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चीन के लिए अपने दरवाज़े बंद कर देना आत्मघाती कदम है

भारत उसी नाव की सवारी कर रहा है,जिस नाव की सवारी ऑस्ट्रेलिया या जापान (या फिर यूके) जैसे वे देश भी कर रहे हैं, जिनके हित बीजिंग के साथ मजबूत आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते बनाये रखने पर निर्भर हैं।
चीन के लिए अपने दरवाज़े बंद कर देना आत्मघाती कदम है

पिछले हफ़्ते भर आये विश्व आर्थिक समाचारों से उस नॉर्थ और साउथ ब्लॉक को झटके ज़रूर महसूस हुए होंगे, जहां भारत के वित्त, रक्षा, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय स्थित हैं। महामारी के बाद की विश्व व्यवस्था दरवाज़े पर दस्तक दे रही है।

शुक्रवार को यूरोपीय संघ ने 2020 की दूसरी तिमाही में यूरोज़ोन अर्थव्यवस्थाओं के प्रदर्शन का शुरुआती अनुमान जारी किया। 19 सदस्यीय इस ब्लॉक की जीडीपी में 12.1% की कमी आयी है। इसके बाद जर्मनी ने गुरुवार को आधी सदी पहले से रखे जा रहे सकल घरेलू उत्पाद के तिमाही रिकॉर्ड में अबतक की सबसे बड़ी गिरावट (10.1%) की घोषणा कर दी है।

जर्मनी यूरोप का पावरहाउस है और यह अकेले ही यूरोपीय संघ के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक चौथाई हिस्सा पैदा करता है। यही कारण है कि डायचे वेले का एक जर्मन टीकाकार इन तूफानों के बारे में कहता है:

'न तो शेयर बाज़ार का लड़खड़ाकर ध्वस्त होना और न ही तेल की क़ीमत के झटके से वह सब हो सका, जो कि एक छोटे से वायरस ने कर दिखाया है। विकास के 10 वर्षों के नतीजे हफ़्तों के भीतर साफ़ हो गये।'

'मार्च में जर्मन अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी, लेकिन संघीय सांख्यिकी कार्यालय का कहना है कि इस संकट की पूरी ताकत तो अब सिर्फ़ संख्या में ही परिलक्षित हो रही है। दूसरी तिमाही में 10 प्रतिशत की गिरावट। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।'

'चाहे निर्यात हो, आयात हो, सेवायें हों, या फिर निवेश हों इस महामारी के नतीजे को हर स्तर पर भुगतना पड़ा है। सरकार की तरफ़ से बड़े पैमाने पर किये गये निवेश की बदौलत बेरोज़गारी में बहुत तेज़ी नहीं आयी है। इस समय तक़रीबन 7 मिलियन जर्मन के पास कथित तौर पर 'अल्पकालिक रोज़गार' है,उनके पास करने के लिए बहुत कम काम है और सरकार उनके वेतन के हिस्से का भुगतान करती है।

“इसे लेकर आर्थिक सलाहकारों की राय बंटी हुई है। कुछ का कहना है कि जर्मन अर्थव्यवस्था पहले से ही अपनी हालत ठीक करने की कोशिश में लगी हुई है, तो कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि जर्मनी दिवालिया होने की सुनामी का सामना कर रहा है।”

इस बारे में धारणा यह थी कि जर्मनी के मुक़ाबले अमेरिका ने अपनी 10 प्रतिशत की गिरावट के साथ मामूली रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है। लेकिन,अमेरिकी वाणिज्य विभाग ने गुरुवार को ऐलान किया कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आधिकारिक स्कोरकार्ड की वार्षिक गति से देश की जीडीपी दूसरी तिमाही में 32.9 प्रतिशत गिर गयी। 1947 से अमेरिकी आर्थिक विश्लेषण ब्यूरो की तिमाही रिकॉर्ड के रखे जाने की परंपरा के बाद से अबतक की यह सबसे खराब तिमाही रही है।

