Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मोदी 2.0: बहुसंख्यकवाद फिर स्थापित हुआ?

दशकों तक लोकतंत्र की यात्रा के लिए ये चुनावी नतीजे अहम होंगे और अल्पसंख्यकों की ख़ामोशी और अदृश्यता इसके तार्किक परिणाम साबित होंगे।
मोदी 2.0: बहुसंख्यकवाद फिर स्थापित हुआ?

“ये संकट इस तथ्य में निहित है कि व्रद्ध मर रहा है और नया बच्चा पैदा नहीं हो सकता है; इस अराजक काल में विकृत लक्षणों की एक बड़ी विविधता दिखाई देती है।”
-ग्राम्स्की

एक पत्रकार मित्र की भविष्यवाणी आख़िरकार सच हो गई है।

पुलवामा आतंकी हमले का बदला लेने के लिए जिस दिन भारत ने सीमा पार 'सर्जिकल स्ट्राइक' की मेरे एक मित्र ने तुरंत एक व्हाट्सएप ग्रुप पर मैसेज भेजा कि नरेंद्र मोदी ने ख़ुद को दूसरे कार्यकाल के लिए पक्का कर लिया है। वे इस ग्रुप में वाम समर्थित मित्रों द्वारा कुछ गरमा गरम बहस के बावजूद अपनी बातों पर क़ायम रहे।

आने वाले दिनों में धर्मनिरपेक्ष खेमे की इस तरह की शिकस्त की उम्मीद नहीं की जा सकती है और नए क्षेत्रों और समुदायों में हिंदुत्व के वर्चस्ववादी खेमे की लहर का विभिन्न दृष्टिकोणों से और अधिक विश्लेषण/बहस/चर्चा होगी। इस बात पर चर्चा की जाएगी कि अमर्त्य सेन जैसे बुद्धिजीवी द्वारा चिंता व्यक्त करने के बावजूद भारत ने "2014 के बाद से ग़लत दिशा में क़दम" कैसे बढ़ाया है; हमारे समय के प्रमुख विद्वानों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों द्वारा सचेत किए जाने के बावजूद इस चुनाव में भारत की साख दांव पर किस तरह है, आम तौर पर लोगों ने उनकी अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसी दिशा में नए सिरे से क़दम बढ़ाते रहने का संकल्प लिया या पुरानी अवधारणा को हटाते हुए 'न्यू इंडिया' के इस विचार को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया। याद रखिए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) न सिर्फ़ पिछली बार की तुलना में अधिक सीटें हासिल करने में सफ़ल रही है बल्कि उसका वोट शेयर भी 5% से ज़्यादा बढ़ गया है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इन नतीजों ने कई लोगों को चौंका दिया है लेकिन खेल में नए कारकों और सत्ता में नए खिलाड़ियों के साथ संकेत अशुभ थे और अभिकल्पना तथा भ्रम के साथ 'हिंदू भारत को कट्टरपंथी बनाने की योजना के साथ' और आगे की गति प्राप्त कर रहे थे।

लोग इसका भी विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे कि भारत में सोशल मीडिया ख़ासकर व्हाट्सएप के तेज़ी से प्रसार से चुनाव कितने ज़्यादा प्रभावित किए गए जिससे दक्षिणपंथी विचारों और ख़ास एजेंडे को तेज़ी से फैलने में मदद मिली। ये एजेंडा संतुलन तथा समावेश की आवाज़ को हानि पहुँचाता है।


सीएसडीएस-लोकनीति जैसे पेशेवर संस्थानों द्वारा किए गए चुनाव-पूर्व और चुनाव के बाद के सर्वेक्षणों को जिन लोगों ने देखा था उनके लिए यह स्पष्ट हो गया था कि हवा किस तरफ़ बह रही थी। किसान संकट, बेरोज़गारी, क़ीमतों में वृद्धि आदि मुद्दों पर कितनी कम तवज्जो थी और सुरक्षा, राष्ट्रवाद, बालाकोट आदि मुद्दों पर कितना ज़्यादा ध्यान दिया गया और कैसे चुनाव "कम से कम आंशिक रूप से किसी व्यक्तित्व द्वारा नियंत्रित किया जा सका है।" और ये इस तथ्य के बावजूद कि पीएम मोदी के थिंकटैंक के सदस्यों ने भी ख़ुद 'भारत की अर्थव्यवस्था के संकट' को स्वीकार किया था और यह कैसे 'संरचनात्मक संकट के जोखिम को संचालित कर रहा है और जल्द ही "मध्य -आय के जंजाल" में फँस सकता है।

