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क्यों परीक्षा प्रणाली पर जमकर सवाल उठाना ज़रूरी है?

परीक्षा प्रणाली हमारे सामने द्वन्द्व पैदा करती है। अपने फायदे भी रखती है और अपने नुक़सान भी गिनवाती है। व्यवहारिकता का तकाज़ा कहता है कि परीक्षा प्रणाली ठीक है लेकिन मनुष्यता का सबसे गहरा हिस्सा कहता है कि परीक्षा प्रणाली कई तरह की नाइंसाफ़ियों को अपने साथ लेकर चलती है।
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एक बार बचपन में अखबार की कतरन लपेटे हुए जब मूंगफली खरीदी थी तो उस अखबार की कतरन पर पढ़ा था कि हम एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जिसमें लिखने पढ़ने के लिए सबके पास कलम और कागज हो और जीने के लिए हल और जोत हो। बाद में जाकर पता चला कि ये लाइन मार्क्सवादी विचारधारा लिपटी हुई सबसे शानदार लाइनों में से एक है।

असल में दुनिया को ऐसा ही होना चाहिए था कि सभी लोगों की चेतना का विकास हो और उनके पास जीवन जीने के लिए काम हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दुनिया कुछ इस तरह से विकसित हुई कि जिंदगी जीने के लिए रोजगार के अवसर सबके लिए उपलब्ध नहीं हो पाए। जिस पढ़ाई लिखाई से चेतना का विकास होना था वह पूरी तरह से रोजगार उन्मुख होती चली गई। इसलिए सबके हिस्से में पढ़ाई लिखाई भी नहीं आ पाई।

जिनके पास पैसा रहा, वही अपने बच्चों को पढ़ाने में कामयाब रहे। इन बच्चों का चुनाव रोजगार के लिए किया जाना था, इसलिए रोजगार के मकसद से योग्यता और अयोग्यता जैसे मानक गढ़े गए। और अंत में जाकर एक ऐसी सिस्टम का विकास हुआ जहाँ परीक्षाएं इस दुनिया में अकाट्य सत्य बनकर उभरी। शिक्षा सीखने-सिखाने की बजाए केवल परीक्षा नामक बाधा को पार करने का औजार बन कर रह गई। साल भर की पूरी पढ़ाई लिखाई इस जगह पर जाकर केंद्रित हो गई है कि किसी विद्यार्थी को साल के अंत में होने वाली परीक्षा में कितने नंबर आते हैं।

इसीलिए जब बोर्ड परीक्षा परिणाम आने लगे तो स्टेट टॉपर, डिस्ट्रिक्ट टॉपर, स्कूल टॉपर जैसे खिताब दिए जाने लगे। 90% से अधिक नंबर वाले विद्यार्थियों को सजा-धजाकर स्कूल, कोचिंग सेंटर, टीचर और पैरंट्स के जरिये मार्केटिंग करने की शुरुआत हुई। जिसका हालिया उदाहरण आप सीबीएसई के रिजल्ट में देख सकते हैं। सोशल मीडिया की गलियों में, अखबारों के पन्नों में, गली मोहल्ले के पोस्टरों में 90 फ़ीसदी से अधिक नंबर लाने वाले विद्यार्थियों की रंगीन तस्वीरें छाई हुई हैं।

नंबर की इस नुमाइश को देखकर कुछ कामयाब लोग अपनी 10वीं और 12वीं की मार्कशीट में मिले कम नंबर को दिखाकर यह बताने लगे कि नंबर से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। बहुत सारे क्षेत्रों में नंबर की जरूरत नहीं पड़ती है। बिना अच्छे नंबर के भी कामयाबी हासिल की जा सकती है। इन तर्कों में कोई कमी नहीं है। यह बिल्कुल जायज तर्क है। महज 3 घंटे की परीक्षा में पास और फेल हो जाने से किसी को योग्य और अयोग्य ठहरा देना जायज बात नहीं है। ऐसा बिल्कुल हो सकता है कि जो 3 घंटे की परीक्षा में फेल हुआ हो, वह अपनी जिंदगी में उतना ही कामयाब हो जितना की 3 घंटे की परीक्षा में टॉप किया हुआ विद्यार्थी। या यह भी हो सकता है कि जो विद्यार्थी फेल हुआ है वह आगे चलकर टॉप किये हुए विद्यार्थी से बड़ा मुकाम हासिल कर ले। हम अपनी आसपास की जिंदगी में ऐसे तमाम उदाहरण देखते हैं।  

