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मीडिया पॉलिसी 2020 : जम्मू-कश्मीर में अभिव्यक्ति की आज़ादी का बन रहा मज़ाक़

मीडिया पर लगातार सरकारी हस्तक्षेप एवं दबाव के चलते किसी भी लोकतंत्र के प्रभावी तौर पर संचालन को नुकसान झेलना पड़ता है।
मीडिया पॉलिसी 2020

मीडिया के ऊपर जारी सरकारी हस्तक्षेप एवं नियमन के चलते किसी भी लोकतंत्र के प्रभावी संचालन का काम बाधित होने लगता है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर विख्यात मीडिया की आजादी, किसी भी मजबूत शासन के लिए बेहद अहम है। पत्रकारों पर बढ़ते हमले और गिरफ्तारियों ने समूचे देश भर में इस खतरे की घंटी को बजा दिया है। लेकिन जम्मू कश्मीर जैसे अत्यधिक सैन्यीकृत एवं संवेदनशील क्षेत्र में तो हालात और भी अधिक विकट बनी हुई है, जहां प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश के चलते जमीनी हकीकत और राज्य के बारे में राष्ट्रीय नैरेटिव विकृत तौर पर सामने आ रहे हैं। मिस्बाह रेशी ने जम्मू-कश्मीर में प्रेस की आजादी के मौजूदा हालात के मद्देनजर राज्य में न्यू मीडिया पॉलिसी की गंभीरता से पड़ताल की है।

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धारा 370 को मनमाने ढंग से संशोधित किये जाने के एक साल बाद, फ्री प्रेस कश्मीर नामक एक ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल ने अपने अखबार में एक अनूठे अनूठे संपादकीय अंश को अपलोड किया। सम्पादकीय पृष्ठ अपने-आप में पूरी तरह से काले रंग में रंगा हुआ दस्तावेज नजर आ रहा था, जिसमें मात्र कुछ ही शब्द नजर आ रहे थे। अपने-आप में यह एक स्पष्ट संदेश प्रेषित कर रहा था: कि कश्मीर में प्रेस की आजादी गंभीर खतरे में थी।

2 जून को जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने ‘मीडिया पॉलिसी 2020’ नामक एक नई मीडिया नीति को मंजूरी देने का काम किया था, ताकि आम जन में भरोसा बनाने के लिए मीडिया के सभी प्रारूपों को क्रमबद्ध एवं प्रभावी तौर पर इस्तेमाल में लाने को सुनिश्चित बनाया जा सके। इसका एक उद्येश्य यह भी था कि प्रदर्शन के आधार पर और प्रमुख हितधारकों के साथ संबंधों को मजबूत करने के जरिये वास्तविकता में सरकार की छवि को सकारात्मक तौर पर दिखाया जा सके।”

इसे जारी किये जाने के फ़ौरन बाद ही कश्मीर में मौजूद पत्रकारों एवं मीडिया हाउसों ने इस न्यू मीडिया पॉलिसी पर अपने गुस्से का इजहार विभिन्न प्लेटफार्मों के जरिये व्यक्त करने में देर नहीं लगाई थी।

कश्मीर में जिस दौरान न्यू मीडिया पॉलिसी को जारी किया जा रहा था, उस दौरान बेहद धीमी गति के इंटरनेट कनेक्शन और लॉकडाउन में आंशिक तौर पर ही आने-जाने की छूट के चलते जम्मू-कश्मीर में पत्रकार बमुश्किल से ही काम कर पा रहे थे। यह नई नीति, जैसा कि कश्मीर एडिटर्स गिल्ड के एक सदस्य का कथन था कि घाटी के संपादकों और पत्रकारों के साथ बिना किसी बातचीत या सलाह-मशविरा किये ही इसे तैयार कर दिया गया था।

न्यू मीडिया पॉलिसी ने एक स्वतंत्र प्रेस के बुनियादी सिद्धांत को ही छीन लेने का काम किया है और बेहद व्यवस्थित तरीके से सभी प्रकार के असंतोष का गला घोंट डाला है।

न्यूयॉर्क टाइम्स बनाम सुलिवन केस में जहां अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने समाचार-पत्र के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसमें अखबार ने तर्क रखा था कि "यदि अखबार को प्रत्येक लोक सेवक के बारे में की गई हर आलोचना की सत्यता की जाँच करने के बाद ही उसे छापने की इजाजत मिलती है, तो ऐसे में तो यह कदम स्वतंत्र प्रेस की भूमिका को गंभीर तौर पर सीमित करने वाला सिद्ध हो सकता है।"