अमेरिका के तक़रीबन आधे राज्यों, ख़ास तौर पर टेक्सास, फ़्लोरिडा और कैलिफ़ोर्निया जैसे बड़े राज्यों में हाल के हफ्तों में कोरोनोवायरस के संक्रमण के मामलों में हुई बढ़ोत्तरी ने पहले से ही नाज़ुक चल रहे आर्थिक सुधार को झटका दे दिया है। बुधवार को अमेरिका ने कोविड-19 से हुई मौतों के 150,000 के आंकड़े को पार कर लिया। इससे सेवा क्षेत्र-सेवाओं,यात्रा, पर्यटन, चिकित्सा देखभाल, बाहर खाने,और इसी तरह के अन्य क्षेत्रों पर ख़ौफ़नाक असर पड़ा है। 43.5% वार्षिक गति से बढ़ रहे सेवा क्षेत्र ने गोता लगा दिया है और उपभोक्ता ख़र्च में संपूर्ण गिरावट देखी गयी। घटते हुए बिक्री और गिरते हुए निर्यात के चलते कंपनियों ने अपने उत्पादन में कटौती कर दी है। दूसरी तिमाही में अमेरिका का निर्यात 64% घट गया है, जिससे आयात में 53% की गिरावट आ गयी है।

अभूतपूर्व उथल-पुथल मची हुई है। राष्ट्रपति ट्रम्प ग़लती पर ग़लती किये जा रहे हैं। साल के शुरुआती हिस्से में इस महामारी से निपटने के लिए तैयारी किये जाने के बजाय, उन्होंने अपने कुप्रबंधन को छिपाने के लिए दोष मढ़ने के खेल का सहारा लिया। दूसरी बात कि वह इस बात को मानकर बुरी तरह से गड़बड़ कर गये कि वायरस को नियंत्रित किये बिना ही अर्थव्यवस्था को फिर से शुरू कर पाना मुमकिन है। नवंबर के चुनाव पर नज़र रखते हुए उन्होंने अपनी राजनीतिक राजधानी की अर्थव्यवस्था को फिर से ज़बरदस्ती शुरू कर दिया और अमेरिका पश्चिमी दुनिया की सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन गया।

धीरे-धीरे महामारी के ठीक हो जाने के बाद भी यूएस के आर्थिक प्रदर्शन में बहुत सुधार नहीं होने वाला है। तीसरी तिमाही (नवंबर चुनाव से पहले) में अमेरिकी जीडीपी में वी-आकार यानी ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी वाले वसूली को लेकर देखे जा रहे ख़्वाबों को तो दिमाग़ से निकाल ही देना चाहिए। इस बात की ज़बरदस्त संभावना है कि जब तक अमेरिका इस वायरस के गिरफ़्त में रहेगा, तब तक वास्तविक आर्थिक सुधार नहीं हो पायेगा।

फिर से, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जापान की दूसरी तिमाही के 21.7 प्रतिशत की वार्षिक दर तक सिमट जाने का अनुमान है, जो कि निक्केई एशियाई समीक्षा के मुताबिक़, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से इसकी सबसे खराब तिमाही होगी। पहली तिमाही में 6.8 प्रतिशत की रिकॉर्ड गिरावट के बाद प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में चीन दूसरी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर्ज करने वाला ऐसा पहला देश है, जिसने प्रति वर्ष 3.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है। दूसरी तुलना में, चीन की दूसरी तिमाही की जीडीपी पहली तिमाही से 11.5 प्रतिशत बढ़ी है।

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कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही है कि अमेरिका अभी भी महामारी से उबरने की शुरुआत से कोसों दूर है, जबकि दूसरी प्रमुख अर्थव्यवस्थायें इस वायरस से होने वाले जोखिम और चुनौतियों के बावजूद पटरी पर लौटने के लिए लगातार आगे बढ़ रही हैं। अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व ने बुधवार को एक बयान में कहा, "अर्थव्यवस्था की राह बहुत हद तक इस वायरस की दशा और दिशा पर निर्भर करेगी।" सिर्फ़ बुधवार को अमेरिका में संक्रमण के 63,000 से अधिक नये मामले देखे गये, इसके साथ ही संक्रमण के कुल मामले 4.5 मिलियन से ज़्यादा तक पहुंच गये।

