रूप में यूरोपीयन यूनियन-चीन संबंधों में किसी भी गिरावट को भुनाने की उम्मीद है। उम्मीदें बहुत अधिक लगाई जा रही हैं, लेकिन यूक्रेन संकट ने यूरोप के भविष्य पर ही बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।

सिन्हुआ ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है: कि “आर्थिक मंदी, आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान और कोविड-19 की पृष्ठभूमि के चलते, और दो साल से अधिक समय के बाद कमजोर उपभोक्ता मनोबल, रूस-यूक्रेन संघर्ष और रूस पर बाद के प्रतिबंध यूरोप में अधिक कहर बरपा रहे हैं, जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा पर व्यापक दहशत फैल गई है, खाद्य और ऊर्जा की बढ़ती कीमतें और जीवन स्तर में भारी गिरावट आई है।"

भारतीय मत का एक प्रभावशाली वर्ग यह मानता है कि भारत को "इतिहास के सही तरफ" खड़ा होना चाहिए - अर्थात्, पश्चिम के साथ गठजोड़ करना चाहिए। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने रियायती रूसी तेल या वस्तुओं को खरीदने के खिलाफ लिखा है। उन्होंने लिखा है कि "लंबे समय में, भारत को स्थापित व्यापारिक आदेश के तहत भारतीय निर्यात के लिए पश्चिमी ब्लॉक बाजारों तक निर्बाध पहुंच से नई द्विपक्षीय मुद्रा व्यवस्था के तहत रूस से खरीदी गई रियायती वस्तुओं की तुलना में अधिक लाभ मिल सकता है, जो एक नया और समानांतर वैश्विक व्यापार संरचना बनाना चाहते हैं।" 

संभ्रांतवादी दृष्टिकोण यह मानता है कि भारत को चीन के मुकाबले मजबूत बनाने में अमेरिकी  पश्चिम का रणनीतिक हित है। भारत में प्रचलित कथा यह भी है कि "फ्री वेस्ट" निरंकुशता की रूस-चीन धुरी के खिलाफ युद्ध जीत रहा है।

अब चीन पर रुख करते हैं। संक्षेप में कहें तो चीनी दृष्टिकोण, रूस का दृढ़ता से समर्थन करता है साथ ही सावधानी से पश्चिमी प्रतिबंधों के मामले में अनावश्यक उलझाव से भी बचता है। वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी, रूस के प्रति चीन के लंबे समय से चल रहे समर्थन के बारे में सावधान रहते हैं, लेकिन उनका कहना है कि उन्होंने रूस को चीनी सैन्य और आर्थिक समर्थन या रूस को हमारे प्रतिबंधों से बचने में मदद करने के व्यवस्थित प्रयासों का पता नहीं लगाया है न ही ऐसा कुछ अभी देखा गया है - कम से कम अभी के लिए तो ऐसा नहीं देखा गया है। पश्चिम के लिए सबसे अच्छा परिणाम यह होगा कि वह, बीजिंग पर रूस और पश्चिम के बीच एक संतुलित संतुलन बनाए रखने का दबाव बनाए रखे। 

यूक्रेन मुद्दे पर अतिसक्रिय राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन द्वारा रूस की मदद करने की बात नहीं की है। पिछले हफ्ते, विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने अमेरिकी सीनेट की विदेश संबंध समिति के सामने कहा कि चीन, रूस के सहयोगी होने के "महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा वाले जोखिम" से निपट रहा है और "अभी हम रूस को सैन्य गतिविधियों के लिए चीन से महत्वपूर्ण समर्थन भी नहीं दिख रहा है। "बाइडेन का जापान और दक्षिण कोरिया का आगामी एशिया दौरा, राष्ट्रपति के रूप में उनका पहला, और महत्वपूर्ण कार्यक्रम होगा।

इसका बतलब साफ है कि तथ्य खुद बोलते हैं। चीन को रूस का प्राकृतिक गैस का निर्यात 2021 की अवधि से वर्ष के पहले चार महीनों में 60 प्रतिशत बढ़ गया है। गज़प्रोम ने रविवार को एक बयान में कहा कि आगामी सुदूर पूर्व मार्गों के माध्यम से चीन को रूसी गैस शिपमेंट 2026 तक 48 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच सकता है जो 2021 में प्रति वर्ष लगभग 10 बिलियन क्यूबिक मीटर था। 

इस बीच, गज़प्रोम एक अन्य पाइपलाइन जिसका नाम - सोयुज वोस्तोक है - की योजना पर भी काम कर रहा है - जो रूस से चीन तक - मंगोलिया के माध्यम से जाएगी, जिसका मतलब होगा कि हर साल अतिरिक्त 50 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस चीन को दी जा सकती है।