न्यू मीडिया पॉलिसी 2020

इस नई पॉलिसी का एक प्रमुख उद्देश्य "किसी भी भ्रामक-सूचना एवं फेक न्यूज़ को विफल करने के साथ-साथ सांप्रदायिक जुनून को भड़काने, हिंसा को बढ़ावा देने या संप्रभुता और अखंडता के प्रति किसी भी पूर्वाग्रहपूर्ण सूचना को प्रचारित करने के लिए मीडिया के दुरूपयोग करने के किसी भी प्रयास को विफल करने एवं इसके प्रति सतर्क बने रहने का है"। कोई भी मीडिया जो इन उद्देश्यों का उल्लंघन करते हुए पाया जाता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के अतिरिक्त सरकार से उसे किसी भी प्रकार के विज्ञापन दिए जाने पर निषेधाज्ञा लगा दी जायेगी। ऐसे में उनके पास भारतीय दंड संहिता एवं साइबर कानूनों के विभिन्न प्रावधानों के तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की शक्ति भी मिल जाती है।

जे एंड के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग (जे एंड के डीआईपीआर) के अधिकारियों के पास फेक खबरों या राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को तय करने की शक्ति हासिल है। संक्षेप में कहें तो इसका अर्थ यह हुआ कि सरकारी प्रशासनिक निकाय के पास यह शक्ति बनी रहने वाली है कि वे तय कर सकें कि किसी भी अखबार में क्या खबर छप सकती है और क्या नहीं।

इस पॉलिसी में शर्तों की अस्पष्ट व्याख्या करते हुए यह भी कहा गया है कि डीआईपीआर के निदेशक को यदि लगता है कि सूचनाओं को भ्रामक तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है, दिशा-निर्देशों का उल्लंघन या वे वांछित मानकों पर खरे नहीं उतर रहे हैं तो ऐसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं जर्नलों को दिए जाने वाले विज्ञापनों को निरस्त करने का अधिकार उसे हासिल है।

मीडिया की आजादी पर पर गहरा आघात करते हुए इस पॉलिसी में घोषणा की गई है कि सरकारी विज्ञापनों के लिए समाचार-पत्रों को सूचीबद्ध करने से पहले जो भी लोग आधिकारिक तौर पर अखबार से सम्बद्ध हैं, उन सभी लोगों के पिछले इतिहास को खंगाला जायेगा। पत्रकारों को मान्यता देने से पहले उनके पृष्ठभूमि के बारे में गहन जाँच-पड़ताल की जाएगी। और इस प्रकार जम्मू-कश्मीर डीआईपीआर के अधिकारियों को यह तय करने का अधिकार भी मिल जाता है कि इनमें से कौन पत्रकार है और कौन नहीं। यह कुछ ऐसा है जो आगे से रिपोर्ट की जाने वाली सूचनाओं की प्रकृति पर गंभीर दुष्प्रभाव छोड़ने वाली साबित हो सकती हैं।

संक्षेप में कहें तो इसका अर्थ यह हुआ कि सरकारी महकमे के पास आगे से प्रकाशित होने वाली खबरों को नियंत्रित करने की ताकत मिल जाती है।

जम्मू-कश्मीर (जे एंड के) में विविधता एवं उर्जावान प्रेस के तौर पर कुल मिलाकर तकरीबन 414 समाचार-पत्रों के पैनल हो रखे हैं, जिनमें से 172 कश्मीर में (लगभग 60 उर्दू और 40 अंग्रेजी भाषा में) हैं। इस नई पॉलिसी के लागू हो जाने पर ये सभी  समाचार-पत्र गंभीर तौर पर प्रभावित होने जा रहे हैं।

प्रेस की आज़ादी और कश्मीर में इसका उल्लंघन

यदि कोई राज्य जनता के सूचनार्थ खबरों को प्रकाशित करने से पूर्व उसे तय करने की स्थिति में आ जाता है, तो उसके बेहद गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ तब तो यह और भी खतरनाक हो जाता है जब राज्य ऐसे कानूनों और नीतियों को पारित करने लगता है, जिसमें उसे सही ख़बरों और सूचना के अपने मानकों को थोपने की आजादी मिल जाती है। कश्मीर में प्रेस स्वतंत्रता पर निरंतर हमलों के इतिहास को देखते हुए न्यू मीडिया पॉलिसी को लेकर एक गहन विश्लेषण की आवश्यकता है।

