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निचले तबकों को समर्थन देने वाली वामपंथी एकजुटता ही भारत के मुस्लिमों की मदद कर सकती है

जहांगीरपुरी में वृंदा करात के साहस भरे रवैये ने हिंदुत्ववादी विध्वंसक दस्ते की कार्रवाई को रोका था। मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यकों को अब तय करना चाहिए कि उन्हें किसके साथ खड़ा होना होगा।
Brinda Karat

कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सिस्ट) और पोलिट ब्यूरो की सदस्या, 74 साल की वृंदा करात को दिल्ली के जहांगीरपुरी में बुलडोज़र के सामने कोर्ट के आदेश को लहराते हुए देखना पिछले 8 सालों के सबसे सुखद दृश्यों में से एक था। यहां बुलडोज़र कामग़ार वर्ग के क्षेत्र में घरों और ठेलों को निहायत ही घटिया ढंग से तोड़ रहा था। जबकि इसी जहांगीरपुरी में हमेशा से हिंदू और मुस्लिम सौहार्द्र के साथ रहते आए हैं।

अकेले करात के साहसी कार्य से हिंदुत्ववादी विध्वंसक दस्ते को रुकने पर मजबूर होना पड़ा। इससे सुप्रीम कोर्ट द्वारा जहांगीरपुरी में विध्वंसक कार्रवाई को रोकने का आदेश भी लागू हो पाया। ज़्यादातर अख़बारों ने न्यायोचित ढंग से बीजेपी की मंशा के चलते किए जा रहे विध्वंस को रोकने में मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना की भूमिका को प्रकाश में लाने का काम किया।   

इसके बावजूद कई अख़बारों ने करात की भूमिका के बारे में नहीं बताया या उनकी भूमिका को कमतर दिखाया। अगर आपको टीवी या वॉट्सऐप के संदेश में नहीं दिखा होगा, तो आपको करात के जहांगीरपुरी जाने के बारे में तक पता नहीं चलता। खुद को साहसी कहने वाली पत्रकारिता के बारे में यह सबकुछ बताता है!

लेकिन जहांगीरपुरी में बुलडोज़र के सामने करात के खड़े होने का पल सिर्फ़ पत्रकारों के अपने पूर्वाग्रहों पर ध्यान देने के बारे में नहीं है। अब मुस्लिमों को भी यह सोचना होगा कि क्या उनके लिए वक़्त आ गया है कि वे लाल सलाम का नारा दें।

करात के काम की आम आदमी पार्टी या कांग्रेस की प्रतिक्रिया के साथ तुलना करने पर मुस्लिमों को पता चलेगा कि कैसे इन दोनों पार्टियों ने उन्हें धोखा दिया है। जबकि यही दोनों पार्टियों दिल्ली में सारे मुस्लिम वोट ले जाती हैं। निश्चित तौर पर आप जहांगीरपुरी के लोगों को राहत दिलाने को ना पहुंचने के लिए इन दोनों पार्टियों के आलस या उनकी कल्पनाहीन राजनीति को जिम्मेदार बता सकते हैं।

आप का का दोहरा चरित्र

लेकिन आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के मुस्लिमों के लिए खड़े ना होने की असली वज़ह, उनका यह डर है कि इससे हिंदू उनसे दूर हो सकते हैं। ठीक इसी दौरान इन दोनों पार्टियों को यह भरोसा भी है कि मुस्लिम वोट उन्हें ही मिलने है। दोनों पार्टियां मानती हैं कि बीजेपी के सत्ता में आने के डर के चलते मुस्लिमों के पास बीजेपी को हराने में सबसे ज़्यादा सक्षम पार्टी को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता, चाहे वो लोकसभा, विधानसभा या नगर निगम का चुनाव ही क्यों ना हो।

एक वरिष्ठ आम आदमी पार्टी के नेता ने 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुझसे कहा था, "उन्होंने हमें अपनी मजबूरियों के चलते वोट दिया है."

