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महाराष्ट्र: कौन करेगा शालाबंदी का विरोध?

सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता की कमी का दावा करके स्कूलों को बंद करने का तर्क दिया जा रहा है और इसी आधार पर सरकार के इस निर्णय का विरोध करने वालों की आवाज को दबा दी जा रही है।
School

कुछ दिनों पहले खबर आई कि महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में सरकार अपने ही तेरह सौ स्कूल बंद करने जा रही है, वजह बताई गई कि इन स्कूलों में बच्चों की संख्या कम है।

बता दें कि रत्नागिरी जिले के 28 स्कूल बंद किए जा चुके हैं। कहा जा रहा है कई स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ने के बावजूद बच्चों की संख्या घटती जा रही है। ऐसे में इन स्कूलों के अस्तित्व को बचाने के लिए शिक्षकों को कड़ी मशक्कत करनी पढ़ रही है।

यह मशक्कत सिर्फ रत्नागिरी जिले तक सीमित नहीं है। राज्य के कई जिलों के सरकारी स्कूल लगातार बंद किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ, यहां करीब 14 हजार स्कूलों को बंद करने की तैयारी चल रही है।

हालांकि, विरोधी दल राज्य सरकार के इस निर्णय की आलोचना कर रहे हैं, लेकिन यह आलोचना महज बयानों तक सीमित है। पिछले दिनों राज्य सरकार के इस निर्णय को लेकर राज्य के विरोधी दल कांग्रेस ने इस पर आपत्ति जताई है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले ने स्कूलों को बंद करने की कार्रवाई को तत्काल रोकने की मांग की है।

इस संबंध में उन्होंने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को पत्र लिखा है और हवाला दिया कि महाराष्ट्र को देश के शैक्षिक रूप से अग्रणी और उन्नत राज्य के रूप में जाना जाता है। यदि हजारों की संख्या में प्राथमिक स्कूल बंद कर दिए गए तो राज्य शिक्षा के स्तर पर पिछड़ जाएगा और कई हजार बच्चों को प्राथमिक शिक्षा से ही वंचित होना पड़ेगा।

मातृभाषा के जरिए दी जाने वाली शिक्षा का क्या?

देखा जाए तो कम नामांकन वाले स्कूलों की जानकारी मांगना, फिर दूरी आदि के कारण उन्हें 'समायोजन' के नाम पर बंद करना, इस तरह कई राज्यों में हजारों की संख्या में सरकारी स्कूल बंद हो गए हैं। वहीं, महाराष्ट्र और महाराष्ट्र के बाहर दूसरे राज्यों में हजारों की संख्या में सरकारी स्कूल बंद करने की तैयारी चल रही है। इससे मातृभाषा के जरिए दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा को सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा है। सवाल है कि इसका विरोध कौन करेगा? शिक्षक संघ तक इस पर चुप क्यों हैं?

प्रशासनिक स्तर पर शालाबंदी से जुड़ी खबरें राज्य और देश के कई दूसरे राज्यों से लगातार आ रही हैं। लेकिन, इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस मुद्दे को हर तरफ सन्नाटा है। ऐसा तब है जब संविधान के अनुच्छेद 45 में 6 से 14 साल की उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है, फिर भी यह सच है कि हम सार्वभौमिकरण से मीलों दूर हैं।

1 अप्रैल 2010 से शिक्षा का अधिकार बहाल किया गया था, लेकिन अफसोस कि आज स्कूलों पर प्रतिबंध लगाने के लिए ही कदम उठाए जा रहे हैं। यदि एक किलोमीटर के भीतर दूसरा प्राथमिक स्कूल है तो कम उत्तीर्ण अंक वाले बच्चों को प्राथमिकता दी जाएगी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम में स्कूलों को बंद करने का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। फिर भी राज्यों द्वारा उनके वित्त विभागों के इशारे पर स्कूलों पर प्रतिबंध समझ से परे है

महाराष्ट्र में किन परिवारों के बच्चे होंगे शिक्षा से बेदखल?

महाराष्ट्र राज्य के उदाहरण से समझें तो शालाबंदी का काम 25 अगस्त 2015 से ही शुरू हो गया था, जब वित्त विभाग ने राज्य के कई स्कूलों को बंद करने का मन बना लिया था। तब से सरकारी स्तर पर 'शालाबंदी अभियान' में सभी संबंधित पक्ष खुशी से सक्रिय हैं। उनका तर्क है कि सरकार इस तरह से अपने खजाने में हजारों करोड़ रुपए बचाएगी। शिक्षा पर होने वाले खर्च को भविष्य का निवेश मानने की मानसिकता की कमी के कारण पिछले एक दशक में शिक्षा पर होने वाला खर्च कम होता जा रहा है। केंद्रीय बजट में शिक्षा पर होने वाला खर्च करीब तीन फीसदी के करीब और महाराष्ट्र के बजट में घटकर 1.84 फीसदी रह गया है। यही कारण है कि मानव विकास सूचकांक में भारत 188 देशों में 133वें स्थान पर है।

सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता की कमी का दावा करके स्कूलों को बंद करने का तर्क दिया जा रहा है और इसी आधार पर सरकार के इस निर्णय का विरोध करने वालों की आवाज को दबा दी जा रही है। महाराष्ट्र में यह जनता में भ्रम पैदा कर मराठी स्कूलों को बंद करने की साजिश का हिस्सा है तो वहीं उत्तर भारतीय हिन्दी राज्यों में इस तरह के निर्णय से बड़ी संख्या में हिन्दी माध्यम के स्कूल ही बंद हुए है। इसी साल हरियाणा में एक झटके में सौ से अधिक सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए।

देखा जाए तो कम नामांकन वाले स्कूल मुख्य रूप से दूरदराज के इलाकों में होते हैं, यह इलाके आमतौर पर आदिवासी अंचलों में होते हैं, इसलिए शालाबंदी से होने वाले नुकसान का असर भी इन्हीं इलाके के बच्चों की शिक्षा पर पढ़ेगा। निस्संदेह अज्ञानता से जड़ता और गहरी होती जाएगी। आगे चलकर यही हाल उच्च प्राथमिक स्कूलों का भी होगा और फिर उन्हें बदं करने का सिलसिला चल पड़ेगा। इससे विशेषकर लड़कियों की शिक्षा और कठिन हो जाएगी।

महाराष्ट्र में भी जिन 14 हजार स्कूलों को बदं करने की तैयारी की जा रही हैं वे राज्य के दूर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं, जहां किसान, मजदूर, गरीब और सामान्य परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। अगर गांवों के इन स्कूलों को बंद कर दिया गया तो किसान, मजदूर, गरीब और सामान्य परिवारों के बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हो जाएंगे।

अपनी जिम्मेदारी से क्यों भाग रही सरकार?

महाराष्ट्र में मराठी स्कूल बंद होने के कई कारण हैं। कई स्कूल भवन जर्जर हालत में पहुंच गए थे। दूरदराज के इलाके में स्कूल तो खोल दिए गए थे, मगर उन स्कूलों तक पढ़ने के लिए खासी संख्या में बच्चे नहीं आ रहे थे। इसी बीच प्राइवेट स्कूलों की तादाद भी लगातार बढ़ती चली गई और सरकारी स्कूल केवल गरीब बच्चों के लिए रह गए। मराठी स्कूलों में शिक्षण की गतिविधियां कम होती गईं, नवीन शैक्षणिक प्रयोग बंद हो गए और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मूल इरादे को दरकिनार कर दिया गया।

महाराष्ट्र में राज्य की सरकार एक ओर मराठी भाषा को बढ़ावा देकर अपनी पहचान की रक्षा करने का दिखावा कर रही है, वहीं सरकारी व्यवस्था में सरकारी मराठी स्कूलों का संरक्षण छीन रही है। स्कूल प्रतिबंध के कठोर उपाय से स्कूल सशक्तिकरण अधिक महत्वपूर्ण है, जो कि यह सरकार की जिम्मेदारी है। फंड की बचत से ज्यादा जरूरी है फंड का बेहतर इस्तेमाल। प्रत्येक शिक्षक को यह समझना चाहिए कि उसकी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से उसकी नौकरी बचाई जा सकती है। शिक्षक जब लगन से काम करेंगे तो न बच्चों की संख्या कम पड़ेगी और न ही सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आएगी।

पिछले सालों में देश भर में लगातार सरकारी स्कूलों में ताला डाला जा रहा है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस डेटा के मुताबिक देश में सरकारी स्कूलों की संख्या कम हुई है, जबकि प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ी है। ऐसा तब है जब कोरोना महामारी के दौरान सरकारी स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले बच्चों के ज्यादा एडमिशन हुए, जिससे जाहिर होता है कि आर्थिक समस्या की स्थिति में कई परिवारों के लिए सरकारी स्कूल बड़ी राहत के तौर पर हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2019 तक देश में 51 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए। इनमें सबसे ज्यादा 26 हजार सरकारी स्कूल उत्तर प्रदेश में बंद किए गए।

जहां तक महाराष्ट्र में सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता का सवाल है तो दूरदराज के आदिवासी अंचल में इनकी गुणवत्ता का स्तर काफी अच्छा रहा है। राज्य में सरकारी स्कूलों के बेहतरीकरण के लिए शिक्षकों, पालकों, समुदायों व पंचायतों द्वारा की गई पहलकदमियों की प्रेरणादायक कहानियां दर्ज की हैं। ये कहानियां, बदलाव की तीन अहम संभावनाओं को उजागर करती हैं। पहला, सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता सभी तबकों के बच्चों के लिए बेहतरीन करना मुमकिन है। दूसरा, बहुजन (आदिवासी, दलित, ओबीसी, मुस्लिम, विमुक्त व घुमंतू जाति) बच्चे कभी भी ‘ड्रॉप-आउट’ नहीं होते बल्कि पूरी स्कूली व्यवस्था और माहौल के द्वारा वे ‘पुश-आउट’ या बेदखल किए जाते हैं। तीसरा, यह मिथक है कि प्राइवेट स्कूल बेहतर होते हैं और सरकारी स्कूल घटिया। लेकिन, राज्य के कई स्कूल गवाह है कि जब इन सरकारी स्कूलों में बदलाव लाए गए तो न केवल पालकों ने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों से निकालकर सरकारी स्कूलों में भेजा, बहुजनों के बेदखल किए गए बच्चे-बच्चियां भी स्कूल आने लगे यानी पूरे गांव या इलाके का सरकारी स्कूल पर भरोसा लौट आया।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

 

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