अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश को हक़ है कि हम उनकी इज़्ज़त करें
कर्ते-परवन सिख गुरुद्वारा क़ाबुल, अफ़ग़ानिस्तान में यह तो होना ही था: आज़ादी के बाद से ही भारत के सबसे प्रिय मित्र और घनिष्टतम पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान ने कूटनीतिक बारीकियों को परे हटाकर अपने आक्रोश और दर्द के अहसास को व्यक्त किया है।
इन्डिया टुडे टीवी के साथ अफगान राजदूत ताहिर कादिरी ने जो साक्षात्कार दिया है, वह प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के लिए आँखें खोलने वाला है। यहाँ तक कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर कि भारत के राजनैतिक संबंध इन तीन बड़े मुस्लिम पड़ोसियों’ के साथ मुखालिफ अंधड़ में भाग रहे हैं।
अफ़गान राजदूत ने इस धारणा पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं कि उनके देश में राज्य सिख अल्पसंख्यक समुदाय का उत्पीड़न करता है।
जैसा कि उन्होंने कहा, “इन कुछ वर्षों में, जबसे तालिबान अफगान लोगों और उसकी सरकार का पतन हुआ है, खासकर इस सरकार ने अपने अल्पसंख्यकों, जैसा कि सिख समुदाय है, को अपने भाइयों और बहनों की तरह हिफ़ाज़त से रखने करने का काम किया है, जैसा कि हम अफगानिस्तान वाले हैं। हम उनका बेहद सम्मान करते हैं, हमारे यहाँ उनके लिए संसद में सीटें हैं, निचले सदन में भी उनके लिए सीटें हैं. हमारे यहाँ राष्ट्रपति भवन में भी उनके प्रतिनिधि हैं।”
क़ादरी की टिप्पणी सच्चाई बयां करते तथ्यों से निर्मित है। अगर उन असामान्य पाँच-वर्षों वाले तालिबान शासन (1996-2001) को छोड़ दें, तो अफ़ग़ान राज्य ने बहुलतावादी नीति को जारी रखा है जिसमें विभिन्न मतावलंबियों और संप्रदायों को फलने-फूलने का अवसर प्राप्त है।
सिख समुदाय को अफ़ग़ानिस्तान में कभी भी उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ा है। वास्तव में, इसकी जड़ें अफ़ग़ानी समाज में काफ़ी गहरे से जुड़ी हैं, और मुजाहिदीन (1992-1996) वाले अराजकतापूर्ण दौर में भी काबुल में स्थित सिख गुरुद्वारा शांति और स्थिरता का नखलिस्तान बना हुआ था। (मेरे पास 1994 में काबुल यात्रा के दौरान करत-ये--परवन गुरूद्वारे की बेहद यादगार लम्हें हैं।)
जब 90 के दशक में सुरक्षा के हालात खतरनाक स्तर तक बिगड़ गए थे तब कई सिख परिवारों ने भारत का रुख किया था जिससे कि मुश्किल की घड़ी किसी तरह बीत जाये। लेकिन अधिकतर परिवारों के उद्यमशील पुरुष सदस्यों ने जो काबुल में ही रुके रहने पर अपनी प्राथमिकता दी, और अपनी रोजी-रोटी जो अधिकतर व्यापर से सम्बन्धित है, को जारी रखा. अफगान की स्थिति में उन्होंने अपेक्षाकृत बेहतर धंधा किया, खासकर भारत के साथ व्यापर के मामले में। यह सच है कि आतंकवाद नाम का जानवर जिसके फन चारों दिशाओं में फुफकार मार रहा है के साथ अफगानिस्तान में असुरक्षा का वातावरण पसरा पड़ा है, और सिख समुदाय को भी इसका बुरी तरह शिकार होना पड़ा है। लेकिन राज्य दमन? ईश्वर के लिए कृपया यह झूठ न कहें।
वर्तमान बीजेपी सरकार के नज़रिये के विपरीत तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने सभी अफ़ग़ान नागरिकों के लिए खुले-द्वार की नीति को अपनाया था, जो कोई भी उस समय भारत में शरण का इच्छुक था. हमने कभी भी धर्म या जातीयता के आधार पर अफगानियों में भेद नहीं किया था। भारतीय नीतियाँ लोगों-से-लोगों के रिश्तों की धुरी पर आधारित थी और इस दृष्टिकोण ने आम तौर पर अफगानों के दिलों में हमारे देश के लिए बेहद सद्भाव अर्जित किया।
यही वह दृष्टिकोण था, जो भारत-अफ़गानिस्तान रिश्तों का मुख्य आधार साबित हुआ था। विडंबना यह है कि भारतीय ख़ुफ़िया जो हाल के वर्षों में अफगानी सद्भाव के गीत गाता रहा है, इस दोस्ती की नीति का प्रत्यक्ष तौर पर फायदा उठाता रहा है, और इसने कई दशकों से दोस्ताना भावनाओं का विशाल जखीरा खड़ा कर रखा है।
हमें नहीं पता कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों ने किस स्तर तक जाकर गृह मंत्री अमित शाह को इस उबड़खाबड़ रास्ते पर जाने से उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन ऐसा महसूस होता है कि हमारे देश में इस तरह के पेशेवराना रुख के बचे होने की संभावना दूर दूर तक नहीं है।
