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देश में हर नागरिक को वैक्सीन लगाने की वास्तविक लागत

केंद्र सरकार की भूमिका और वैक्सीन निर्माताओं द्वारा घोषित क़ीमतों ने ढेर सारे असंतोषजनक प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
देश में हर नागरिक को वैक्सीन लगाने की वास्तविक लागत

भारत में सभी को टीका लगाने पर सरकार को कुल कितनी लागत पड़ने वाली है? इसकी गणना निहायत आसान है लेकिन इसका जवाब काफी कुछ आपकी मान्यताओं के आधार पर भिन्न हो सकता है।

हम सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि हमारी कुल आबादी लगभग 135 करोड़ है, और हमारी व्यस्क जनसंख्या (18 वर्ष से अधिक की उम्र) 85 करोड़ से लेकर 90 करोड़ के बीच में कहीं होनी चाहिए। विभिन्न स्रोतों के अनुसार केंद्र सरकार अभी तक सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया (एसआईआई) से 150 रूपये की दर से कोविशिल्ड टीके की खुराक खरीद रही थी। भारत बायोटेक की कोवाक्सिन के लिए भी यही कीमत चुकाई जा रही है, जैसा कि कंपनी द्वारा जारी विज्ञप्ति से पता चला है। अब अगर हम मान लें कि 90 करोड़ वयस्कों में से प्रत्येक को दो खुराक लेने की आवश्यकता है तो, कुल 180 करोड़ खुराक की जरूरत पड़ने वाली है। 180 करोड़ खुराक को 150 रूपये प्रति खुराक से गुणा करें तो इसके लिए कुल लागत 27,000 करोड़ रूपये की बैठती है।

दिलचस्प तथ्य यह है कि यह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बताये गए इस साल के टीकाकरण कार्यक्रम के लिए आवंटित किये गए 35,000 करोड़ रूपये की रकम में से अच्छा खासे 8,000 करोड़ रूपये अर्थात – 1.06 अरब डॉलर से कुछ अधिक की बचत का प्रतिनिधित्व करता है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि अगर और पैसों की जरूरत होगी, तो उसे भी पूरा किया जाएगा।

निश्चित रूप से यह पहला बड़ा प्रश्न है।

लेकिन अभी तक केंद्र सरकार ने वास्तव में सामने से यह नहीं कहा है कि वह सभी का टीकाकरण क्यों नहीं करना चाहती है। जो उसकी ओर से कहा गया है, वह यह है कि टीका निर्माताओं को अपनी उत्पादन क्षमता का आधा हिस्सा केंद्र सरकार के लिए आरक्षित रखना होगा, और बाकी को उच्च शुल्क पर राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। 

स्वाभाविक रूप से यह इंगित करता है कि केंद्र सरकार अब देश में सिर्फ आधी व्यस्क आबादी को ही अपने बजट के माध्यम से टीकाकरण कराने की इच्छुक है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब संभवतया इसका इरादा अपने मूल आवंटित 35,000 करोड़ रूपये में से मात्र 13,500 करोड़ रूपये ही खर्च करने का है, और शेष टीकाकरण को राज्य सरकारों और निजी व्यक्तियों के भरोसे छोड़ देने का है। इसके चलते उसके पास 21,500 करोड़ की भारी बचत होगी, जबकि यह विभिन्न राज्यों के बजट और व्यक्तियों के खर्चों में जुड़ जायेगा।

लेकिन तब ऐसे में, राज्यों को अपने खुद के बजट के माध्यम से बाकी बचे लोगों का टीकाकरण तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा का भुगतान कर कराना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि एसआईआई उनसे प्रति खुराक का 400 रूपये, जबकि बीबी प्रत्येक खुराक के लिए राज्यों से 600 रूपये वसूलने का इरादा रखती है।

अगर सभी राज्य सिर्फ एसआईआई से खरीदते हैं तो इसके लिए उन्हें सामूहिक रूप से सिर्फ 13,500 करोड़ रूपये का भुगतान नहीं करना पड़ेगा, जैसा कि केंद्र सरकार को 45 करोड़ वयस्कों को टीका लगाने के लिए खर्च करना पड़ रहा है, बल्कि उतनी ही संख्या के लिए उसे 36,000 करोड़ रूपये चुकाने होंगे।