सवाल उठता है कि वास्तविक आजीविका के मुद्दों के लिए मामूली तवज्जो और जुनून के मुद्दों, भावनाओं के मुद्दों के लिए इतनी ज़्यादा तवज्जो को किस चीज़ ने प्रेरित किया? वादे और कार्य-निष्पादन के साथ-साथ बयानबाज़ी और वास्तविकता के बीच इस भारी अंतर पर लोगों ने चिंता क्यों नहीं की।

एक तरफ़ यह साझा किया जा सकता है कि सत्तारूढ़ व्यवस्था से भौंडे बयान के साथ-साथ 'कट्टर प्रतिद्वंद्वी' (घर में घुस कर मारा) या आकस्मिक तरीक़े जिसमें परमाणु हथियारों के उपयोग का उल्लेख हुआ जो लोगों के बीच भारी गूंज दिखाई दी होगी और पाकिस्तान को कोसने पर भुनाया गया जो कि राष्ट्रवाद के समान है।

यह सच है कि केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि अन्य राजनैतिक दल जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल, वाम आदि को यह समझने के लिए बहुत चिंतन की ज़रूरत है कि वे सामूहिक रूप से मोदी लहर को रोकने में नाकाम क्यों रहे और आने वाले दिनों में उन्हें कैसी रणनीति बनाने की ज़रूरत है ताकि हिंदुत्व के विचार को प्रभावी ढंग से चुनौती दी जा सके।

पूरे धर्मनिरपेक्ष खेमे की दुर्दशा का वर्णन एक सामान्य तथ्य से किया जा सकता है। संसद का लगातार दूसरा कार्यकाल ऐसा होगा जब विपक्ष (सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को कुल सीटों का कम से कम 10% सीट मिलना चाहिए) का कोई नेता नहीं होगा।

दक्षिण एशिया के इस हिस्से में दशकों तक लोकतंत्र की आगे की यात्रा के लिए इस नतीजे के कुछ पहलुओं के महत्वपूर्ण प्रभाव होंगे।

* ऐसा लगता है कि बहुसंख्यकवाद (बहुसंख्यक द्वारा शासन) जो लोकतंत्र के समान लगता है लेकिन जो अनिवार्य रूप से लोकतंत्र के शीश पर है और जिसने पिछले चुनावों में सशक्त प्रवेश किया, वो अब आम हो जाएगा।

* अल्पसंख्यकों की ख़ामोशी और अदृश्यता इसके तार्किक परिणाम होंगे।

* 2019 का चुनाव जो मोदी की छवि के इर्द-गिर्द लड़ा गया जो कि 2014 के प्रयोग को दोहराया गया है उसने अनजाने में या इसी तरह इस संसदीय प्रणाली को अध्यक्षीय संरचना के रूप में अपनाया गया है।

* यह विकास जो व्यक्तित्वों को केंद्र में ले जाता है वह पार्टी संगठन के संपूर्ण विचार और इसके निर्माण की थकाऊ प्रक्रिया को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।

* इस समय सत्तारूढ़ दल बीजेपी जिसने एक तरह के सामूहिक नेतृत्व को प्रोजेक्ट करने की कोशिश की थी वह भी ख़ुद में बड़ा बदलाव पाती है और अब वह पीएम मोदी के व्यक्तित्व की छाया में और अधिक बढ़ेगी।

ज़बरदस्त चुनौती जो धर्मनिरपेक्ष भारतीयों की प्रतीक्षा कर रही है उसे भारत में बीजेपी की इस बढ़त को लेकर प्रोफ़ेसर सुहास पल्शीकर के इस कथन से जानकारी मिल सकती है। उनके अनुसार इसने एक नए अधिपत्य को गढ़ने की चल रही राजनीति और सामान्य रूप में सार्वजनिक जीवन और भारत के लोकतंत्र के लिए एक नए वैचारिक ढांचे के उद्भव के रूप में निश्चित रूप से योगदान दिया है जो देखा जा रहा है। (इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 18 अगस्त 2018, वॉल्यूम LIII, नंबर 33, टुवार्ड्स हेजेमोनी- बीजेपी बीयोन्ड इलेक्टोरल डोमिनेंस)

आगे चर्चा करते हुए पल्शीकर ने कहा कि कैसे "दूसरी प्रमुख पार्टी व्यवस्था" जिसका प्रतिनिधित्व बीजेपी करती है वह पार्टी व्यवस्था से कहीं आगे है; यह 'प्रमुख विचारों और संवेदनाओं' के एक नए ढांचे के उदय का क्षण है जिसने इस प्रमुख पार्टी व्यवस्था को वैचारिक जीवन आधार प्रदान किया है। उनके अनुसार 'नई राजनीति का ये उदय’ नए हिंदुत्व और नई क़िस्म की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का मिश्रण होने जा रहा है।