वजह यह है कि जिंदगी के परीक्षा लेने का ढंग बिल्कुल अलग होता है। वह हमारे सामने ऐसे सवालों को नहीं रखती, जिसका जवाब पहले से किताबों में मौजूद हो। जिंदगी हमसे बिल्कुल नए सवाल पूछती है जिसका हल इस बात पर निर्भर करता है कि हमने अपने जीवन में सीखा क्या है? यानी हमारी सीख और समझ क्या है? इस बात पर निर्भर नहीं करती कि हमें किसी परीक्षा में कितने अंक आए हैं। इसलिए भी परीक्षा का किसी व्यक्ति के जीवन को गढ़ने में उतना अधिक महत्व नहीं है जितना कि यह प्रतियोगी समाज हमारे सामने हर वक्त प्रस्तुत करता रहता है।

लेकिन परीक्षा से जुड़ा दूसरा पक्ष भी समझते हैं। प्रतियोगिता इस दुनिया का यथार्थ बन चुकी है। इसलिए परीक्षा और नंबरों का बहुत स्वाभाविक तौर पर बहुत अधिक महत्व हो जाता है। रोजगार से जुड़े बहुत सारे क्षेत्रों में परीक्षा में मिले अंको पर गौर किया जाता है। बहुत सारे कारकों में परीक्षा में मिले अंक सबसे प्रमुख कारण होते हैं कि किसी व्यक्ति को रोजगार दिया जाए या नहीं या किसी विद्यार्थी को अमुक कॉलेज में एडमिशन दिया जाए या नहीं दिया जाए।

इसके साथ सरकारी विभागों में नौकरी करने की हर ख्वाहिश परीक्षा की दहलीज को पास कर ही हासिल की जा सकती है। कोई व्यक्ति चाहे कितना भी विवेकशील क्यों न हो? ईमानदार क्यों न हो? समझदार क्यों न हो? उसे भारतीय प्रशासनिक सेवा, न्यायिक सेवा से जुड़े काम करने का मौका तभी मिलेगा जब वह परीक्षा पास कर पाएगा। जब वह लाखों की भीड़ को पीछे छोड़ते हुए अपने अंकों के लिहाज से वह ऊपर से हजार लोगों के बीच में मौजूद होगा।

कहने का मतलब है कि परीक्षा प्रणाली हमारे सामने द्वन्द्व पैदा करती है। अपने फायदे भी रखती है और अपने नुकसान भी गिनवाती है। व्यवहारिकता का तकाजा कहता है कि परीक्षा प्रणाली ठीक है लेकिन मनुष्यता का सबसे गहरा हिस्सा कहता है कि परीक्षा प्रणाली कई तरह की नाइंसाफियों को अपने साथ लेकर चलती है। इस द्वन्द की पृष्ठभूमि में अब कुछ जानकारों की राय समझने की कोशिश करते हैं।  

NCERT के भूतपूर्व निदेशक कृष्ण कुमार ने अंग्रेजी पत्रिका द हिंदू में लिखा है कि परीक्षा प्रणाली की शुरुआत 19 वीं सदी के अंतिम समय से शुरू होती है। उस समय स्कूल कम थे। कॉलेज कम थे। अंग्रेजों को लोअर लेवल पदों पर क्लर्क की भी जरूरत थी। तभी परीक्षा प्रणाली की शुरुआत हुई ताकि परीक्षा के आधार पर छंटनी कर दी जाए और वही आगे आ पाए जो परीक्षा पास कर पाए। दुखद बात यह है कि आजादी के बाद भी यह प्रणाली बदस्तूर जारी रही है। आधारभूत तौर पर देखा जाए तो परीक्षा की प्रणाली एक तरह से 'छंटनी की प्रणाली' है।

परीक्षा प्रणाली एक तरह से बाधा का काम करती है जो किसी को आगे पढ़ने से रोकती है। सालों-साल परीक्षा की यह प्रणाली जारी रही इसलिए सामाजिक वैधता मिल गई। इस पर सवाल किया जाना बंद कर दिया गया। अगर ध्यान से देखा जाए तो परीक्षा प्रणाली का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं दिखता है। किसी भी नौजवान की क्षमता जांचने के लिए परीक्षा एक वैद्य प्रणाली नहीं दिखती है। केवल 3 घंटे की परीक्षा में कुछ सवाल और जवाब की मदद से किसी को योग्य और अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है।