दूसरी तिमाही में रिकॉर्ड गिरावट और तीसरी तिमाही के लिए ग़ैर-मामूली निराशावादी दृष्टिकोण से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के अलावे ट्रम्प की फिर से चुने जाने की उम्मीदों को भी नुकसान पहुंचने की आशंका है। नस्लीय भेदभाव और अफ़्रीकी अमेरिकियों के साथ पुलिस के बरताव पर मची उथल-पुथल जैसे सामाजिक मुद्दों को देखते हुए आसमान छूती बेरोज़गारी और अपेक्षित व्यापार बंदी का एक स्नोबॉलिंग प्रभाव (कोई भी कारोबार शुरू करने के साथ जैसे-जैसे कंपनी आगे बढ़ती है, उसके पास ख़र्च करने के लिए अधिक पैसे होते हैं,लिहाजा समय के साथ कंपनी तेज़ी से आगे बढ़ती है) है।

अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष जेरॉम पॉवेल ने जो कुछ कहा है,वह भारतीय निर्णय निर्माताओं के लिए सबसे बड़ा सबक है। उन्होंने कहा है-आर्थिक दृष्टिकोण वायरस की दशा और दिशा पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है। ज़्यादातर अर्थशास्त्री और दीर्घकालिक निवेशक इस बात से सहमत हैं। इस लिहाज से ऑस्ट्रेलिया, भारत, स्पेन और ब्राज़ील जैसे उन देशों के लिए भविष्य धुंधला दिखायी देता है,जहां संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं।

सीधे तौर पर कहा जाये, तो किसी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। भारत अगर इस वायरस की आर्थिक सच्चाई को नज़रअंदाज़ करता है,तो इसकी क़ीमत भारत को चुकाना होगा। अर्थशास्त्रियों के बीच रायटर की तरफ़ से कराये गये एक हालिया सर्वेक्षण में यह भविष्यवाणी की गयी है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद को कोविड-19 के पूर्व के स्तर तक पहुंचने में दो या दो से ज़्यादा वर्ष लगेंगे।

ट्रम्प अपनी नाकाम घरेलू और विदेशी नीतियों से ध्यान हटाने के लिए चीन पर बढ़-चढ़कर हमले कर सकते हैं। वायरस से निपटने में चीन की कामयाबी और कुल जीडीपी के लिहाज से चीन की अमेरिका तक पहुंचने की तेज़ी अमेरिकियों की आंख की किरकिरी बन गयी है। ऐसे में भारत को अमेरिका-चीन के तनाव के बीच उलझने को लेकर बेहद सावधानी बरतनी चाहिए।

इसके अलावे और भी बड़े-बड़े मुद्दे हैं। अमेरिकी आर्थिक मंदी विश्व अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह से घसीट सकती है। फ़ेडरल रिज़र्व ने बेशुमार प्रोत्साहन योजना के वादे तो किये हैं, लेकिन डॉलर के दो साल के न्यूनतम स्तर तक आ जाने को देखते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए विकास इंजन रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था का जोखिम अब बढ़ता जा रहा है। ग़ौरतलब है कि भुगतान क्षमता से बाहर जारी किये गये अमेरिकी कोषों को ख़रीदने को लेकर अन्य देशों के बीच चीन भी अनिच्छुक दिखता है।

इसका मतलब यह है कि अमेरिका अपने ऋण दूसरों को हस्तांतरित करने में असमर्थ है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, अंतरराष्ट्रीय निवेशकों द्वारा अमेरिकी ट्रेजरी की होल्डिंग फ़रवरी में 7.07 ट्रिलियन डॉलर से गिरकर मई में 6.86 ट्रिलियन डॉलर रह गयी थी। इसका नतीजा यह हो सकता है कि अमेरिका को अपने विशाल कर्ज़ की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ सकती है।