यह हिंदुत्व अपने अनुयायियों को 'राजनीतिक रूप से हिंदू बनने' के लिए कहता है और धार्मिकता की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के माध्यम से "धार्मिक हिंदू" बनने के लिए कहता है और राष्ट्रवाद तथा हिंदुत्व के बीच सम्मिश्रण 'नए वैचारिक प्रभुत्व की रीढ़' है। ये सैद्धांतिक रुख न केवल यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि "बीजेपी-विरोधी" न केवल "राष्ट्र-विरोधी" के समान होगा बल्कि यह नई भर्तियों को आकर्षित करने में भी मदद करेगा जिनके लिए 'कट्टर हिंदू होना एक ऐसा माध्यम बन जाता है जो उनके राष्ट्रवाद को व्यक्त करता है।'

पल्शीकर यह भी कहते हैं कि 'राजनीतिक और वैचारिक हमले' के शस्त्रागार में बदलते हुए हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के साथ विकास के विचारों को एक साथ मिलाना कैसे संभव हुआ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के संबद्ध संगठनों के अलग-अलग मगर जुड़े नेटवर्क की उपयोगिता को रेखांकित करते हुए जिसने इस वैचारिक लड़ाई को आगे बढ़ाने में मदद की है यह हमें यह भी बताता है कि कैसे यह 'नया आधिपत्य' एक नए "सामान्य" अवस्था के रूप में शुरू हो सकता है जहाँ तक हमारी सामूहिक संकल्पना का संबंध है कि लोकतंत्र का अर्थ क्या है और इसे क्या करना चाहिए।

अधिपत्य स्थापित करने की यह लालसा हमेशा हिंदुत्व की लंबी समय से पोषित महत्वाकांक्षाओं में से एक रही है। स्व-घोषित 'सांस्कृतिक संगठन' आरएसएस जो अपने संबद्ध संगठनों के साथ मिलकर इन सभी परिवर्तनों का प्रमुख संगठन है इसने हमेशा ख़ुद को समाज में संगठन के रूप में नहीं बल्कि समाज के संगठन के रूप में वर्णित किया है।

और इस अधिपत्य को चुनौती देने के लिए रणनीतियों को काउंटर करने के इर्द-गिर्द किसी मंथन के पहले प्रश्न करने पर संदेह करना उपयुक्त होगा जिसे एक डॉक्यूमेंट्री में उठाया गया है जिसका शीर्षक 'आज़माश: ए जर्नी थ्रू द सबकॉन्टिनेंट' है जो कि पाकिस्तानी फ़िल्म निर्माता द्वारा बनाई गई है। इस डॉक्यूमेंट्री ने यह समझने की कोशिश की कि विभाजन के 70 साल बाद पाकिस्तान की तरह भारत क्या धार्मिक कट्टरता की ओर मुड़ रहा है? इस फ़िल्म में सीमा के दोनों ओर को उदार लोकतंत्र से पीछे हटते दिखाया गया है।

किसी भी स्वतंत्र समीक्षक के लिए एक इस्लामिक देश के रूप में पाकिस्तान की धीमी तब्दीली अच्छी तरह से प्रलेखित है और काफ़ी अच्छी तरह से समझी गई है ऐसे में भारत का बदलता रुख हाल की घटना है जो अभी भी कई लोगों को परेशान करता है। कैसे और क्यों एक देश जिसने ख़ूनी विभाजन के बावजूद धर्म को राष्ट्रीयता के आधार के रूप में नकार दिया जिसने लगभग दो मिलियन लोगों की मौत देखी और 10-12 मिलियन के जबरन विस्थापन को देखा और जिसका आज़ादी के बाद की चुनौतियों को संभालने के लिए धर्मनिरपेक्षता के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता के साथ एक मज़बूत नेतृत्व था वह धीरे-धीरे अपने 'कट्टर प्रतिद्वंद्वी' के रास्ते पर है।

क्या इस तरह की यात्रा भारत जैसे देश के लिए अद्वितीय है जो औपनिवेशिक शासन के अधीन था जहाँ बड़े पैमाने पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी आंदोलन ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का नेतृत्व किया या कोई अन्य पूर्व उपनिवेशों में इसी तरह का उदाहरण देख सकता है जहाँ इसी तरह के ग़ैर-धार्मिक/धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व औपनिवेशिक बंधन के ख़िलाफ़ संघर्ष का नेतृत्व किया?

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest