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इतवार की कविता: इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक कभी असल झंडा

आज़ादी की 75वीं सालगिरह की धूम है। सरकार ने हर घर तिरंगा अभियान चलाया है। प्रधानमंत्री ने लोगों से सोशल मीडिया की अपनी डीपी में भी तिरंगा लगाने को कहा है। इसी मौके पर याद आती है वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल की। आइए इतवार की कविता में आज पढ़ते हैं उनकी कविता ‘झंडा’
india

झंडा

 

सुबह नींद खुलती

तो कलेजा मुंह के भीतर फड़क रहा होता

ख़ुशी के मारे

स्कूल भागता

झंडा खुलता ठीक 7:45 पर, फूल झड़ते

जन-गण-मन भर सीना तना रहता कबूतर की मानिन्द

बड़े लड़के परेड करते वर्दी पहने शर्माते हुए

मिठाई मिलती

 

एक बार झंझोड़ने पर भी सही वक़्त पर

खुल न पाया झंडा, गांठ फंस गई कहीं

हेडमास्टर जी घबरा गए, गाली देने लगे माली को

लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी

देश की बेइज़्ज़ती हुई है

 

स्वतंत्रता दिवस की परेड देखने जाते सभी

पिताजी चिपके रहते नए रेडियो से

दिल्ली का आंखों-देखा हाल सुनने

 

इस बीच हम दिन भर

काग़ज़ के झंडे बनाकर घूमते

बीच का गोला बना देता भाई परकार से

चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती

सोलह अगस्त भर भी

 

यार, काग़ज़ से बनाए जाने कितने झण्डे

खिंचते भी देखे सिनेमा में

इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक

कभी असल झंडा

कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला

असल झंडा

छूने तक को न मिला!

 

-    वीरेन डंगवाल

(5 अगस्त, 1947—28 सितंबर, 2015)

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