एक चीनी टिप्पणी में इस बात का खुलासा किया गया है कि बीजिंग के ख़िलाफ़ ट्रम्प की एक शिकायत यह भी है कि ज़्यादा से ज़्यादा अमेरिकी ट्रेजरी को ख़रीदने के उनके अनुरोध को चीन ने अनसुना कर दिया है। कम से कम डॉलर सूचकांक मार्च में 103 अंक के उच्च स्तर से गिरकर गुरुवार को 94 अंक से नीचे आ लुढ़क गया है। अगर यह सूचकांक 80 अंक तक गिर जाता है, तो डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व के लिए गंभीर ख़तरा पैदा हो जायेगा। साल के अंत तक एक गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है। भारत को इस बात की उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दिनों में भारत पर ज़्यादा-से-ज़्यादा अमेरिकी कर्ज़ ख़रीदने के लिए अमेरिकी दबाव पड़ सकता है।

इस बीच हमें इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि इस महामारी के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था फिर से कभी पहले जैसी नहीं हो सकती है, क्योंकि इस महामारी ने व्यापार और सार्वजनिक स्वास्थ्य से लेकर भू-राजनीति तक के नतीजे को जकड़ रखा है। चीन की आर्थिक ताक़त को देखते हुए ट्रम्प प्रशासन उस देश के ख़िलाफ़ एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं,जो सही मायने में अपना आकार ही नहीं ले पा रहा है।

भारत उसी नाव की सवारी कर रहा है,जिस नाव की सवारी ऑस्ट्रेलिया या जापान (या फिर यूके) जैसे वे देश भी कर रहे हैं, जिनके हित बीजिंग के साथ मजबूत आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते बनाये रखने पर निर्भर हैं। अपने रिश्तों के मुख्य ढांचे के तौर पर पारस्परिक रूप से फ़ायदेमंद आर्थिक सहयोग के लेकर लिए चीन के बाहर अपने हाथ फैलाना भारत के लिए अविवेकपूर्ण क़दम तो है ही,ऐसा करना अतार्किक भी है। वाशिंगटन स्थित कुछ मझोले स्तर के अमेरिकी अधिकारी ‘चीन के सामने खड़े होने’ के लिए भारत सरकार की सराहना कर सकते हैं। लेकिन,महामारी ने न सिर्फ़ अमेरिका की चीन के ख़िलाफ़ ज़्यादा हमलावर होने की क्षमता को कम कर दिया है, बल्कि अगर भारत जैसे तीसरे देश चीन से अलग होकर ट्रम्प प्रशासन की चली गयी चाल पर चलते हैं,तो नुकसान का भुगतान इन देशों को करना होगा।

सोमवार के समाचारपत्रों में बताया गया है कि दूसरी तिमाही में भारतीय उद्योग के आठ प्रमुख क्षेत्रों का उत्पादन साल-दर-साल कम होते-होते 15% तक सिकुड़ गया है; महामारी हर दिन 40,000 नये पुष्ट मामलों के साथ रोज़-ब-रोज़ बढ़ती जा रही है; मरने वाली की कुल संख्या 35,000 की संख्या को पार कर गयी है; भारत अब दुनिया का तीसरा सबसे संक्रमित देश हो गया है।

इस लिहाज से प्रतिस्पर्धी मूल्य पर रोज़गार सृजन और गुणवत्ता वाले चीनी उत्पादों के लिए अपने दरवाज़े बंद करने का कोई मतलब नहीं है। भारत वैश्विक औद्योगिक श्रृंखला में पीछे हो गया है, उत्पादन और खपत के लिए चीनी आपूर्तिकर्ताओं पर बहुत ज़्यादा निर्भर है, और भारत को विदेशी निवेश की स़ख्त ज़रूरत है। ऐसे में चीन के साथ आर्थिक रिश्ते तोड़ लेना आत्मघाती कदम हो सकता है। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Shutting Door to China is Self-Defeating

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