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बुरी तरह पिट चुका है मोदी का 'डबल इंजन वाली सरकार’ का फार्मूला!

पिछले छह महीनों के दौरान एक के बाद एक चार भाजपा शासित राज्यों में जिस तेजी से मुख्यमंत्री बदले गए हैं, उससे यही ज़ाहिर होता है कि इन राज्यों में डबल इंजन की सरकारें पूरी तरह नाकारा साबित हुई हैं।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी किसी राज्य में विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी का प्रचार करने जाते हैं तो वे लोगों से डबल इंजन की सरकार बनाने की अपील करते हैं। डबल इंजन की सरकार यानी केंद्र के साथ राज्यों में भी भाजपा की सरकार। अपनी चुनावी रैलियों में मोदी का कहना रहता हैं कि डबल इंजन की सरकार बनने से राज्य का विकास तेजी होगा और उसके किसी काम में रुकावट नहीं आएगी।

प्रधानमंत्री की यह अपील और दलील अलोकतांत्रिक तो होती ही है, साथ ही देश के संघीय ढांचे और प्रधानमंत्री पद की मर्यादा के भी खिलाफ होती है। लेकिन इसके बावजूद कई राज्यों में लोगों ने उनकी इस अपील पर भाजपा को वोट दिया है, जिससे कई राज्यों में भाजपा की सरकारें बनी हैं। जिन राज्यों में लोगों ने इस अपील को खारिज कर भाजपा को विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया, वहां भी भाजपा ने विधायकों की खरीद-फरोख्त कर डबल इंजन की सरकारें बनाई हैं या बनाने की कोशिश की है।

मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, हरियाणा आदि ऐसे ही राज्य हैं, जहां बहुमत का अपहरण कर डबल इंजन की सरकारें बनाई गई हैं। ऐसी सरकारें बनाने की कोशिश राजस्थान, महाराष्ट्र और झारखंड में भी की जा चुकी हैं लेकिन वहां उसे कामयाबी नहीं मिली। हालांकि महाराष्ट्र और झारखंड में उसने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है।

लेकिन पिछले छह महीनों के दौरान एक के बाद एक चार भाजपा शासित राज्यों में जिस तेजी से मुख्यमंत्री बदले गए हैं, उससे यही जाहिर होता है कि इन राज्यों में डबल इंजन की सरकारें पूरी तरह नाकारा साबित हुई हैं। इन राज्यों में सरकार के कामकाज को लेकर न सिर्फ जनता में असंतोष है बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी सरकारों से खुश नहीं हैं। भाजपा ने अभी तक जिन राज्यों में मुख्यमंत्री बदले हैं, उनमें असम, उत्तराखंड, कर्नाटक और गुजरात शामिल हैं।

वैसे दिलचस्प तथ्य यह भी है 'डबल इंजन की सरकार’ वाले राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला पांच साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गृह राज्य गुजरात से ही शुरू हुआ था। इस सूबे में नरेंद्र मोदी करीब साढ़े बारह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे थे और 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के करीब एक साल बाद ही राज्य में सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर उथल-पुथल शुरू हो गई थी। अगस्त 2015 में भाजपा की सबसे मजबूत समर्थक समझी जाने वाली पटेल बिरादरी ने आरक्षण की मांग को लेकर एक तरह से बगावत का झंडा उठा लिया था।

पटेलों के आंदोलन के दौरान लंबे समय तक व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई थी। अरबों रुपए की सरकारी और निजी संपत्ति आगजनी और तोड़फोड़ की शिकार हो गई थी। एक 24 वर्षीय नौजवान अपनी बिरादरी के लिए हीरो और राज्य सरकार के चुनौती बन गया था। भाजपा के इस सबसे मजबूत गढ़ में डबल इंजन सरकार की चूलें हिल गई थीं। पटेल बिरादरी के आंदोलन को काबू में करने के लिए न सिर्फ राज्य सरकार को बल्कि केंद्र सरकार को भी अपनी ताकत झोंक देनी पड़ी थी।

इस हिंसक टकराव के कुछ ही दिनों बाद 'डबल इंजन वाली सरकार’ के इस सूबे में दलित समुदाय के लोगों पर गोरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोगी संगठनों का कहर टूट पड़ा। दलितों ने यद्यपि जवाबी हिंसा नहीं की लेकिन उन्होंने अपने तरीके से अपने ऊपर हुए हमलों का प्रतिकार किया। जातीय तनाव के चलते हालात इतने बेकाबू हो गए कि भाजपा को सूबे में अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आने लगी। इस स्थिति को संभालने के लिए अगस्त 2016 में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को हटाना पड़ा।

