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मोदी सरकार और उसकी मज़दूर वर्ग की समस्याओं के प्रति निष्ठुरता

एक तरफ महामारी के बाद अमेरिका में सार्वभौमिक समर्थन के उपाय किए गए हैं, दूसरी तरफ अर्थशास्त्रियों,नागरिक समाज संगठनों और राजनीतिक दलों की दलीलों और मांगों  के बावजूद भारत में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है।
मोदी सरकार और उसकी मज़दूर वर्ग की समस्याओं के प्रति निष्ठुरता

अमरीका के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार, एलिजाबेथ वारेन ने जब डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की दावेदारी के लिए अपने प्रचार अभियान के दौरान, उत्तरोत्तर बढ़ती दर से संपत्ति कर लगाने का प्रस्ताव किया था, 18 अमरीकी अरबपतियों ने उनके प्रस्ताव का समर्थन किया था। भारत में कोई अरबपति ऐसा करेगा, इसकी तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। लेकिन, इसकी वजह यह नहीं है कि अमरीकी या आम तौर पर पश्चिमी पूंजीपति जिन लोगों का शोषण करते हैं, वे उनके प्रति कहीं ज्यादा उदार या दयालु होते हैं। इसकी वजह तो उनके इस विश्वास में है कि उनके देशों में पूंजीवादी व्यवस्था के अबाध रूप से चलते रहने के लिए भी यह जरूरी है कि वे गरीबों के प्रति एक हद तक चिंता दिखाएं। यह खुद उनके अपने बने रहने के लिए जरूरी है।

पश्चिम के और हमारे देश के शासक वर्ग के बीच ऐसा ही अंतर, महामारी के दौरान दोनों जगहों पर दिए गए बचाव पैकेजों के मामले में देखा जा सकता है। महामारी और उससे जुड़े लॉकडाउन के फलस्वरूप पश्चिम में भी जीडीपी में भारी गिरावट हुई और भारत में भी, और इसके चलते दोनों के ही कर राजस्व में भारी गिरावट आयी। ऐसे में, अगर महामारी बीच में नहीं आयी होती तब भी सरकारी खर्चों को पहले वाले स्तर पर बनाए रखने तक के लिए जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी की जरूरत होती। राजकोषीय घाटे में यह खुद ब खुद जरूरी हो जाने वाली बढ़ोतरी, वैसे-वैसे बढ़ती जाती, जैसे-जैसे लॉकडाउन का असर तीव्र होता जाता। ऐसे में, राजकोषीय घाटों के सापेक्ष आकार की सीधे-सीधे तुलना करने के जरिए बचाव पैकेज के परिमाण का हिसाब लगाना गलत होगा। इसके लिए तो हमें खासतौर पर इसके लिए इन पैकेजों की पड़ताल करनी होगी कि इनमें गरीबों के लिए स्वनिर्णयगत राजकोषीय सहायता कितनी रखी गयी है।

हालांकि, योरपीय सेंट्रल बैंक ने 2019 और 2020 के बीच, प्राथमिक घाटे (ब्याज संबंधी भुगतान निकाल कर) और जीडीपी के अनुपात में हुई बढ़ोतरी की तुलना कर के, योरपीय यूनियन में 6.7 फीसद तथा अमरीका में 9.8 फीसद का अनुमान लगाया है। ये आंकड़े इस संबंध में कुछ बताते ही नहीं हैं कि स्वनिर्णयगत राजकोषीय सहायता का परिमाण कितना रहा है। लेकिन, ईसीबी की रिपोर्ट 2020 में क्रमश: योरपीय यूनियन तथा अमरीका के मामले में, स्वनिर्णयगत राजकोषीय मदद की मात्रा, उनके जीडीपी के 4.2 फीसद और 7.8 फीसद के बराबर आंकी गई है। (अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अमरीका में स्वनिर्णयगत राजकोषीय सहायता की मात्रा इससे कहीं ज्यादा आंकी है, जीडीपी के 16.7 फीसद के बराबरी।)

हम इनमें से चाहे किसी भी आंकड़े को सही मानें, ये सभी आंकड़े भारत के मुकाबले कहीं बहुत ऊंचे बैठते हैं। भारत में स्वनिर्णयगत राजकोषीय सहायता 1.65 लाख से 1.9 लाख करोड़ रु के बीच कहीं बैठती है, जो कि हमारे देश के जीडीपी के 1 फीसद से भी कम है। संक्षेप में यह कि महामारी के दौरान जनता को सरकार द्वारा दी गयी सहायता के मामले में, पश्चिमी दुनिया और भारत की स्थिति में, जमीन-आसमान का अंतर है।