इससे पूर्व 2017 में फोटो जर्नलिस्ट कामरान यूसुफ को नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था, और अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत उन्हें हिरासत में रखने का काम किया गया था। अदालत के समक्ष एनआईए ने यह तर्क रखते हुए यूसुफ के खिलाफ लगाये गए आरोपों को वैध ठहराया था कि वे “वास्तविक पत्रकार” नहीं थे, क्योंकि उनके द्वारा सेना एवं अर्धसैनिक बलों द्वारा किये गए सामाजिक कार्यों को अपनी रिपोर्ट में कवर नहीं किया गया था।

इसी तरह अगस्त 2018 में कश्मीर नैरेटर में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत आसिफ सुल्तान को यूएपीए के तहत तब गिरफ्तार कर लिया गया था, जब उन्होंने हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी के उपर एक स्टोरी करने की हिमाकत की थी। एक आतंकी के पक्ष में आपराधिक साजिश रचने के आरोप में पुलिस ने उन्हें यूएपीए के तहत आरोपित किया था। उसी वर्ष के दरमियान दैनिक समाचार पत्र कश्मीर ऑब्जर्वर से जुड़े अकीब जाविद को एनआईए ने अलगाववादी नेता आसिया अंद्राबी का इन्टरव्यू करने पर लगातार तीन दिनों तक हाजिर होने का आदेश दिया और पूछताछ की।

नवंबर 2019 में इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार बशारत मसूद और इकोनॉमिक टाइम्स के हकीम इरफान को पुलिस के काउंटर-इंसर्जेंसी ग्रिड द्वारा हाजिर होने के लिए कहा था और जिन स्टोरी को उन्होंने अपने समाचार-पत्रों में प्रकाशित किया था, के लिए उनके साथ गहन तफ्तीश का दौर चला था। इसी तरह कश्मीर में जो दो सबसे लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक प्रकाशित होते हैं उनमें से एक ग्रेटर कश्मीर, जोकि प्रसारण के मामले में सबसे बड़ा है के साथ कश्मीर रीडर को, 2019 में जम्मू-कश्मीर सरकार से विज्ञापन प्राप्त करने के मामले में प्रतिबंधित कर दिया गया था। जबकि ग्रेटर कश्मीर को तो 2008 में ही केंद्र सरकार के विज्ञापन हासिल करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था।

5 अगस्त, 2019 के बाद से अपराधीकरण और धमकियों का दौर बढ़ता चला गया है।

द हिंदू अखबार के वरिष्ठ पत्रकार पीरज़ादा आशिक को अनंतनाग पुलिस ने तीन आतंकवादियों के शवों के उत्खनन के सिलसिले में एक रिपोर्ट की हेडलाइन के चलते तलब किया था। इसी तरह एक नौजवान महिला फोटो जर्नलिस्ट मसरत ज़हरा को यूएपीए के तहत इसलिए आरोपित किया गया था, क्योंकि उसने एक शिया प्रदर्शन की फोटो अपलोड करने का गुनाह किया था, जिसमें हिस्सा ले रहे प्रतिभागियों में से एक ने बुरहान वानी का पोस्टर हाथ में ले रखा था।

वरिष्ठ पत्रकार गौहर गिलानी को भी यूएपीए के तहत आरोपित किया गया था। पुलिस द्वारा उन्हें तलब किया गया एवं पूछताछ की गई और सोशल मीडिया में उनके द्वारा लिखी गई पोस्टों के जरिये गैरकानूनी गतिविधियों के संचालन के आरोप मढ़े गए थे, लेकिन इस सिलसिले में किसी भी खास पोस्ट का जिक्र नहीं किया गया।

इस न्यू मीडिया पॉलिसी के तहत प्रेस की आज़ादी पर सीधे तौर पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की बात नहीं कही गई है, लेकिन पत्रकारों एवं मीडिया हाउसों द्वारा प्रकाशित किये जाने वाली सामग्री पर निशाना साधने के जरिये उनपर रोकथाम लगाने का काम यह नीति बखूबी करती है।

'द कश्मीरियत' नामक वेबसाइट के क़ाज़ी शिब्ली को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लेकर उत्तर प्रदेश के बरेली जेल में डाल दिया गया था क्योंकि उनके द्वारा घाटी में सैन्य टुकड़ियों के जमावड़े के सरकारी आदेश की सूचना सार्वजनिक कर दी गई थी। उनकी नजरबंदी के दौरान टाइम मैगज़ीन ने “प्रेस की आजादी के लिए 10 सबसे बड़े तात्कालिक खतरों’ में से शिबली की गिरफ्तारी को पांचवें स्थान पर सूचीबद्ध किया था। 9 महीने तक हिरासत में रखे जाने के बाद जाकर उन्हें रिहा कर दिया गया था।

एक ऑनलाइन समाचार पोर्टल द कश्मीर वाल्ला के संस्थापक संपादक को श्रीनगर में हुए मुठभेड़ की रिपोर्ट के सिलसिले में तलब कर छह घंटे तक पूछताछ की गई थी। इसके एक महीने बाद उन्हें एक बार फिर से एफआईआर संख्या 70/2020 के सिलसिले में तलब किया गया था, जिसमें "हत्या की कोशिश एवं भड़काने के प्रयास" सहित कई आरोपों का जिक्र किया गया था।

भारतीय संविधान और प्रेस की आज़ादी

देश में प्रेस की स्वतंत्रता पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित सिद्धांतों को न्यू मीडिया पॉलिसी की ओर से चुनौती मिल रही है। अदालत ने बार-बार इस बात को दुहराया है कि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र की एक आवश्यक विशेषता के तौर पर है और केवल ख़ास परिस्थियों में ही इस पर रोक लगाने को वैध ठहराया जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 19 (2), अनुच्छेद 19 (1) के तहत गारंटीशुदा स्वतंत्रता पर यथोचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति प्रदान करता है। राज्य की संप्रभुता एवं अखंडता, ये वे दो अभिन्न आधार हैं जिनकी बिना पर प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। हालांकि ये प्रतिबंध तार्किक होने चाहिए और इसके साथ ही प्रतिबंध और जो लक्ष्य हासिल किये जाने हैं, के बीच एक आसन्न एवं स्पष्ट संबंध होना इसकी जरुरी शर्त में शामिल है।

रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य वाले मामले में यह पाया गया था कि प्रेस की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 (1) (ए) का एक अनिवार्य हिस्सा थी। संविधान के इस अनुच्छेद के तहत ही मीडिया, सेंसरशिप एवं अन्य जरियों से बोलने की आजादी का गला घोंटने के खिलाफ सुरक्षा की मांग कर सकती है।

सचिव, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय बनाम क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ़ बंगाल एंड एएनआर मामले में अदालत का कहना था कि "बोलने एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी के अंतर्गत सूचना हासिल करने और इसे प्रसारित करने का अधिकार भी शामिल है।"

एस पी गुप्ता बनाम भारत सरकार  मामले में अदालत ने अपनी राय देते हुए कहा था कि किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के कार्य संचालन के दौरान उसे जवाबदेह ठहराया जा सकता है, और ऐसा तभी संभव है जब लोगों को सरकार के कामकाज के बारे में पता हो। इसलिए एक प्रभावी भागीदारी को किसी लोकतंत्र में सुनिश्चित करने के लिए, बेख़ौफ़ होकर बोलने एवं अभिव्यक्ति के अधिकार को अवश्य ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

न्यू मीडिया पॉलिसी सीधे-सीधे प्रेस की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाने को अमल में नहीं लाती है, लेकिन जहाँ तक पत्रकारों एवं मीडिया हाउसों द्वारा प्रकाशित किये जाने वाली सामग्री का प्रश्न है, उस पर रोकथाम एवं नियन्त्रण लगाने के लिए इसे बखूबी लक्षित किया जा सकता है।

यह और भी खतरनाक तब हो जाता है जब राज्य ऐसे कानूनों और नीतियों को पारित करते हैं जो उनके हिसाब से सही खबरों एवं सूचना के मानकों को थोपे जाने की स्वीकृति प्रदान करने वाले सिद्ध होते हैं। कश्मीर में प्रेस की आज़ादी पर निरंतर हमलों के इतिहास को देखते हुए न्यू मीडिया पॉलिसी पर गंभीर विश्लेषण की महती आवश्यकता है।