आनंदीबेन की जगह विजय रुपाणी 'डबल इंजन की सरकार’ के मुख्यमंत्री बनाए गए। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री भले ही रुपाणी थे लेकिन पार्टी ने वह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही लड़ा। उस चुनाव में भाजपा को कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिली। फिर भी उसे जैसे-तैसे सरकार बनाने लायक बहुमत तो हासिल हो गया लेकिन विधानसभा में न सिर्फ उसकी सीटें काफी घट गईं बल्कि उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी भारी गिरावट दर्ज हुई।

यद्यपि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की सभी सीटों पर जीत दर्ज कराने में सफल रही, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में विजय रुपाणी कठपुतली मुख्यमंत्री ही साबित हुए। कोरोना महामारी से निबटने के मामले भी उनकी सरकार पूरी तरह नाकारा साबित हुई, जिसके चलते उसे कई बार हाई कोर्ट ने भी लताड़ा। रुपाणी के कामकाज को लेकर न सिर्फ पार्टी में असंतोष और गुटबाजी पनपने लगी बल्कि सामाजिक तनाव की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं आया। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को विभिन्न स्रोतों से जो फीडबैक मिला उसमें भी यही बताया गया कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को जबरदस्त रूप से एंटी इनकम्बेंसी यानी सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना करना पड़ सकता है।

इसी फीडबैक के आधार पर न सिर्फ विजय रुपाणी को हटाया गया बल्कि उनकी सरकार में शामिल रहे किसी भी मंत्री को नई सरकार में शामिल नहीं किया गया। कई वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को नजरअंदाज कर जिन भूपेंद्र पटेल को रुपाणी की जगह मुख्यमंत्री बनाया गया है, वे पहली बार ही विधायक बने हैं और उनका प्रशासनिक अनुभव शून्य है। चुनावी गणित के लिहाज से उनकी एकमात्र योग्यता उनका पटेल होना ही है और भाजपा से नाराज चल रहे पटेल समुदाय को साधने के लिए ही उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया है। जाहिर है कि वे भी रिमोट से ही संचालित होकर काम करेंगे और वहां पार्टी अगला चुनाव एक बार फिर मोदी के चेहरे पर लड़ेगी।

कुल मिलाकर पांच साल में गुजरात को तीन मुख्यमंत्री मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि गुजरात से नरेंद्र मोदी के हटने के बाद वहां भाजपा की पकड़ कमजोर हुई है और उसे अपनी जमीन खिसकती साफ नजर आ रही है।

गुजरात सहित अन्य राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने के सिलसिले की शुरुआत हाल के दिनों में असम से हुई। वहां भाजपा ने पिछला विधानसभा चुनाव तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के चेहरे पर ही लड़ा था लेकिन चुनाव के बाद सरकार के नेतृत्व को लेकर पार्टी में मचे घमासान और बगावत की स्थिति को थामने के लिए भाजपा आलाकमान को सोनोवाल की जगह कांग्रेस से आए हिमंता बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। जातीय और गुटीय संतुलन बनाए रखने के लिए आदिवासी तबके के सोनोवाल केंद्र में मंत्री बनाए गए।

असम के बाद उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने के मामले में तो भाजपा ने गजब ही कर डाला। गुजरात जैसा ही किस्सा उत्तराखंड में दोहराया गया है। वहां 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल की थी, लेकिन मुख्यमंत्री के चयन में विधायकों की पसंद को दरकिनार कर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी पसंद के त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया। उनके मुख्यमंत्री बनने के साथ ही पार्टी में उनके खिलाफ विरोध के स्वर उठना शुरू हो गए थे लेकिन उस पर पार्टी नेतृत्व ने जरा भी ध्यान नहीं दिया। लेकिन इस साल के शुरू में विभिन्न स्रोतों से मिली रिपोर्ट के आधार पर शीर्ष नेतृत्व ने महसूस किया कि अगर मुख्यमंत्री नहीं बदला गया तो एक साल बाद होने वाले चुनाव में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसी फीडबैक के आधार पर इसी साल मार्च महीने में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया।

लेकिन यह फैसला भी भाजपा के भारी पड़ गया। तीरथ सिंह रावत ने मुख्यमंत्री बनते ही उलजुलूल बयानों की झडी लगा दी, जिससे सोशल मीडिया में न सिर्फ मुख्यमंत्री की बल्कि भाजपा की भी खूब किरकिरी हुई। फिर हरिद्वार के कुंभ मेले से हुए कोरोना विस्फोट और इसे लेकर रावत के फैसलों ने भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अहसास करा दिया कि मुख्यमंत्री के रूप में उसका चुनाव सही नहीं रहा। चूंकि नाकामियों के चलते एक और मुख्यमंत्री इतनी जल्दी हटाना भाजपा के लिए आसान नहीं था लेकिन हटाना भी जरूरी था, सो चुनाव आयोग का सहारा लिया गया।