परीक्षा प्रणाली अवसर की समानता का भ्रम पैदा करती है। इसलिए भी लोग परीक्षा प्रणाली को आसानी से स्वीकार कर लेते हैं, इस पर सवाल नहीं उठाते हैं। भारत जैसे गैर बराबरी वाले मुल्क में सबकी स्थितियां बराबर नहीं है। कोई महंगे से महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है तो कोई बिना फीस वाली सरकारी स्कूल में पढ़ता है। किसी के घर में हर तरह की सुविधाएं हैं और किसी को अपने घर में लालटेन जला कर पढ़ना पड़ता है। इन सभी की योग्यता परखने के लिए 3 घंटे की परीक्षा उपयुक्त नहीं हो सकती है।

केवल इस बात से परीक्षा पारदर्शी प्रणाली नहीं बन जाती है कि विद्यार्थियों को रोल नंबर में बदल दिया गया है, सबके लिए एक ही तरह का सवाल रखा गया है, कॉपी चेक करने वाले शिक्षक का किसी को नाम नहीं पता है। जबकि यह पूरी तरह से गलत है। इससे यह स्थापित नहीं हो जाता है की अवसरों की समानता वाला माहौल उपलब्ध करवाया जा रहा है।

मौजूदा समय में छपरा के राजेंद्र कॉलेज के प्रोफ़ेसर और सीएसडीएस जैसी प्रतिष्ठित संस्थान में रिसर्च फेलो रह चुके चंदन श्रीवास्तव से भी इस मुद्दे पर बात हुई। चंदन श्रीवास्तव का कहना है कि ज्ञान और विचार को मापने का कोई तरीका नहीं होता है। यह सामान की तरह नहीं होता है कि इनकी कीमत निर्धारित की जाए या इनकी मात्रा निर्धारित की जाए। परीक्षाओं में मिलने वाले नंबर से ज्ञान और सीख को मात्रात्मक कैटगरी में बदलने का भरम पैदा कर दिया गया है, इसलिए लोगों के बीच अमूर्त ज्ञान की बजाय केवल परीक्षाओं और नंबरों का महत्व रह जाता है। असलियत यह है कि सीखना एक तरह की सतत प्रक्रिया है।

जीवन भर चलती रहती है। पिछले सीखे हुए अनुभवों के साथ प्रयोग करने पर नया बन कर चलती रहती है। जैसे टीवी की सीख के साथ प्रयोग करने पर ही कम्प्यूटर बना होगा। यह अचानक नहीं बन गया होगा। न ही इसे बनाने में जो कोशिशें लगी हैं उसे मात्रत्मक कैटगरी में बांटा गया होगा। इन कोशिशों से ही सीखना जैसी प्रक्रिया का जन्म होता है और इसे अंको में मापा जा सके, यह नामुमकिन है।

पूंजीवादी समाज ने बहुत खूबी के साथ ज्ञान को मात्रात्मक रूप में बदल दिया है। पूरे समाज ने इसे स्वीकार भी कर लिया है। जिसके अंक अधिक हैं, उसकी सामाजिक स्वीकार्यता अधिक है। अंकों की होड़ लगी हुई है। इसीलिए हर सामान्य गार्जियन यह चाहता है कि उसके बच्चे अधिक से अधिक नंबर लाएं। बच्चे जितना अधिक नम्बर लाते हैं गार्जियन को उतनी अधिक संतुष्टि मिलती है। बड़े ध्यान से देखिए तो आपको दिखेगा कि आजकल के परिवारों में बच्चों के साथ यह बहस सबसे अधिक है कि उन्हें कितने अंक आए।

इस बहस ने परिवारों में भी कंपटीशन पैदा कर दिया है। इसलिए जिसके अधिक नंबर आते हैं वह सोशल मीडिया से लेकर हर सार्वजनिक जगह पर वाहवाही का पात्र बना हुआ है। इस सामाजिक दबाव ने बच्चों के अंदर घनघोर तरीके से बोझ पैदा करने का काम किया है। इसलिए बच्चों के अंदर निराशा भी बढ़ी है और आत्महत्याओं के प्रवृतियां भी बढ़ रही है।

प्रोफेसर अमितेश कुमार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं और पहले पत्रकार भी रह चुके हैं। अमितेश कुमार का इस मुद्दे पर कहना है कि परीक्षाएं किसी की योग्यता को जांचने का सही पैमाना नहीं हैं। क्योंकि सब अलग-अलग है और सब की योग्यताएं अलग-अलग हैं। सब की दक्षताएं अलग-अलग हैं। लेकिन समाज की कड़वी सच्चाई हैं कि वह सबको कुछ खांचों में बांटकर देखने के सिस्टम में बदली हुई है। इन खांचों में ढालकर खुद की योग्यता प्रस्तुत कर दी गई तो सामाजिक स्वीकार्यता है अन्यथा समाज हमें बहिष्कृत कर देता है।

