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पलायन, शौक नहीं मजबूरी है नीतीश बाबू!

बिहार जैसे राज्य के लिए यह समय घोर संकट का है। और यह और अंधकारमय होता दिख रहा है, क्योंकि बिहार में कोई भी उद्योग धंधे नहीं आ रहे हैं, जो थे वो भी बंद पड़े गए हैं। ऐसे में यह कहना कि बिहार के लोग बाहर शौक से जाते है ये कितना उचित है आप खुद सोचिए ?
nitish kumar

बिहार के मुख्यमंत्री मंगलवार को एक निजी समाचार चैनल के सम्मेलन में पहुंचे और वहाँ उन्होंने बिहार के तमाम सवालों के जवाब दिए। उनके कई जवाबों को लेकर मीडिया ने उनकी खिंचाई भी की, जैसे प्रशांत किशोर को जद-यू में शामिल करने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था। इस इंटरव्यू में कई बार बिहारी अस्मिता का कार्ड भी खेला गया। कई लोगों ने कहा कि इसके पीछे उन्होंने अपनी विफलता को छुपाने कि कोशिश की है।

लेकिन इस इंटरव्यू में आगे उन्होंने ऐसा कुछ कहा जिसे सत्य कि कसौटी पर कसना जरूरी है। वो कहते हैं कि बिहार के  लोग शौक से बाहर जाते हैं। अब बिहार में काम की कोई कमी नहीं है। बिहार का एक सेक्शन ऐसा है जिसे हमेशा इच्छा रहती है कि बाहर जाए, इसलिए वो बाहर जाते हैं।

ये बयान उस राज्य के मुख्यमंत्री का है जिस राज्य के आबादी का बड़ा हिस्सा काम और रोजी-रोटी के तालाश में देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाता है। बाहर जाकर काम करना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन सिर्फ दो वक्त के रोटी के लिए अपने घर-परिवार को छोड़कर बाहर जाना किसी के लिए भी बेहद दु:खद होता है। इसका दर्द बिहार का प्रवासी मजदूर ही समझ सकता है, क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है।

एक बिहारी मज़दूर न सिर्फ अपना घर-परिवार छोड़कर दूर दूसरे प्रदेश में जाता है, बल्कि तमाम तरह का अपमान भी सहता है। उसके साथ गाली–गलौज तो आम बात है, मारपीट तक होती है। और वो यह सब अपमान सहता है क्योंकि वो जानता है कि अगर वो इसका प्रतिरोध करेगा तो उसके रोजी रोटी का साधन छिन जाएगा।

लेकिन मुख्यमंत्री जी का मानना है कि ये सब वो मजबूरी में नहीं बल्कि शौक से करता है। ये बयान मुख्यमंत्री जी के प्रवासी मजदूर जो कभी महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता, कभी गुजरात में गुजराती अस्मिता और दिल्ली में बाहरी के नाम पर पीटा जाता है, उनके प्रति उनकी संवेदनाओं को दिखता है।

“पलायन की कसक”

बिहार को हम विकास और समृद्धि के पैमाने चाहे वो रोज़गार हो या शिक्षा या फिर स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों में पिछड़ता हुआ देख रहे हैं। ऐसे में जब बिहार से मजदूर किसी अन्य राज्य में काम  या अच्छे जीवनस्तर के लिए जाता है तो वहाँ उनके साथ कैसा व्यवहार होता है,वो किसी से छिपा नहीं है। 

बिहार से अमित मिश्र दिल्ली आकर तकरीबन 40 सालों से निजी ट्यूशन चला रहे हैं। उन्होंने कहा दिल्ली में दूसरे लोग ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे अमीर का गरीब और समृद्ध का दरिद्र के साथ होता है।

