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पीएमएफबीवाई: मोदी की एक और योजना जो धूल चाट रही है

देरी से भुगतान और अस्वीकृति से नाखुश, फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) में शामिल किसान की भागीदारी में 14 प्रतिशत की गिरावट और कवरेज क्षेत्र में 20 प्रतिशत की गिरावट आई है।
मोदी

पीएम मोदी की विभिन्न कमज़ोर योजनाओं के मद्देनज़र, 2015-16 में लॉन्च होने के दो साल बाद बहुत ही ज्यादा प्रचारित पीएम फासल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) भी लडखडाने लगी है। संभावित फसल क्षति के लिए बीमा कवरेज प्राप्त करने वाले किसानों की संख्या 2016-17 की तुलना में 2017-18 में 74 लाख की गिरावट आई है या फिर 14 प्रतिशत की गिरावट।

पीएमएफबीवाई द्वारा कवर सकल फसल क्षेत्र 2016-17 में 59.55 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 2017-18 में 47.5 मिलियन हेक्टेयर हो गया है, जो 20 पतिशत से अधिक की गिरावट है। 2018-19 तक 198.4 मिलियन हेक्टेयर के भारत के सकल फसल वाले क्षेत्र का 50 प्रतिशत कवर करने का इस योजना का लक्ष्य अब एक दूर सपना दिखता है क्योंकि इस साल का कवरेज फसल वाला क्षेत्र का केवल 24 प्रतिशत ही है।

सरकार ने इसे बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना बताया था। किसानों की दिक्कतों के लिए एक तुरंत समाधान के रूप में, इस साल की शुरुआत में इसे पेश किया गया था और 2018-19 के बजट में इस योजना के लिए 13,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। पिछले साल के 9 000 करोड़ के आवंटन से यह 44 प्रतिशत ऊपर था।

सवाल उठता है कि तो यह कार्यक्रम क्यों विफल रहा? यह मुख्य रूप से मोदी सरकार के व्यापार-अनुकूल मॉडल की वज़ह से हुआ है जिसे उन्होंने फसल बीमा के लिए अपनाया था। इसमें बीमा कवर प्रदान करने में 13 निजी क्षेत्र और पांच सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियां शामिल थीं। ये कंपनियां स्वाभाविक रूप से - लागत में कटौती की तलाश में थीं ताकि लाभ बढ़ाया जा सके। और, आप लागत में कटौती कैसे करते हैं? फसल क्षति के सम्बन्ध में किसानों के दावों को नकार कर।

रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि कंपनियों और जिला स्तर की सरकारों के प्रतिनिधियों को शामिल करने वाली लंबी प्रक्रिया के माध्यम से क्षति के दावों की पुष्टि की जाती है। जिले में ठेठ क्षति का आकलन करने के लिए फसल काटने के प्रयोग (सीसीई) का संचालन करने वाले अधिकारी इन गतिविधियों में देरी करते हैं और बार-बार उसे खराब करते हैं, और बीमा कंपनियां कवर किए गए किसानों द्वारा दायर दावों पर आपत्तियां उठाती हैं। इस सब के चलते मुआवजे के भुगतान में भारी देरी होती है और कई दावों को खारिज कर दिया जाता है।

"नई योजना फसल-काटने के प्रयोगों में भाग लेने के लिए बीमा कंपनी के प्रतिनिधियों को अनुमति देती है। हमने देखा है कि वे आदर्श उत्पादन के थ्रेसहोल्ड स्तर को कम करते हैं। इसलिए किसानों का दावा कामयाब नहीं होता है क्योंकि उनके वास्तविक उत्पादन कम होने के के थ्रेसहोल्ड की सीमा को कम कर दिया गया है, "एक राज्य कृषि विभाग के अधिकारी ने नाम न छापने के अनुरोध पर उपरोत ब्यान दिया।

किसानों के लिए, मुआवजे में देरी या हानि की कमी की जायजा घातक है। उसे अन्य लोगों को भुगतान करने की ज़रूरत है, जैसे कि उर्वरक, कीटनाशक या बीज जैसे लागत वाले खर्च जिन्हें कि उधार पर खरीदा गया था। मुआवजे के भुगतान में अस्वीकृति या देरी अस्वीकार्य है क्योंकि यह किसान को धन उधारदाताओं आदि से उधार लेने की स्थिति में वापस हिम्मत बद्न्हाती है।

लेकिन, यह योजना वास्तव में किसानों के बारे में नहीं है, बेशक मोदी और उनके सहयोगी जनता को यह विश्वास दिलाना चाहते थे। इस योजना में अन्य खिलाड़ी – या कहें असली खिलाड़ी - बीमा कंपनियां हैं। उन्हें किसानों से कम दरों पर प्रीमियम भुगतान मिलता है और शेष प्रीमियम उन्हें केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा सौंप दिया जाता है। यही वह जगह है जहां इस साल योजना के तहत आवंटित 13,000 करोड़ रुपये बीमा कंपनी के खजाने में चले गए।

2016-17 में, बीमा कंपनियों को 22,167 करोड़ रुपये का विशाल प्रीमियम मिला। इसमें किसानों का योगदान 433 करोड़ रुपये था या लगभग 20 प्रतिशत था। लगभग 7791 करोड़ रुपये का शेष सीधे केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा बीमा कंपनियों को स्थानांतरित किया गया था। अब कंपनियों ने मुआवजे के रूप में क्या भुगतान किया? एक अनुमानित रूप से 12,398 करोड़ रुपये। इसलिए, इससे बीमा कंपनियों को लगभग 10,000 करोड़ रुपये का लाभ मिला। एक प्रश्न के जवाब में इस आंकड़े को 2 फरवरी को राज्यसभा में कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपला ने सदन को अवगत कराया था।

2017-18 के आंकड़े अभी तक बाहर नहीं आये हैं, लेकिन पिछले साल जो कुछ हुआ उससे आप अंदाजा लगा सकते हैं, कि किसानों की तकलीफ और कंपनियों का विशाल/सुपर मुनाफा बढ़ने की उम्मीद कर सकते हैं। आश्चर्य की बात है कि किसान इस शोषणकारी योजना को छोड़ लगातार छोड़ रहे हैं।

 

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