लेकिन फिर वे सिर्फ एसआईआई से ही सारी खुराक नहीं खरीद सकते, क्योंकि कंपनी के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह सारी मात्रा की आपूर्ति अकेले कर सके। ऐसे में उन्हें बीबी से भी कुछ मात्रा की खरीद करने की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन बीबी की कीमतें तो इससे भी अधिक हैं। अगर राज्यों को 10 करोड़ वयस्कों को भी टीकाकरण के लिए बीबी का टीका लगाना पड़ा तो उन डोज के लिए उन्हें 12,000 करोड़ रूपये खर्चने पड़ेंगे। 35 करोड़ लोगों का टीकाकरण करने के लिए एसआईआई टीके के उपयोग में कुल 28,000 करोड़ रूपये की लागत आएगी। इस प्रकार कुल बिल 40,000 करोड़ रूपये तक पहुँच जाता है। वे जितना अधिक बीबी टीके का इस्तेमाल करेंगे, उनकी लागत उतनी ही बढती जायेगी।

वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार इस बात से बेहद प्रसन्न रहेगी क्योंकि इस मद में वह मूलतः आवंटित राशि से काफी अधिक बचत कर पाने में सफल रहने वाली है। इससे उसे 22,500 करोड़ रुपयों की बचत हो रही है, जो अर्थव्यवस्था में कोई छोटी रकम नहीं है।

ऐसे में तीन सवाल खड़े होते हैं। सरकार ने जैसा कि शुरु में अपने बजट में सारी रकम को खर्च करने के बारे में सोचा था, उसे क्यों बदला? और दूसरा, केंद्र सरकार को जिस कीमत पर टीका मुहैय्या कराया जा रहा है, उसकी तुलना में राज्य सरकारों और प्राइवेट अस्पतालों को काफी ज्यादा कीमत अदा क्यों करनी पड़ रही है? और अंत में, जिन दो टीकों को केंद्र सरकार द्वारा समान कीमत अर्थात 150 रूपये प्रति खुराक की दर पर ख़रीद रही है, उनकी कीमत राज्य सरकारों और प्राइवेट अस्पतालों के लिए नाटकीय तौर पर इतनी भिन्न कैसे है? क्योंकि एक टीका जिसके लिए केंद्र सरकार को 150 रूपये चुकाने पड़ रहे हैं, की कीमत राज्य सरकारों के लिए 400 रूपये निर्धारित की गई है, जबकि दूसरे वाले पर भी केंद्र सरकार को 150 रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं, लेकिन राज्य सरकारों को इसके लिए 600 रूपये चुकाने होंगे। 

निजी टीका उत्पादक मुनाफा कमाने के धंधे में हैं, वो चाहे भारत में हों या विदेश में। लेकिन जो बात अभी भी अस्पष्ट है, वह यह कि केंद्र सरकार द्वारा इन कीमतों को हरी झंडी देने के पीछे का ठीक-ठीक मंतव्य क्या है।

सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इस तर्क को रख रहे हैं कि मुक्त बाजार में, यह निजी कम्पनियों के हाथ में है कि वे क्या कीमत रखें या जो भी कीमत बाजार चुकाना चाहे, वह उसके लिए स्वतंत्र है। यह थोड़ा सा भ्रामक तर्क है क्योंकि जब नियामक और सरकार द्वारा सिर्फ कुछ ही खिलाड़ियों की बाजार में प्रवेश की अनुमति के जरिये नियंत्रित किया जाता है, जबकि कई अन्य लोग प्रवेश के लिए प्रतीक्षारत हों तो इसमें खेल के नियम पूरी तरह से बदल जाते हैं। 

एक सच्चे मुक्त बाज़ार के खेल की बजाय यह एक सरकार द्वारा स्वीकृत द्व्याधिकार या अल्पाधिकार (मानकर चलते हैं कि स्पुतनिक वी जल्द ही बाजार में उपलब्ध होने जा रही है) बन जाता है। और यह नागरिकों के हित में कोई अच्छी बात नहीं है। 

प्रोसेनजीत दत्ता बिज़नेसवर्ल्ड और बिज़नेस टुडे पत्रिकाओं के पूर्व संपादक रहे हैं। इस लेख को उनकी अनुमति लेकर उनकी वेबसाइट prosaicview.com से पुनः प्रकाशित किया गया है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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