अमित आगे यह भी बताते हैं कि लोग पलायन क्यों करते है? जब कोई अवसर नहीं होता है तो आदमी अपने परिवार के पेट के लिए पलायन करता है। यह निर्णय चारों ओर से निराश होकर और कहीं थोड़ी उम्मीद देखकर उठाता है। अमित कहते हैं इससे उनकी जान तो बचती है, लेकिन आत्मसम्मान नीलाम हो जाता है। शायद नीतीश कुमार नहीं जानते हैं कि पलायन की कसक कैसी होती है, इसलिए ऐसी बात कर रहे हैं।

गुजरात के  अहमदाबाद में पटरी पर अलग-अलग चीजों की दुकान लगाने वाले अरुण जो गुजरात में बिहारी लोगों  पर हुए हमले के बाद बिहार लौट आए थे  और कसम खाई थी कि कभी भी दोबारा गुजरात नहीं जाएँगे, कहते हैं कि वहाँ बिहारी होना किसी आतंकी या देशद्रोही होने जैसा हैवहाँ लोग आपस में बिहारी शब्द को एक गाली की तरह प्रयोग करते हैं। बिहार और बिहारियों को तो हमेशा ही शक की नजरों से देखा जाता है। उन्हें एक निम्न दर्जे का नागरिक समझा जाता है। वे बताते हैं कि अच्छे इलाकों में उन्हें मकान किराये पर नहीं मिलते हैंसिर्फ इसलिए कि वो हिंदी भाषी हैं। इन सभी दर्द को समेटे हुए वे वापस आये थे परन्तु अब फिर वो गुजरात वापस जाना चाहते हैं क्योंकि बिहार में उनके पास कोई रोजगार नहीं है। हाँअगर उन्हें यहीं रोजगार मिल जाए तब फिर वो इस अपमान और धिक्कार की जिन्दगी जीने वापस गुजरात न जाएं।

जब गुजरात में बिहारियों पर हमले हो रहे थे उसी दौर में हमने कई मजदूरों से बात की थी। उसी में से एक प्रवासी मजदूर ने कहा था कि हमने अंग्रेजों के समय की गुलामी तो नहीं देखी पर गुजरात में मज़दूर जिस हाल में काम करता है वो बहुत ही खराब है। इसके साथ ही उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। वहाँ के लोग बिना किसी गलती के भी हमें हिंदी वाला बोलकर पीट देते हैं। भले गलती उन लोगों की हो तब भी हमें ही दोषी माना जाता है।

जब हमने इन सभी से पूछा कि ऐसे हालात में क्यों काम करते हैं और इसका विरोध क्यों नहीं करतेइस पर उनका कहना था कि उनके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं हैक्योंकि वो जाएं तो जाएं कहाँक्योंकि उनके गृह नगर बिहार में तो कोई रोजगार नहीं हैऐसे में क्या करें। उन्हें परिवार चलाने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। और अगर वो इसका विरोध करते हैं तो उन्हें अपने काम से हाथ धोना पड़ेगा।

कई जानकर पलायन को विकास की एक अवस्था और एक अच्छी चीज़ मानते हैं। उनके पास इसको मानने का आधार भी होगा लेकिन हमनें जब इन प्रवासी से बात की तो पता चला कि ये शौक नही मज़बूरी में लिया गया फैसला होता है। इसके लिए वो, उनका परिवार और समाज जो कीमत चुकाता है, उसका आकलन कर पाना बेहद मुश्किल है, लगभग नामुमकिन।

पलायन का ये सिलसला बहुत पुराना है, परन्तु आजादी और खासतौर पर 80 के दशक के बाद से ये सिलसिला और बढ़ा है। अगर हम इसका अंदाजा बिहार जैसे राज्य के लिए लगाए तो यह समय घोर संकट का है। और यह और अंधकारमय होता दिख रहा है, क्योंकि बिहार में कोई भी उद्योग-धंधे नहीं आ रहे हैं, जो थे वे भी बंद पड़े गए हैं। ऐसे में यह कहना कि बिहार के लोग बाहर शौक से जाते है ये कितना उचित है आप खुद सोचिए?

 

 

 

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