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आदिवासियों के विकास के लिए अलग धर्म संहिता की ज़रूरत- जनगणना के पहले जनजातीय नेता

जनजातीय समूह मानते रहे हैं कि वे हिंदू धर्म से अलग रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करते हैं, इसलिए उन्हें अलग धर्म संहिता दी जाना चाहिए, ताकि आने वाली जनगणना में उन्हें अलग समहू के तौर पर पहचाना जा सके।
Separate Religion Code

जनजातीय समूह जनगणना के पहले अपनी अलग धार्मिक संहिता को हासिल करने के लिए संघर्ष की तैयारी कर चुके हैं। उनके प्रतिनिधि दिल्ली में अलग-अलग पार्टियों के नेताओं से मिल रहे हैं, ताकि उनकी मांगों के ऊपर सहमति बनाई जा सके। यह समूह देश के संवैधानिक इतिहास का हवाला देते हुए तर्क दे रहे हैं कि कुछ जनजातियों को उनके धर्म को चुनने और उसको व्यवहार में लाने का विकल्प नहीं दिया गया।

जब भारतीय संविधान हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म को मान्यता देता है, तो यह लोग जनगणना में अपने लिए अलग धार्मिक संहिता की मांग क्यों कर रहे हैं? जनजातीय समूहों का कहना है कि वे हिंदू धर्म से अलग रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। इसलिए उन्हें अलग धार्मिक संहिता दी जानी चाहिए, ताकि वे खुद को जनगणना में अलग समूह के तौर पर दिखा सकें।

न्यूज़क्लिक ने कुछ प्रतिनिधियों से बात कर यह समझने की कोशिश की, कि यह मांग कैसे उन जनजातियों के साथ जुड़ी है, जिनके अस्तित्व को आज कई तरह के ख़तरों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे अपनी पुरखों की ज़मीन से विस्थापित किए जाने का ख़तरा।

जमशेदपुर के पूर्व विधायक सूर्य सिंह बिसरा कहते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 45 भारतीय नागरिकों को उनके धर्म को मानने और उसके पालन का अधिकार देता है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उन्होंने कहा, "संविधान निर्माताओं ने हमें अत्याचार और भेदभाव से सुरक्षा उपलब्ध कराई और तय किया कि सरकार अपने संसाधनों के एक हिस्से का इस्तेमाल हमारे विकास के लिए करे, लेकिन वे हमारी धार्मिक पहचान के मुद्दे का समाधान नहीं कर सके। ब्रिटिश प्रशासन हमें मूलनिवासी या देशी आबादी मानता है, जहां आज़ादी के बाद हमें 6 बड़े धर्मों में एक को चुनना पड़ा। हमारा तर्क है कि हम इस देश में सनातन धर्म के आने से पहले से रहते आ रहे हैं।"

बिसरा ने आगे कहा, "हम हिंदू नहीं हैं, क्योंकि हम प्रकृति की पूजा करते हैं और कर्मकांड में यकीन नहीं करते। हममें जातीय प्रधानता नहीं होती। लेकिन बहुसंख्यकों की राजनीति में यकीन करने वाले हमें हिंदुओं के तहत गिनते हैं, ताकि उनकी संख्या बढ़ाई जा सके। यह मांग हमारे भविष्य से जुड़ी हुई है, क्योंकि सरकार जनगणना में हासिल किए गए आंकड़ों के आधार पर अपने संसाधनों का संबंधित वर्ग के लिए उपयोग करती है। जनजातियां जनगणना में "अन्य" का विकल्प चुन सकती हैं, लेकिन इसे अलग धर्म नहीं बता सकतीं। अगर पांचवी अनुसूची हमारी ज़मीन को मान्यता देती है कि हम संबंधित क्षेत्र में रहते हैं, तो हमारे धर्म को मान्यता क्यों नहीं दी जा सकती?"