यह एक और तथ्य से भी साफ होता है। जहां अमरीका में सार्वभौम सहायता यानी सभी परिवारों के लिए सहायता के कदम उठाए गए हैं, भारत में ऐसे कोई कदम ही नहीं उठाए गए हैं और यह तब है जबकि अनेक अर्थशास्त्रियों, समाज सेवी संगठनों और राजनीतिक पार्टियों ने, ऐसा करने का आग्रह किया था। मिसाल के तौर पर बाइडेन द्वारा घोषित पैकेज में 75,000 डालर प्रति वर्ष से कम कमाई वाले हरेक व्यक्ति के लिए 1,400 डालर की सहायता और हरेक बेरोजगार व्यक्ति के लिए सितंबर के आरंभ तक प्रति सप्ताह 300 डालर सहायता का प्रावधान किया गया है। लेकिन, यह सिर्फ बाइडेन के पैकेज का ही मामला नहीं है। ट्रम्प ने भी जो पैकेज दिया था, उसमें गरीबों के लिए ऐसे अनेक सार्वभौम हस्तांतरण रखे गए थे। इसके विपरीत भारत में, गरीबों के लिए इस तरह के कोई सार्वभौम हस्तांतरण किए ही नहीं गए हैं।

समग्रता में मेहनतकशों को (कुछ खास लक्षित ग्रुपों से अलग) जो भी थोड़ी-बहुत सहायता दी गयी है, वह किन्हीं हस्तांतरणों के रूप में न होकर, सिर्फ मनरेगा के अंतर्गत भुगतानों के रूप में है। इस योजना के तहत काम पाने वाले मजदूरों की संख्या में 2019-20 से 2020-21 के बीच 41.75 फीसद बढ़ोतरी हुई और उनकी संख्या 7.88 करोड़ से बढक़र 11.17 करोड़ हो गयी। यह बढ़ोतरी मुख्यत: प्रवासी मजदूरों की गांव वापसी के चलते हुई थी। अचानक लॉकडाउन लगा दिए जाने के चलते, अपने आय के स्रोत तथा रिहाइश की जगहें, दोनों खो देने के चलते, ये मजदूर अपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हो गए थे। ये मजदूर गांव लौटकर ग्रामीण बेरोजगारों की फौज में शामिल हो गए और वहां मनरेगा के अंतर्गत काम करने लगे।

दूसरे शब्दों में इन मजदूरों को यह आय किसी संवेदनशील सरकार से आयी राजकोषीय मदद से संचालित नकदी हस्तांतरणों के रूप में नहीं मिल रही थी, बल्कि हाड़-तोड़ मेहनत की मांग करने वाली परियोजनाओं पर कड़ी मेहनत कर पसीना बहाकर मिल रही थी। वास्तव में, भारतीय शासन की सबसे ज्यादा संवेदनहीनता इसमें देखने में मिली कि लॉकडाउन के दौरान किराएदारों को निकालने पर कोई रोक ही नहीं लगायी गयी, जबकि अमरीका में ट्रम्प के शासन तक ने ऐसा कदम उठाया था।

बेशक, यह दलील दी जा सकती है कि और बड़ा बचाव पैकेज देने से राजकोषीय घाटे का अनुपात और भी बढ़ गया होता और यह वैश्विक वित्तीय पूंजी को और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी उसकी एजेंसियों को मंजूर नहीं हुआ होता। लेकिन, इस तर्क की तीसरी दुनिया के अन्य देशों के मामले में तो कहीं ज्यादा प्रासंगिकता होगी, लेकिन भारत में जो कुछ हुआ है उसे इस तर्क के सहारे नहीं समझा जा सकता है। भारत में तो शासन ने ऐसे कदम उठाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। नवउदारवादी व्यवस्था के दायरे में भी उसे ऐसे कदम न उठाने के लिए न तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी एजेंसियों ने मजबूर किया था और न वित्त के पलायन की किसी लहर ने उसे अपने खर्चों पर ऐसा अंकुश लगाने पर मजबूर किया था। इसलिए, इस मामले में भारतीय शासन की कंजूसी को तो सिर्फ एक ही तरह से समझा जा सकता है कि उसे मेहनतकश जनता की रत्तीभर परवाह ही नहीं है। इसलिए, यहां से हम वापस इस पर लौट सकते हैं कि भारत और पश्चिम के मामलों में हमें गरीबों के प्रति सत्ताधारी वर्ग के सलूक में भारी अंतर दिखाई देता है।

इस अंतर के पीछे हम कम से कम तीन कारकों का हाथ देख सकते हैं। पहला है, भारत की मेहनतकश जनता के हाथों में सौदेबाजी की ताकत का बहुत कम होना। इसका संबंध इससे है कि इन मेहनतकशों में प्रचंड बहुमत, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का है। इस देश में बेरोजगारी का स्तर बहुत ही ज्यादा है और यहां इसके चलते श्रम शक्ति के बीच ‘रोजगार की राशनिंग’ यह रूप नहीं लेती है कि कुछ के पास पूर्ण रोजगार हो जबकि अन्य पूरी तरह से बेरोजगार हों बल्कि रोजगार की यह राशनिंग सभी के आंशिक रूप से ही रोजगार में होने का रूप लेती है। इन हालात में मजदूरों को संगठित करना दोगुना मुश्किल हो जाता है। इसके मुश्किल होने की एक वजह तो बेरोजगारी का विकराल आकार ही है। दूसरी वजह यह है कि यह बेरोजगारी, बहुत सारे लोगों के बीच थोड़ी-थोड़ी बेरोजगारी के रूप में बिखेर दी जाती है। महामारी के दौरान मोदी सरकार ने धींगामुश्ती से जो श्रम कानून संसद से पास कराए हैं, मजदूरों के लिए हालात को बदतर बनाने का ही काम करते हैं।