परीक्षा भी एक कड़वी सच्चाई है। कई सारे विद्यार्थी अलग ढंग से सोचने के बावजूद भी समाज से बहिष्कृत होने के डर में परीक्षा को मजबूरी में गंभीरता से लेते हैं। इसमें कई सारे सफल भी हो जाते हैं तो कई सारे नाकामयाब भी। उदाहरण के तौर पर बताऊं तो बैचलर और मास्टर अगर मानविकी विषय के पिछले 10 सालों के सवाल उठा कर देखे जाएं तो गिनती के महज 30 सवाल हैं, जिन्हें घुमा फिरा कर बच्चों से पूछा जाता है। इन सवालों को किसी ने अगर मॉडल आंसर के हिसाब से जवाब नहीं दिया, अपनी क्रिएटिविटी लगा दी या अपनी चिंतन क्षमता लगा दी तो उसका बंटाधार होना तय है।

परीक्षाओं की वजह से मानविकी के विद्यार्थी को सबसे अधिक नुकसान का सामना करना पड़ता है क्योंकि मानविकी से जुड़े विषय सबके अंदर एक ही तरह के थॉट प्रोसेस को पैदा नहीं करते हैं। सबके थॉट प्रोसेस अलग-अलग तरीके से पैदा होते हैं। लेकिन सबको एक ही तरह से सोचने के लिए मजबूर किया जाता है। हमें पता नहीं चलता लेकिन सबका एक ही तरह से सोचना जिंदगी में कुछ समय के बाद बहुत अधिक बोरियत पैदा करता है। उबासी पैदा करता है। शिक्षा की इस पद्धति ने धीमी जहर की तरह कईयों को बर्बाद किया है और मैं कईयों को हर रोज इसमें बर्बाद होता हुआ देखता हूं।

इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव से बात हुई। अभिषेक श्रीवास्तव पत्रकार होने के साथ-साथ बच्चों को गणित भी पढ़ाते हैं। अभिषेक श्रीवास्तव का कहना था कि मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है। यानी कि ऐसी प्रक्रिया जो साल में केवल एक बार न हो। जैसा कि दूसरे देशों में होता है। हफ्ते भर में जो पढ़ाया समझाया जाता है, उसे आंकने की कोशिश की जाती है। इस तरह से आंकने की कोशिश की जाती है कि बच्चों।

शिक्षक और अभिभावक पर गैर जरूरी तनाव न पनपे। सब कुछ आसानी से हो जाए। सहज तरीके से हो जाए। लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं होता है। अभी हाल फिलहाल की खबर है कि कई शैक्षणिक बोर्ड ने अपनी सिलेबस में इसलिए कटौती की वह साल भर में अपना सिलेबस पूरा कर पाएं। कहने का मतलब है कि हमारे एजुकेशन सिस्टम में परीक्षा का बहुत अधिक दबाव है। अगर एक क्लास में एक बच्चे को 90 नंबर आ रहे हैं और दूसरे बच्चे को 50 नंबर तो इसका साफ मतलब है कि शिक्षकों की तरफ से अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है। सीखने की प्रक्रिया में 5, 10 नंबर का गैप समझ में आता है लेकिन बहुत सारे विद्यार्थियों के अंकों में बहुत बड़ा गैप शिक्षण पद्धति पर गहरा सवाल खड़ा करता है।

इन सबके अलावा असल बात तो यह है 3 घंटे में योग्यता का सर्टिफिकेट बांटना बिल्कुल उचित काम नहीं है। इसलिए परीक्षा पद्धति पर भी सवालिया निशान लगाना बहुत जरूरी है। लेकिन हमारे अभिभावक भी इसी परीक्षा पद्धति से पास हुए हैं। इसलिए वे इसे बदलने की अहमियत को नहीं समझ पाते हैं। लेकिन समाज का असल बदलाव अपनी पिछली पीढ़ी की फोटोकॉपी बनते हुए सनाज से नहीं होता है। इसमें दरारे पड़ती है और यह दरारें तभी प्रभावी तरीके से पड़ेंगी जब परीक्षा जैसी लोक सहमति से चल रही प्रणाली पर जमकर सवालिया निशान खड़ा किया जाएगा।

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