गीताश्री ओरांव झारखंड की पूर्व शिक्षामंत्री हैं, उन्होंने कहा कि कुछ राज्यों ने जनजातीय आबादी के लिए अलग धर्म की मांग की जरूरत को समझा है, लेकिन ज़्यादातर यह मुद्दा प्रभुत्वशाली जनजातियों के इर्द-गिर्द घूमता है। झारखंड विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर जनगणना के फॉर्म में सारना धार्मिक संहिता को शामिल करने की अपील की है। उन्होंने कहा कि सारना संहिता की मांग पांच राज्यों- झारखंड, असम, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा, में रहने वाले आदिवासी कर रहे थे। लेकिन दूसरे राज्यों में रहने वाली जनजातियां अपने अलग रीति-रिवाजों का पालन करती हैं और उनका धर्म- भील, कोरी, बिरसैत, सफाहोद और सनमाही और अन्य कई नामों से जाना जाता है। उन्होंने कहा, "अगर जनगणना फॉर्म में आदिवासी धर्म संहिता नहीं जोड़ी जाती, तो इसका कोई मतलब नहीं है, क्योंकि आपको शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए ज़्यादा पूंजी का निवेश नहीं मिलेगा, क्योंकि आपकी संख्या जितनी ज़्यादा होनी चाहिए थी, उतनी नहीं गिनी गई। इसलिए संघर्ष लंबा है।"

ओरांव यहां कर्नाटक की तरफ इशारा कर रही थीं, जहां बीजेपी सरकार ने अपनी पेयजल, सिंचाई और सड़क निर्माण की परियोजनाओं के लिए 2018 से 21 के बीच 7,885.32 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं।

आदिवासी धार्मिक संहिता की राजनीति पर चर्चा करते हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर जीतेंद्र मीणा कहते हैं कि अपनी अनोखी पहचान और रीति-रिवाजों के संरक्षण में जनजातीयों के सामने तीन तरह की चुनौतियां आ रही हैं। उन्होंने कहा कि आरएसएस और ईसाई मिशनरियों द्वारा अपनी सहूलियत के हिसाब से आदिवासी समुदाय के लोगों पर धर्म की पहचान थोपते हैं। दूसरा, आदिवासियों को अपने समुदाय के विकास के लिए संसाधनों का सही हिस्सा उपलब्ध नहीं कराया जाता। और अब भी उन्हें सबसे बड़ा ख़तरा, उनके पुरखों की ज़मीन से खनन करने के लिए बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा विस्थापित किया जाना है। नरेश चंद्र सक्सेना कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक़, आज़ाद भारत में आदिवासियों ने सबसे ज़्यादा विस्थापन झेला है।

उन्होंने कहा, "आज़ादी से पहले आदिवासियों को मूलनिवासियों, प्रकृति पूजक या जनजातीय धर्म को मानने वालों के तहत वर्गीकृत करने का विकल्प दिया जाता था। लेकिन आज़ादी के बाद उन्हें जनजातियों के तौर पर पहचाना जाने लगा, लेकिन उनका धार्मिक दर्जा अस्पष्ट रहा। अलग-अलग धार्मिक समूह अपनी ताकत का इस्तेमाल कर उन्हें अपने पाले में दिखाने की कोशिश करते हैं, जबकि यह बेहद साफ़ है कि जनजातियों के रीति-रिवाज़ बहुत अलग होते हैं, और वे पूर्ति पूजा जैसी परंपराओं का पालन नहीं करते। वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन उन्हें अपने पाले में करना चाहते हैं, लेकिन वे उन्हें नि:शक्त करने के लिए 'फूट डालो और शासन करो' की नीति अपनाते हैं। जब वे उन्हें वनवासी बताते हैं, तो कहते हैं कि सिर्फ़ जंगल में ही रहने वाले आदिवासी हैं, जबकि आदिवासी पहाड़ों और मैदानों में भी रहते आए हैं। मैं राजस्थान से आता हूं, और हमारे साथ भी बहुत भेदभाव किया जाता है। तुहिन सिन्हा जैसे आरएसएस विचारकों का दावा है कि कैसे बिरसा मुंडा भी एक हिंदू प्रतीक हैं, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ़ एक लोकप्रिय संघर्ष छेड़ा था। दूसरा, इन समुदायों के विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों में लगातार कटौती की जा रही है।"