बेशक, यह पूछा जा सकता है कि मजदूरों, किसानों तथा खेत मजदूरों के संगठन हमारे देश में कमजोर हैं तो भी क्या हुआ, ये मेहनतकश मिलकर आखिरकार चुनाव के समय तो सरकार के खिलाफ मतदान करने के जरिए, उस पर एक दबाव बना ही सकते हैं। वास्तव में ऐसा होने की संभावना से ही, सरकार को मेहनतकशों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील और इसलिए उनकी दुर्दशा के प्रति उसका रुख हमदर्दी भरा होना चाहिए था। लेकिन, यह हमें दूसरे कारक पर ले आता है, जो कि मोदी सरकार के मामले में खासतौर पर प्रासंगिक है। सांप्रदायिक आधार पर जनता को बांटने तथा अपने पीछे बहुसंख्यकवादी समर्थन को पुख्ता कर लेने का इस सरकार का यकीन इतना पक्का है कि उसे लगता है कि वह मेहतनकशों के रूप में मेहनतक जनता की हालत की ओर से अपनी आंखें ही बंद किए रह सकती है। इसके लिए, इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी लॉकडाउन की घोषणा बहुत अत्याचारपूर्ण थी। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि लॉकडाउन सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर जारी किया गया था। फर्क नहीं पड़ता कि लाखों प्रवासी मजदूरों को सडक़ों पर पैदल-पैदल ही अपने गांवों तक घिसटने के लिए पटक दिया गया। फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें कोई मदद ही नहीं दी गयी और वापस गांव पहुंचने के बाद, अपनी रोज की रोटी जुटाने के लिए उन्हें मनरेगा के अंतर्गत कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। उसे इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जब भी चुनाव आएंगे, उनके वोट तो सत्ताधारी पार्टी द्वारा सांप्रदायिक धु्रवीकरण के सहारे बटोर ही लिए जाएंगे या कम से कम शासक पार्टी ऐसा मानती है। यही सोच है जो उसे मेहनतकश जनता की भौतिक जरूरतों के प्रति पूरी तरह से संवेदनहीन बनाती है।

तीसरा कारक यह है कि जाति व्यवस्था के रूप में गरीबों तथा मेहनतकशों की दुर्दशा के प्रति आंखें मूंदे रहने की परंपरा, लंबे अर्से से भारतीय समाज की पहचान बनी रही है। मेहनतकश बहुत हद तक दबे हुए तबकों, तथाकथित ‘निचली जातियों’ से आते हैं और ‘निचली जातियों’ के प्रति संवेदनहीनता, मेहनतकश जनता की जरूरतों के प्रति संवेदनहीनता का रूप ले लेती है।

हमारे देश के उपनिवेशविरोधी संघर्ष जिसे हम ऐतिहासि संदर्भ में समाजवाद को आगे बढ़ाने वाली लड़ाई के तौर पर देख सकते हैं, उसे उल्लेखनीय हद तक इस तरह के रुख को पीछे छोड़ना पड़ा था और एक ऐसे भारत की कल्पना लोगों को दिखाई थी, जहां सभी नागरिकों को समान रूप से समान अधिकार हासिल हों, भले ही उनकी जाति, वर्ग, धर्म या लिंग कुछ भी हो। लेकिन, ऐतिहासिक संदर्भ में प्रतिगामी दिशा में आए बदलाव के साथ पुराने पूर्वाग्रहों की और भयानक रूप में वापसी हो गयी है।

यह स्मरणीय है कि जी डी बिड़ला ने एक बार अपने कुछ उद्योगपति साथियों को एक पत्र लिखकर उनसे आग्रह किया था कि वे अपनी दौलत की खुलेआम नुमाइश न करें, वर्ना जनमत उनके खिलाफ हो सकता है। यह मौजूदा ऐतिहासिक संदर्भ में आए बदलाव का ही चिन्ह है कि आज देश का एक शीर्ष उद्योगपति, मुंबई की बीचौ-बीच एक विशाल बहुमंजिला महल खड़ा कर के अपनी दौलत का सार्वजनिक प्रदर्शन करता है और इसके लिए उसकी आलोचना के बजाय, सीधे देश के प्रधानमंत्री द्वारा ही अमूल्य ‘संपत्ति निर्माता’ कहकर सराहा जाता है! 

(लेखक प्रख्यात अर्थशास्त्री और राजीतिक विश्लेषक हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Modi Govt and Its Lack of Concern for the Working Class

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