जहाँ तक विदेशी मामलों के मंत्रालय का सवाल है, उसके बारे में जितना कम कहा जाये, वही बेहतर होगा। ऐसे ही मौकों पर विदेश विभाग को चाहिए था कि वे भारतीय नेतृत्व को उनके मुस्लिम-विरोधी गोलंदाजी से सचेत कराने का काम करते, जिससे कहीं अफगानिस्तान और बांग्लादेश से रिश्ते खटाई में न पड़ सकते हैं। उसे संभवतः मालदीव पर भी विचार करना चाहिए, जो भारतीय दबाव के चलते आज काफी दयनीय स्थिति में है, लेकिन आने वाले समय में रुख बदल सकता है। लेकिन जब मंत्रालय का मुखिया ही एक ऐसा व्यक्ति हो जो स्वयं राजा से भी कहीं अधिक वफादार खुद को साबित करने में लगा हो, तो विदेश मंत्रालय ऐसी स्थिति में मूक दर्शक बने रहना ही पसन्द करेगा।
क्या आपको नहीं लगता कि आप अपने पड़ोसियों पर असहनशीलता और नस्लीय पूर्वाग्रह और उत्पीड़न करने का आरोप लगाए और उम्मीद करें कि वे कुछ नहीं कहेंगे? मुद्दा सिर्फ ये नहीं है कि चूँकि आपका घर शीशे का है तो आप पत्थर नहीं फेंक सकते. मुद्दा यह है कि छोटे से छोटा देश भी आत्म-सम्मान और राष्ट्रीय गौरव के साथ रहने का हकदार है। हमने अफगान और बांग्लादेशियों के राष्ट्रीय मानस और स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने का काम किया है, और हमें इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह संभव ही नहीं है, जब तक कि यह वर्तमान सत्ताधारी कुलीन वर्ग सत्ता में बने रहते हैं, तब तक मुस्लिम पड़ोसियों के साथ ऐसी कोई सच्ची, ईमानदार सुकून वाली वार्ता हो सकती है, जिन्होंने हमें कट्टरपंथी धरती के रूप में समझ लिया है।
भारत अपने “शरणार्थियों की समस्या” से निपटने के लिए अलग रास्ते का चयन कर सकता था और उसे अपनाना भी चाहिए था। अपने बेहद प्रभावी सम्पादकीय में FT (फाइनेंसियल टाइम्स?) ऍफ़टी ने आज लिखा है, “अगर श्री मोदी की सरकार वास्तव में अप्रवासियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर है तो उसे यूएन के 1951 रिफ्यूजी कन्वेंशन पर दस्तखत कर देना चाहिए। जो यह साफ़ साफ़ घोषणा करता है कि शरणार्थियों को उस देश में वापस नहीं भेजा जाएगा जहाँ उनके जीवन या आजादी पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो। लेकिन इस पर भारत ने दस्तखत नहीं किये हैं। अगर भारत जो यह दावा करता है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो उसे अपने इस उच्च नैतिक दावे को कायम रखने के लिए ऐसे रास्ते पर जाने से बचना चाहिए, जो लम्बे समय से रह रहे लाखों निवासियों को धर्म के आधार पर, दोयम दर्जे या उससे भी भयानक स्तर पर पहुँचा देता हो।”
गलतफहमी में न रहे, चाणक्यपुरी में स्थित बंगलादेशी और अफगानी दूतावास अपनी राजधानियों में शब्दशः रिपोर्टिंग भेज रहे होंगे, जो भारतीय नेतागण उनके देशों की राजनैतिक संस्कृति और राष्ट्रीय सम्मान पर अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हैं। एक ऐसे क्षेत्र में, जहाँ भारत पहले से अलग थलग खड़ा है, हम ऐसे दो असाधारण पड़ोसियों से दुराव पैदा करने का प्रयास करने में लगे पड़े हैं, जो लगातार इस बात के लिए चिंतित रहते हैं कि किस प्रकार से हमारे साथ सहयोगत्मक भावना के साथ निरंतर काम किया जा सके? नीचे देखें जब सितम्बर में खुद क़ादरी ने टिप्पणी की थी जिसमें अफगान-भारत के रिश्तों पर प्रशंसा की थी।
सितम्बर और आज के बीच समय कितना बदल गया है- अगस्त में जम्मू-कश्मीर और गतिहीन पड़ चुकी अर्थव्यवस्था, और उसके बाद अयोध्या फैसला और अब नागरिकता विधेयक!
निःसंदेह, कूटनीति के इस हृदयहीन संसार में हम अनुमान ही लगा सकते हैं, कि ये अफगानिस्तान जैसे छोटे से देश, जिसका क़ादरी प्रतिनिधित्व करते हैं, के पास भारत जैसे बड़े दानदाता देश के साथ सहयोग कने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन इस प्रकार के घमण्ड के साथ आज की दुनिया में हमें बहुत आगे तक नहीं बढ़ सकते।
अगर हम सम्मान पर आधारित बराबरी के रिश्तों को अपने छोटे छोटे पड़ोसी देशों के साथ रख पाने में असमर्थ हैं, तो वे अर्थपूर्ण दोस्ती के लिए कहीं और देखेंगे। और आज की परिस्थितियों में उन्हें अपने पड़ोस में बहुत दूर नहीं झांकना पड़ेगा, वे क्या करेंगे? और जब ऐसा होगा- जिस प्रकार शर्तिया तौर पर दिन के बाद रात गहराती है, उसी तर्ज पर - ‘‘हम शायद ज़मीन पर होंगे और राजाओं की मौत की दुःख भरी कहानियां सुना रहे होंगे।”
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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