उसी नेता का विचार जहांगीरपुरी की हिंसा पर आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रिया में दिखाई देता है। यहा हिंसा एक हनुमान जयंती जुलूस के दौरान, एक मस्ज़िद के सामने अश्लील और भड़काऊ नारे लगाने के चलते हुई थी। संजय सिंह, राघव चड्ढा और आतिशी सिंह, आम आदमी पार्टी के तीन नेताओं ने कहा कि भारत में गुंडागर्दी और हिंसा तभी रुकेगी, जब गृहमंत्री अमित शाह के घर और बीजेपी मुख्यालय को नष्ट किया जाएगा। निश्चित तौर पर इनकी आलोचना में साहस है, लेकिन इसमें बदजुबानी भी है। इनकी बात में "तेज आवाज़ और गुस्सा है, लेकिन कुछ भी ठोस नहीं है।"

ऐसा लगता है कि इन नेताओं का मानना है कि यह बदजुबानी हिंदुओं को दूर कर सकती है, इसलिए उन्होंने भारत में सांप्रदायिक हिंसा के होने को रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुस्लिमों की देश में उपस्थिति से जोड़ दिया। उन्होंने बीजेपी पर इन प्रवासियों को अलग-अलग इलाकों में बसाने का आरोप लगाया, जिनके बारे में इन नेताओं का दावा है कि वह जगहें सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में करीब़ 14,000 रोहिंग्या शरणार्थी हैं। सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि यह आंकड़ा 40,000 है। क्या इन लोगों की उपस्थिति रामनवमी और हनुमान जयंती जुलूस के दौरान पूरे देश में हुए दंगों की व्याख्या कर सकती है, बिल्कुल नहीं।

इस तरह एक ही वार में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने मुस्लिमों को खलनायक बना दिया और अप्रत्यक्ष तौर पर उनके ऊपर बीजेपी के आदेश के बाद सांप्रदायिक टकराव का आरोप लगा दिया। इसे हम संतुलन बनाना कहते हैं, जो एक समय सबको कुछ ना कुछ देने की कांग्रेसी रणनीति रही है। आम आदमी पार्टी के इन तीनों नेताओं ने मुस्लिमों को खुश रखने के लिए शाह पर जुबानी हमला किया। जबकि रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुस्लिमों का जिक्र कर यह लोग हिंदुओं को सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे।

बल्कि इन तीनों नेताओं द्वारा की गई आलोचना इतनी समान है कि ऐसा लगता है कि यह सीधे उनके नेता अरविंद केजरीवाल ने उन्हें जारी करने के लिए दी थी। लेकिन केजरीवाल हिंदु-मुस्लिम टकराव पर नहीं बोलेंगे, जैसे प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अनुषांगिक संगठनों की हिंसा पर चुप रहते हैं।

सबसे बदतर यह रहा कि आदर्श नगर से आम आदमी पार्टी के विधायक पवन कुमार शर्मा ने विध्वंस की कार्रवाई और सुप्रीम कोर्ट के आदेश व वृंदा करात के साहसिक काम के पूरे एक दिन बाद प्रभावित क्षेत्र का दौरा किया। जहांगीरपुरी आदर्श नगर विधानसभा का हिस्सा है। जहांगीरपुरी के प्रभावित नागरिक, जो हिंदु् और मुस्लिम दोनों ही थे, उन तक पहुंचने में विधायक की देरी इसलिए हुई, ताकि कोई उनपर किसी एक पक्ष के पाले में होने का आरोप ना लगा सके।

कांग्रेस : बाद में पहुंचना बेहतर

कांग्रेस का प्रतिनिधि मंडल भी एक दिन बाद जहांगीरपुरी पहुंचा। शायद उनकी मंशा भी आम आदमी पार्टी के विधायक की तरह की थी। यह लोग अपने नेता राहुल गांधी के पद चिन्हों पर ही चल रहे हैं, जो सोशल मीडिया पर दिखाई गई सक्रियता को गलत तरीके से मैदान की सक्रियता समझ लेते हैं। कांग्रेस गलत विश्वास के साथ नरम हिंदुत्व कार्ड खेल रही है और उसे लगता है कि ऐसा कर हिंदुत्व को रोका जा सकता है, जो गलत धारणा है। लेकिन पूरे उत्तर भारत में गैर-बीजेपी पार्टियां इसी लाइन पर चल रही हैं।

नरम हिंदुत्व कार्ड के कांग्रेस के खेल का पुराना इतिहास रहा है। जैसे- बीजेपी ने मुस्लिमों को तबाह करने के लिए जिन कानूनों का सहारा लिया है, उन्हें कांग्रेस शासन के दौर में बनाया गया था, चाहे वह गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून हो या यूएपीए हो या धर्म परिवर्तन से जुड़ा कानून हो। फिर 1984 में सिखों का नरसंहार में पार्टी की भूमिका हमारे भारत के इतिहास में खून से सना अध्याय है।

