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याद: त्रिनेत्र जोशी 1948-2022    

त्रिनेत्र के चले जाने का मतलब है, एक वाम पक्षधर बुद्धिजीवी का हमारे बीच न होना।
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कभी-कभी

चुपचाप

खो जाती हैं चीज़ें

जैसे आज़ादी

...

कभी-कभी चुपचाप

आ जाती है रुलाई

जैसे बुढ़ापा 

 

 ये पंक्तियां कविअनुवादक और कभी एक ज़माने में मेरे दोस्त रहे त्रिनेत्र जोशी (26 मई 1948—22 सितंबर 2022) की एक कविता से ली गयी हैं। ऐसे ही चुपचाप ढंग से त्रिनेत्र हमारे बीच से हमेशा के लिए चला गयाइसी 22 सितंबर को। वह दिल्ली से सटे गुड़गांव (गुरुग्राम) में रहता था। उसके चले जाने का मतलब हैएक वाम पक्षधर बुद्धिजीवी का हमारे बीच न होना।

 जब त्रिनेत्र जोशी के इंतक़ाल की ख़बर मुझे मिलीअचानक 1970 का दशक याद आया और दिल्ली याद आयी। (दिल्ली मेरी याद में हमेशा से रही हैकिसी पुरकशिश धुन की तरह।) इसमें व्यक्तिगत/पारिवारिक याद का भी हिस्सा है।

 1970-71 में जब शोभा ने दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में मुझसे अदालती शादी कीतब उसके तीन गवाहों में एक गवाह त्रिनेत्र था। (अदालती शादी के लिए तीन गवाहों की ज़रूरत पड़ती हैजिनके दस्तख़त शादी के रजिस्टर पर होते हैं।) बाक़ी दो गवाह मेरे दोस्त मंगलेश डबराल और सईद शेख़ थे।

इनमें से दो गवाह मंगलेश और त्रिनेत्र इस दुनिया से कूच कर चुके हैं। सईद पिछले कई सालों से यूरोपीय देश फ़िनलैंड के एक शहर तुर्कू में रह रहा है।

1969 के आसपास त्रिनेत्र व मंगलेश पहाड़ (उत्तराखंड) से दिल्ली पहुंचे थे। उसी दौरान मैं भी इलाहाबाद से दिल्ली पहुंचा था। मंगलेश को साप्ताहिक ‘हिंदी पेट्रियट’ में नौकरी मिल गयी थी। त्रिनेत्र भी किसी पत्रिका/प्रकाशन से जुड़ा था। मैं बेरोजगार था। युवा कवि/लेखक के रूप में हम तीनों कुछ-कुछ नाम कमा चुके थे। यही हमारे परिचय/दोस्ती का आधार बना।

 यहां यह बता देना ज़रूरी है कि उस समय हम तीनों पर नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान संघर्ष का गहरा असरकिसी-न-किसी रूप में था। यह आगे भी बना रहा (कुछ हिचकडांवाडोलपनभटकावविचलनविरोधाभास के साथ)।

 यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उन दिनों (1970 का दशक) दिल्ली का लगभग समूचा हिंदी युवा लेखक समुदाय (कुछ अपवादों को छोड़कर) नक्सलबाड़ी आंदोलन के वैचारिक असर में था। वियतनाम पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के हमले और युद्ध के विरोध में दुनिया भर में जो आवाजें और आंदोलन उभर रहे थेउनका भी असर हम पर अच्छा-ख़ासा था। त्रिनेत्र इन सभी से उस दौर में गहराई से जुड़ा था।

 दिल्ली में शुरू में मंगलेश और त्रिनेत्र सरकारी कर्मचारियों के लिए बनी कॉलोनी सरोजिनी नगर के एक क्वार्टर में एक कमरा किराये पर लेकर रहते थे। बीच-बीच में मैं भी इस कमरे का बाशिंदा बन जाया करता था। बिंदकी (फ़तेहपुर) से अक्सर असग़र वजाहत भी यहां चला आता था और पड़ा रहता था। मेरी तरह वह भी बेरोज़गार था। हमारे चाय-नाश्ते-खाने का इंतज़ाम त्रिनेत्र और मंगलेश करतेबड़े प्रेम से। कुछ और उड़ते पंछी भी यहां डेरा डाला करते थे। आनंदस्वरूप वर्मा पास में ही एक कमरा किराये पर लेकर रहता था। वह नौकरीशुदा था।

 बाद में त्रिनेत्र और मंगलेश रहने के लिए मॉडल टाउन चले आये। (दिल्ली में मंगलेश और त्रिनेत्र की जोड़ी कई साल तक बनी रही और दोनों साथ-साथ रहते रहे।) सी-12मॉडल टाउन की मियानी/दुछत्ती में रहने के लिए ये दोनों चले आये। मैं बीच-बीच में यहां आता थासईद भी आता था और कुछ-कुछ दिन रहता था।

 मॉडल टाउन में रहना त्रिनेत्र व मंगलेश के लिए वामपंथी राजनीतिक/वैचारिक दृष्टि से उपयोगी और उत्प्रेरक रहा। यहीं भाकपा (माले)-लिबरेशन के दिशा निर्देश व नेतृत्व में हिंदी में खुली/क़ानूनी पत्रिका निकालने की योजना बनीपहले ‘तैयारी’ और उसके बंद होने के बाद ‘सिलसिला। चूंकि पार्टी 1970 के दशक में भूमिगत (अंडरग्राउंड) थीइसलिए सोचा गया कि जनसमुदाय के बीच पार्टी की नीतिविचार और दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार के लिए एक खुली पत्रिका होनी चाहिए।

ये दोनों पत्रिकाएंपार्टी के अन्य साथियों के सहयोग सेत्रिनेत्र के संपादन और संचालन में निकलीं। त्रिनेत्र ने यह काम बख़ूबीऔर वैचारिक मज़बूती के साथनिभाया। इस काम में मंगलेश और हम सब साथ होते थे।

 तैयारी’ और ‘सिलसिला’ की प्रिंट लाइन में सी-12 मॉडल टाउन का पता छपता था। संपादक के नाम के तौर पर ‘सूर्यकांत’ का नाम (छद्म नाम) जाता थायह ‘सूर्यकांत’ कभी त्रिनेत्र होता थाकभी मंगलेश!

 तो इस तरह त्रिनेत्र अंडरग्राउंड पार्टी का अंडरग्राउंड कार्यकर्ता थामंगलेशहम सब भी ऐसे ही अंडरग्राउंड कार्यकर्ता थे।

 बाद के दिनों में पार्टी में जो बिखराव आयाजो टूट-फूट मचीउसका असर हम सब पर पड़ा। त्रिनेत्र पर भी पड़ा। पहले वाली स्पिरिट अब उसके अंदर नहीं थी। अब वह कुछ अजब-ग़ज़ब रास्ते पकड़ने लगा था। उसके व्यक्तित्व में कुछ झोलकुछ गड़बड़झाले दिखायी देने लगे थे।

लेकिन त्रिनेत्र ने वामपंथ की राह कभी नहीं छोड़ी। जहां से उसने अपनी साहित्यिक/वैचारिक यात्रा शुरू की थीनक्सलबाड़ी की रोशनी मेंउससे उसने किनारा नहीं किया। भले ही वह लगाव उतना मुखर न रहा हो।

 (लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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