वाराणसी: अब ज्ञानवापी को ‘दूसरी बाबरी मस्जिद’ बनाने की तैयारी!
बनारस अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए सालों से जाना जाता रहा है। इसकी ख़ासियत तंग गलियों में एक ओर मंदिर के घंटों की आवाज़ तो दूसरी ओर मस्जिद से सुनाई देती अज़ान है। यहां 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर है तो ठीक उसके बगल में ज्ञानवापी मस्जिद भी है। अब इसी काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के विवाद में कोर्ट ने पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया है।
फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के जज सीनियर डिवीजन आशुतोष तिवारी ने गुरुवार, 8 अप्रैल को अपने फैसले में कहा कि पुरातत्व विभाग यानी आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ़ इंडिया अपने ख़र्च पर 5 लोगों की टीम बनाकर पूरे परिसर की स्टडी कराए। इससे पहले अदालत ने गत दो अप्रैल को इस मामले में सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इस फैसले के बाद मंदिर-मस्जिद के एक नए विवाद का जन्म होता दिखाई दे रहा है। एक ओर हिन्दू पक्ष इसे अपने लिए बड़ी जीत के तौर पर देख रहा है तो वहीं सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड और ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंधन का कहना है कि वो इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील करेंगे।
क्या है पूरा मामला?
काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद ठीक हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर एक ही परिसर में महज़ कुछ दूरी पर अगल-बगल स्थित हैं। मंदिर पक्ष का दावा है कि औरंगजेब के शासनकाल में काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर उसी परिसर के एक हिस्से में ज्ञानवापी मस्जिद बना दी गई थी। उसका दावा है कि मंदिर के अवशेष पूरे परिसर में आज भी मौजूद हैं। वहीं अंजुमन इंतजामियां मस्जिद कमेटी और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की ओर से दाखिल प्रतिवाद में दावा किया गया कि वहां पर मस्जिद अनंत काल से कायम है।
दिसंबर 2019 में वाराणसी के स्थानीय वकील विजय शंकर रस्तोगी ने सिविल जज की अदालत में स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर की ओर से एक आवेदन दायर किया था, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा पूरे ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करने का अनुरोध किया गया था।
उन्होंने ख़ुद को भगवान विश्वेश्वर के 'वाद मित्र' के रूप में याचिका दायर की थी जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया था। हालांकि पहली बार 1991 में वाराणसी सिविल कोर्ट में स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से ज्ञानवापी में पूजा की अनुमति के लिए याचिका दायर की गई थी।
याचिकाकर्ता रस्तोगी का दावा है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण लगभग क़रीब दो हज़ार साल पहले महाराजा विक्रमादित्य ने कराया था, लेकिन मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने साल 1664 में मंदिर को नष्ट कर दिया था।
इसके अलावा आवेदन में कहा गया है कि देश की आजादी के दिन ज्ञानवापी का धार्मिक स्वरूप मंदिर का ही था। आज भी विवादित ढांचे के नीचे 100 फीट का ज्योतिर्लिंग मौजूद है। साथ ही, अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं। ऐसे में रडार तकनीक से और खुदाई करवा कर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम से सर्वे कराकर धार्मिक स्थिति स्पष्ट कराई जाए।
जनवरी 2020 में ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंधन यानी अंजुमन इंतज़ामिया मस्जिद समिति ने ज्ञानवापी मस्जिद और परिसर का एएसआई द्वारा सर्वेक्षण कराए जाने की माँग पर अपना विरोध दर्ज किया था। उनका कहना था कि ज्ञानवापी में मंदिर नहीं था और अनंत काल से वहां मस्जिद ही है। इसके अलावा एक जगह दो ज्योतिर्लिंग कैसे हो सकते हैं?
आपको बता दें कि 2 अप्रैल 2021 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। जिस पर अब सर्वेक्षण का आदेश आया है।
इस फ़ैसले पर मंदिर पक्ष का क्या कहना है?
फैसला आने के बाद मंदिर पक्ष के वकील ने मीडिया से कहा, “2019 में मंदिर पक्ष की ओर से कोर्ट में प्रार्थना पत्र पेश किया गया था। निवेदन किया गया था कि ज्ञानवापी में पुरातन विश्वनाथ मंदिर मौजूद था। उसे 1669 में गिराकर उसके एक भाग पर ये ढांचा बनाया गया है। पुरातन मंदिर के सारे अवशेष उस परिसर में ढांचे के नीचे मौजूद हैं। ज्योतिर्लिंग को पत्थर की पटियों से ढक दिया गया है। पुरातत्व विभाग इसका खनन करे और साक्ष्य कोर्ट में प्रस्तुत करे। मंदिर पक्ष के आवेदन को स्वीकार कर लिया गया है। कोर्ट ने सर्वे का आदेश दिया है, ये हिन्दू पक्ष के लिए बड़ी जीत है। अगर साक्ष्य आ जाएगा कि मंदिर के अवशेष पुरातन हैं तो फैसला आने में देर नहीं होगी।”
मस्जिद पक्ष ने क्या कहा?