यहाँ तक कि इस पॉलिसी के अमल में आने से पहले भी सरकार की ओर से पत्रकारों के अपराधीकरण और उत्पीड़न का क्रम जारी था, लेकिन इस पॉलिसी के लागू हो जाने के बाद से जो भी सरकार की कार्यवाही को लेकर आलोचनात्मक रुख रखते हैं, के खिलाफ यह क़ानूनी ताकत मुहैय्या कराती है। समाचार-पत्रों के आलोचनात्मक रुख के चलते उन पर प्रतिबन्ध लगाने के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए, इसके अंधाधुंध इस्तेमाल एवं दुरुपयोग की संभावना का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इस न्यू मीडिया पॉलिसी ने एक स्वतंत्र प्रेस के बुनियादी सिद्धांत का ही अपहरण कर डाला है और नाना प्रकार के असंतोष के माध्यमों का व्यवस्थित तरीके से गला घोंटने का काम किया है।

कश्मीरी मीडिया का भविष्य

5 अगस्त, 2019 के बाद से कश्मीर में मीडिया को खामोश करा दिया गया है। एक हफ्ते के तालाबंदी के बाद जाकर एक एकल मीडिया सुविधा केंद्र को स्थापित किया गया था, जिसमें चार डेस्कटॉपों को स्थानीय मीडिया घरानों और पत्रकारों के लिए इंटरनेट-लीज्ड लाइन कनेक्शन से जोड़ दिया गया था। इसके बारे में एक कश्मीरी पत्रकार का कहना कुछ इस प्रकार था "आप खुद ही इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे में पत्रकार किन हालातों के बीच से गुजर रहे होंगे, जिसमें– अंतहीन इंतजार, एक कंप्यूटर पर एक छोटी सी रिपोर्ट दर्ज करने को लेकर छाई बदहवाशी, जो कुछ ही समय के लिए आपको उपलब्ध है, इस बारे में पहले से पता होना कि आपकी पहचान और जो सामग्री आप खोज रहे हैं या रिपोर्टिंग कर रहे हैं, वे सब स्कैनर के तहत जाँची जा रही हैं, और यह कि यदि आप कोई ऐसी सामग्री रिपोर्ट करते हैं जिसे राज्य राजद्रोही मानता है, तो इसके लिए आपको जेल की सलाखों के पीछे डाला जा सकता है।"

वहीँ दूसरी तरफ जो पत्रकार दिल्ली से कश्मीर की उड़ान भर रहे थे, उन्हें रिपोर्टिंग करने के लिए आसान पहुँच मुहैय्या कराई जा रही थी, लेकिन तभी जबतक सूचना विभाग उन्हें रोज-ब-रोज सामान्य हालात के बारे में ब्रीफ कर रहा था, और वे उसे स्वीकार कर रहे थे। इसीलिए जो कहानी दिल्ली से उड़ान भरकर आने वाले पत्रकार बयाँ कर रहे थे वह स्थानीय पत्रकारों और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा पेश की गई रिपोर्टों से पूरी तरह से उलट जारी हो रही थीं। इससे यह साफ़ था कि इनमें से कौन स्टेनोग्राफर की भूमिका में थे और कौन वास्तविक पत्रकार थे।

संसदीय निर्णय के तत्काल बाद के तौर पर क्या घटित हुआ था, वह कश्मीर में प्रेस की आजादी के लिए एक नए सामान्य बनने को संभावित बनाये रखने की क्षमता रखता है।

सच्चाई के निश्चय और उसके प्रसार पर नियंत्रण को उन लोगों हाथों में नहीं होना चाहिए, जिन्हें सच्चाई के सामने आने की सूरत में सबसे बड़ी हार का मुहँ देखने को विवश होना पड़ेगा। वॉशिंगटन स्पाइज की श्रृंखला में जेम्स रिविंगटन का चरित्र एक जगह कहता है: " यदि सत्ता के लिए सत्य का कोई मोल नहीं है, तो ऐसे में सत्ता के समक्ष किसी को भी सत्य बोलने की जरूरत नहीं है"।

(मिस्बाह रेशी दिल्ली विश्विद्यालय के विधि संकाय में कैंपस लॉ सेंटर की अंतिम वर्ष की छात्रा हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

यह लेख मूल तौर पर The Leaflet में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Media Policy 2020: Mocking Freedom of Speech and Expression in Jammu and Kashmir

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