लेफ़्ट है विकल्प

इन पार्टियों का पाखंड ही असली वज़ह है, जिसके चलते अब मुस्लिमों को वामपंथ का समर्थन करना चाहिए। वह दूसरी पार्टियों से किसी वृंदा करात के सामने आने की अपेक्षा नहीं रख सकते, जो मुसीबत के वक़्त में उनके साथ तुरंत खड़ी हो जाए। यह सही है कि मुस्लिमों को वामपंथियों पर विश्वास ना करना सिखाया गया है, क्योंकि वे नास्तिक होते हैं, इसलिए लोगों के किसी भी धर्म को मानने का विरोध करते हैं। लेकिन इस त्रुटिपूर्ण और साधारण जनमत को अलग रखे, तो कम से कम इन मानवीय नास्तिकों की संगत उन आस्तिकों से बेहतर है, जिनका धार्मिक विचार सिर्फ़ दूसरे का विध्वंस है।

केरल में 27 फ़ीसदी मुस्लिम हैं, वे पिछले विधानसभा चुनावों में लेफ़्ट के पाले में गए, जिसके चलते इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे को छोड़ने के बारे में सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा।

लेफ़्ट का वर्ग राजनीति पर जोर मुस्लिमों के लिए फायदेमंद भी है, क्योंकि यह लोग ज़्यादातर सामाजिक और आर्थिक पैमानों पर दूसरे समुदायों से पीछे ही हैं। केवल निचले तबकों के साथ एकजुटता ही मुस्लिमों के लिए बेहतर विकल्प है, क्योंकि पिछड़ा वर्ग और दलितों से कभी आधार बनाने वाले राजनीतिक दल अपना मौका गंवा चुके हैं।

आलोचक राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहेंगे कि मुस्लिम पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन में नहीं फले-फूले। बल्कि वामपंथ के पश्चिम बंगाल में हुए नुकसान के लिए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट एक अहम कारक है। लेकिन यही आलोचक यह भी भूल जाते हैं कि ममता बनर्जी ने बीजेपी के साथ गठबंधन के बाद ही राज्य में पैर जमाए थे। इस चीज की विस्तृत व्याख्या अकादमिक विद्वान प्रलय कानूनगो ने एक पेपर में की है। ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते हैं, जो बताते हों कि लेफ़्ट ने अपनी गलतियों से सीख नहीं ली होगी।

एक ऐसे युग में जब मुस्लिम, संघ की हिंसा की राजनीति के लिए आसान निशाना बन गए हों और राजनीतिक दल उनकी राहत के लिए आगे आने से भी कतरा रहे हों, तब समुदाय को लंबे वक़्त के हिसाब से दूसरे राजनीतिक विकल्पों की तरफ देखना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर कुछ मुस्लिम दल भी हैं, जिनके बारे में समुदाय सोच सकता है। लेकिन यह लोग कभी इतने सांप्रदायिक माहौल में कभी हिंदुओं के एक हिस्से का समर्थन हासिल नहीं कर पाएंगे।

इसलिए मुस्लिम समुदाय के लिए लेफ़्ट एक बेहतर विकल्प है।

लेकिन लेफ़्ट तब तक एक बेहतर विकल्प नहीं बन सकता, जब तक कम्यूनिस्ट पार्टियां केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा की गिनी-चुनी विधानसभा सीटों के बाहर चुनाव ना लड़ने की आदत से बाहर नहीं आ जाते। यह उन पर निर्भर करता है कि वे इस आदत को कैसे तोड़ते हैं।

लेफ़्ट की पारंपरिक पहुंच, सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों और कैडर बनाने की कड़ी मेहनत से आधार बनाने की रही है। इसलिए मुस्लिमों को आगे आना चाहिए और उन कम्यूनिस्ट संगठनों का समर्थन भी करना चाहिए, जो चुनावों से दूर रहते हैं। सिर्फ़ कम्यूनिस्ट ही मुस्लिमों को सुरक्षा का लबादा उपलब्ध करवा सकते हैं, ना कि वे पार्टियां जो उनका वोट लेकर, उन्हें धोखा देती हैं।

आरएसएस के दूसरे प्रमुख एम एस गोलवलकर ने मुस्लिमों, ईसाईयों और कम्यूनिस्टों को भारत का आंतरिक दुश्मन बताया था। गोलवलकर के डराने वाले दृष्टिकोण को देखते हुए दोनों समुदायों को कम्यूनिस्टों के साथ आने की जरूरत है। पिछले आठ सालों में यही वह समुदाय हैं, जिनके लोगों को मोदी सरकार ने यूएपीए के तहत जेल भेजा है, उन्हें जमानत देने से इंकार किया है और उनकी सुनवाई में भी लेट-लतीफी की है। इसलिए मुस्लिमों को मस्ज़िदों में अल्लाहू-अकबर और राजनीतिक मैदान में लाल सलाम का नारा देना चाहिए।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Only Left’s Solidarity of Lower Classes Can Help India’s Muslims

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