मीना ने कहा कि जनजातीय समुदायों के सामने सबसे बड़ी चुनौती विस्थापन की है, क्योंकि कॉरपोरेट की नज़र उनकी बेशकीमती ज़मीन पर है, ताकि खनिज़ों, अयस्कों, कोयले और हीरे का उत्खनन किया जा सके। केंद्र सरकार की छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य में स्थित परसा कोयला प्रखंड को अनुमति दिए जाने की जमकर आलोचना की जा रही है। वहां केंद्र सरकार ने 23 कोयला प्रखंडों का प्रस्ताव दिया है। इसी तरह के विरोध प्रदर्शन झारखंड के नेतरहाट में हो रहे हैं, जहां आदिवासी 8,090 एकड़ में बनाई जा रही फायरिंग रेंज का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे 245 गांवों में 2.7 लाख लोग विस्थापित हो सकते हैं।

उन्होंने आगे कहा, "आदिवासी अपनी पहचान को दृढ़ता से पेश कर रहे हैं, क्योंकि कॉरपोरेट उन्हें जमकर कुचलने की कोशिश कर रहा है। अभी जब हम बात कर रहे हैं, तब झारखंड में लोग नेतरहाट से रांची तक 200 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर रहे हैं, उनकी मांग है कि प्रस्तावित फायरिंग रेंज को नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि इससे 2 लाख 70 हजार लोग विस्थापित होंगे।"

ऐसे कई अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि पिछले 50 सालों में दोगुनी संख्या में आदिवासी विस्थापित हुए हैं। शहरी इलाकों में रहने वाले 45 फ़ीसदी आदिवासी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। भारत सरकार द्वारा किए गए हालिया विश्लेषण से पता चलता है कि उच्च जातियों की तुलना में आदिवासी पुरुषों का जीवनकाल औसत तौर पर सात साल कम है। महिलाओं में यह अंतर चार साल का है। "तो सरकार अपने कार्यक्रमों के बारे में अपनी पीठ थपथपा चुकी है, लेकिन यह योजनाएं लोगों तक नहीं पहुंच रही हैं। मुझे लगता है कि खुद की पहचान को दृढ़ता से पेश करने के लिए आदिवासी जनगणना में एकल पहचान की मांग कर रहे हैं।"

क्या बताते हैं आंकड़े?

आशीष गुप्ता और निखिल सुदर्शनन द्वारा एक अध्ययन किया गया, जिसका शीर्षक "लार्ज एंड पर्सिस्टेंट लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी डिस्पैरिटी बिट्वीन इंडियाज़ सोशल ग्रुप्स" था। यह अध्ययन बताता है कि एक आदिवासी पुरुष की औसत उम्र 2013-16 के बीच 62 साल 4 महीने थी। जबकि उच्च जाति के पुरुषों की यह उम्र 69 साल 4 महीने है। महिलाओं के मामले में यह अंतर चार साल का है, जहां उच्च जाति की महिला की औसत उम्र इन सालों में 72 साल 2 महीने रही, जबकि आदिवासी महिलाओं की औसत उम्र 68 साल रही। कुपोषण के मामले में भी सामाजिक तौर पर उन्नत दूसरे तबकों की तुलना में आदिवासियों की स्थिति खराब है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि आदिवासियों के 40 फ़ीसदी बच्चे कुपोषित हैं, जबकि 16 फ़ीसदी गंभीर तौर पर कुपोषित हैं। जनजातियों में गरीबी का उन्मूलन भी कम हुआ है।

पूर्व में रहे योजना आयोग के एक अनुमान के मुताबिक़, आदिवासी अपने-आप में एक अनोखा समूह है, जिसकी 43 फ़ीसदी आबादी 2011-12 में गरीबी रेखा के नीचे थी, जबकि 1993-94 में यह आंकड़ा 62.6 फ़ीसदी था। इसका मतलब हुआ कि साल में गरीबी हटने की दर 1.7 फ़ीसदी ही रही। जबकि उच्च जातियों, पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों के लिए यह दर क्रमश: 3 फ़ीसदी, 2.6 फ़ीसदी और 2.8 फ़ीसदी थी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Separate Religion Code Necessary for Development of Adivasis, Say Leaders Before Census

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