मस्जिद पक्ष के वकील मोहम्मद तौफीक खां ने प्रतिक्रिया में कहा कि कोर्ट ने सर्वे करने का आदेश पारित किया है। जजमेंट की कॉपी को पढ़ने के बाद ही हम फैसला लेंगे कि आगे क्या करना है। हमारा मानना है कि इस स्टेज पर सर्वे कमिशन जारी नहीं होना चाहिए था। हालांकि हम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हैं।
वहीं मस्जिद प्रबंधन और सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड का कहना है कि वो इस फ़ैसले को हाईकोर्ट में चुनौती देंगे। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड की ओर से वकील रह चुके ज़फ़रयाब जिलानी कहते हैं कि यह कोई फ़ैसला नहीं है, बल्कि आदेश है और यह हाईकोर्ट में ख़ारिज हो जाएगा।
बीबीसी से बातचीत में ज़फ़रयाब जिलानी ने कहा, "1991 के पूजा स्थल क़ानून का खुले तौर पर उल्लंघन है यह और कोर्ट में टिक नहीं पाएगा। मुझे तो इस बात पर भी आश्चर्य है कि यह मामला हाईकोर्ट में पेंडिंग है तो इस पर सिविल कोर्ट ने आदेश कैसे जारी कर दिया। ख़ैर, हम लोग क़ानूनी तौर पर आगे की कार्रवाई करेंगे।"
क्या कहता है 1991 का पूजा स्थल क़ानून?
राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद के बीच सभी धार्मिक मान्यता के लोगों की आस्था को सुरक्षित रखने के लिए साल 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार पूजा स्थल अधिनियम लेकर आई। इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। और यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है।
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इस कानून की प्रस्तावना, धारा दो, तीन और चार को मिलाकर पढ़ा जाए तो यह कानून स्पष्ट तौर पर ऐलान करता है कि 15 अगस्त साल 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म के पूजा स्थलों की प्रकृति बदलकर किसी भी आधार पर उन्हें दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जाएगा। अगर ऐसा किया जाता है तो ऐसा करने वालों को एक से लेकर तीन साल तक की सजा हो सकती है। पूजा स्थल में मंदिर, मस्जिद, मठ, चर्च, गुरुद्वारा सभी तरह के पूजा स्थल शामिल हैं। अगर मामला साल 1947 के बाद का है तो उस पर इस कानून के तहत सुनवाई होगी।
दरअसल, इस मामले में सुनवाई के क्षेत्राधिकार को लेकर सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड और ज्ञानवापी मस्जिद प्रबंधन यानी अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद ने सिविज जज सीनियर डिवीजन फ़ास्ट ट्रैक के कोर्ट में सुनवाई करने के लिए अदालत में क्षेत्राधिकार को चुनौती दी थी। 25 फ़रवरी 2020 को सिविल जज सीनियर डिवीजन ने इस चुनौती को ख़ारिज कर दिया तो इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ ज़िला जज के यहां निगरानी याचिका दाख़िल की गई। इस पर आगामी 12 अप्रैल को सुनवाई होनी है।
वहीं दूसरी ओर, इस मुक़दमे को लेकर इलाहाबाद हाइकोर्ट में भी सुनवाई चल रही है। हाईकोर्ट में इस मामले में दोनों पक्षों की ओर से बहस पूरी हो चुकी है लेकिन हाईकोर्ट ने फ़ैसला सुरक्षित रखा है।
‘अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है!’
गौरतलब है कि कि भारत में धुर दक्षिणपंथी संगठनों की लंबे समय से कुछ मस्जिदों को हटाने की मांग रही है। राम मंदिर के समय से “अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है” का नारा भी चलाया जाता रहा है। कारसेवकों द्वारा साल 1992 में अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को ढाह देना इसी दिशा में एक कदम था।
तकरीबन 100 साल से अधिक की कानूनू लड़ाई लड़ने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे पर अपना फैसला सुनाया तो तर्क की बजाए आस्था को ज्यादा तवज्जो मिली। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने विवादित जमीन मंदिर ट्रस्ट को सौंप दी और एक विशेष सीबीआई अदालत ने सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया।
इसके बाद साल 2020 में एक समूह ने मथुरा सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए दावा किया गया कि 1669-70 के दौरान मुगल बादशाद औरंगजेब के शासन में बनी मथुरा की ईदगाह मस्जिद कृष्ण का जन्मस्थान है। ज्ञानवापी मस्जिद की याचिका के समान याचिका में अतिक्रमण और अधिरचना को हटाने की मांग की गई थी।
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जाहिर है राम मंदिर फैसले के बाद कई जानकारों जो एक गैर जरूरी मुद्दा हमेशा के लिए बंद होने पर संतोष जता रहे थे, वो ये भूल रहे थे कि ये फैसला कई और विवादों को जन्म देगा। वो शायद ये भी भूल गए थे कि शांति की स्थापना बिना न्याय के नहीं होती है। आज शायद वह नारा “अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है” फिर से जीवंत होकर गूंजने लगा है। एक मंदिर-मस्जिद विवाद का जन्म हो रहा है।
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