चूंकि तीरथ सिंह रावत विधानसभा के सदस्य नहीं थे और उन्हें संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक पद ग्रहण से छह महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना था, लेकिन चुनाव आयोग ने कोरोना का हवाला देते हुए राज्य में उप चुनाव कराने में असमर्थता जता दी। चुनाव आयोग के इसी ऐलान का सहारा लेते हुए तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से विदा किया गया। उनकी जगह लेने के लिए पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने दावेदारी पेश की लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने एक बार फिर अपनी पसंद थोपते हुए प्रशासनिक तौर पर अनुभवहीन पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया। इस प्रकार चार साल में तीन मुख्यमंत्री और तीन महीने में दो बार मुख्यमंत्री बदले जाने की कवायद ने इस राज्य में भी डबल इंजन वाली सरकार की हवा निकाल दी।

दक्षिण भारत में कर्नाटक ही एकमात्र राज्य है, जहां भाजपा की डबल इंजन वाली सरकार है। यह सरकार स्वाभाविक जनादेश से नहीं बल्कि विधायकों की खरीद-फरोख्त से बनी है। इस सूबे में भाजपा ने जो भी ताकत अर्जित की है, उसका श्रेय मुख्यमंत्री पद से हटाए गए बीएस येदियुरप्पा को जाता है। वे राज्य में राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा प्रभावी लिंगायत समुदाय के नेता हैं और उन्हीं की वजह से लिंगायत समुदाय भाजपा से जुड़ा है। येदियुरप्पा 78 वर्ष के हो चुके हैं और 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव तक उनकी उम्र 80 वर्ष पार कर जाएगी। इसलिए पार्टी को उनका विकल्प खोजना ही था, लेकिन उन्हें हटने के लिए राजी करना पार्टी नेतृत्व के लिए आसान नहीं रहा।

येदियुरप्पा ने लिंगायत समुदाय के तमाम मठों से जुड़े साधु-संतों के जरिए अंतिम समय तक भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाने की कोशिश की लेकिन आखिरकार उन्हें कुर्सी छोड़नी पडी। अलबत्ता उनका उत्तराधिकारी चुनने में पार्टी ने उनकी पसंद को तरजीह दी और बसवराज बोम्मई मुख्यमंत्री बनाए गए। बोम्मई भी हालांकि लिंगायत समुदाय के ही हैं लेकिन उनका अपने समुदाय पर येदियुरप्पा जैसा असर नहीं है' फिर एक बात यह भी है कि वे मूल रूप से भाजपा या आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले नहीं हैं। उन्हें येदियुरप्पा जनता दल से भाजपा में लाए थे, इसलिए उनके चयन को राज्य में पार्टी के दूसरे कई पुराने नेताओं ने पसंद नहीं किया है। जाहिर है कि पार्टी में गुटबाजी बढ़ेगी जिसका असर न सिर्फ सरकार के कामकाज पर बल्कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिल सकता है।

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी का 'डबल इंजन वाली सरकार का फार्मूला’ सिर्फ गुजरात, असम, उत्तराखंड और कर्नाटक में ही पिटा हो। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में तो इस फार्मूले की बाकी राज्यों की तुलना में ज्यादा धज्जियां उड़ी हैं। इस बात का अहसास भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी खूब है और वह इस सूबे में भी मुख्यमंत्री बदलने की कोशिश पिछले दिनों कर चुका है, लेकिन हिंदुत्व का ऑइकन नंबर वन बनने के मामले में मोदी को पीछे छोड़ चुके योगी आदित्यनाथ ने अपने सख्त और बगावती तेवरों से उस कोशिश को परवान नहीं चढ़ने दिया। यही नहीं, उन्होंने पार्टी को आधिकारिक तौर यह स्पष्ट करने को भी मजबूर कर दिया कि उत्तर प्रदेश में आगामी चुनाव योगी के चेहरे पर ही लड़ा जाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि योगी ने अपने तेवरों से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हनक को फीका किया है।

बहरहाल, डबल इंजन वाली सरकार वाले राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला अभी थमने वाला नहीं है। अभी मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा से भी सरकारों के प्रदर्शन को लेकर जो फीडबैक दिल्ली पहुंच रहा है, वह पार्टी नेतृत्व की चिंता बढ़ाने वाला है। इन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पार्टी में भी असंतोष खबरें आ रही हैं। इन चारों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पिछले दिनों दिल्ली भी तलब किया जा चुका है और इन राज्यों के असंतुष्ट भी दिल्ली आकर शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात कर चुके हैं। मुख्यमंत्री चारों राज्यों में बदले जाना लगभग तय है। बस देखने वाली बात यह होगी कि पहले किसका नंबर आता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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