स्पष्ट रूप से, दुनिया का सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता चीन अपने इरादों पर अड़ा हुआ है कि वह प्रतिबंधों का विरोध करता है और तेल और गैस पर सहयोग सहित रूस के साथ उसका व्यापार जारी रहेगा। वैश्विक मांग अधिक बनी हुई है और प्राकृतिक गैस और तेल के साथ-साथ कोयले की कीमतों में पिछले साल से तेजी से वृद्धि हुई है और विश्व बाजारों तक पहुंच में रूसी ऊर्जा की कठिनाई को देखते हुए कीमतें अधिक बढ़ सकती है।

इसलिए, पश्चिमी खेल वास्तव में रूसी निर्यात को इतना कम या कमज़ोर करना नहीं है जितना कि रूसी तेल और गैस राजस्व को कम करना है। चीनी नीति निर्माताओं ने इस महत्वपूर्ण अंतर को समझ लिया है।

दिलचस्प बात यह है कि जापान भी ऐसा ही कर रहा है, जिसने मास्को पर सख्त जी7 प्रतिबंधों में शामिल होने के बावजूद, रूस के सुदूर पूर्व में सखालिन-2 में अपनी 27.5 प्रतिशत हिस्सेदारी पर टिके रहने के इरादे की घोषणा की है। प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने कहा कि यह परियोजना जापान को "दीर्घकालिक, सस्ती और स्थिर एलएनजी आपूर्ति" प्रदान करने में मदद करेगी और "हमारी ऊर्जा सुरक्षा के मामले में एक अत्यंत महत्वपूर्ण परियोजना है।"

यह वह मौका है जहां भारत के लिए भी के बड़ा अवसर हैं, जिसमें व्यापक रिफाइनरी उद्योग हैं जो आमतौर पर रूसी कच्चे तेल में रुचि रखते हैं। (रूस से भारत के लिए प्राकृतिक गैस का स्रोत कठिन होने जा रहा है।)

चीनी कंसल्टेंसी फेनवेई एनर्जी इंफॉर्मेशन सर्विस ने इस महीने की शुरुआत में कहा था कि युआन में भुगतान किए गए रूसी कोयले और तेल का चीन में प्रवाह शुरू होने वाला है और इस महीने पहला कार्गो पहुंच जाएगा। यह युआन में भुगतान किया गया पहला कमोडिटी शिपमेंट होगा क्योंकि अमेरिका और यूरोप ने कई रूसी बैंकों को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली से काट दिया था।

वास्तव में, चीन पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रतिमान को मनमोहन सिंह से बहुत अलग दृष्टिकोण से देख रहा है – कि प्रतिबंधों का बेहतर तरीके से लाभ कैसे उठाया जाए, साथ ही इसमें और अधिक सामग्री जोड़कर रूस के साथ साझेदारी को बढ़ाया जाए। इसके विपरीत भारत का रिकॉर्ड यह रहा है कि पिछली सरकार (2004-2014) के नेतृत्व में रूस के साथ भारत के संबंध ठहराव पर आ गए थे। 

भारतीय रिजर्व बैंक ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि भारत के 2034-35 में ही कोविड-19 के नुकसान से उबर पाने की उम्मीद है। लेकिन यह सब सकल घरेलू उत्पाद की निरंतर 7.5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की बड़ी धारणा पर आधारित है। अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्रियों की सर्वसम्मत  राय है कि अगले साल भारत की जीडीपी वृद्धि दर, और संभवतः उससे आगे, 6 प्रतिशत के करीब रहने की उम्मीद है।

स्पष्ट रूप से, भारत को रूस के खिलाफ यूरोपीयन यूनियन और अमेरिकी प्रतिबंधों के एल्गोरिदम की जांच करने की जरूरत है ताकि एक महत्वपूर्ण मोड़ पर व्यापार के अवसरों का पूरा लाभ उठाया जा सके, क्योंकि देश की आर्थिक रिकवरी किसी भी सरकार की सर्वोच्च राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए। अत्यधिक भू-राजनीतिक उतार-चढ़ाव के मामले में अधिक स्मार्ट होना एक नशे का एहसास देता है। 

हाल ही में दिल्ली में, यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयन ने हमसे चाँद का वादा किया था। लेकिन हमें यथार्थवादी होना चाहिए। यूरोपीयन यूनियन का विश्व स्तरीय शक्तियों के निर्माण का कोई इतिहास नहीं है। प्रमुख अमेरिकी थिंक टैंक, यूक्रेन संकट के कारण यूरोप पर बढ़ते आर्थिक और सामाजिक दबाव के पहले ही यूरोपीयन यूनियन के भविष्य के बारे में ही संशय में था।  

एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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