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'जहां कई सारे वकील होते हैं, वहां अब न्याय नहीं मिलता’

आगरा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्रों पर पहले तो देशद्रोह की धारा लगाई गई और बाद में यह संदेश फैलाया गया कि जो कोई भी अभियुक्त का वकील बनेगा उसे  बहिष्कृत कर दिया जाएगा।
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Image courtesy : The Indian Express

‘‘जहां बहुत अधिक पुलिसकर्मी होते हैं, वहां स्वतंत्राता नहीं रह सकती ; जहां बहुत अधिक सैनिक हों, वहां शांति मुश्किल से होती है ; जहां कई सारे वकील होते हैं, वहां अब न्याय नहीं मिलता।’

फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि आखिर किन संदर्भों में लिन युटांग नामक चीनी-अमेरिकी लेखक ने यह बात कही होगी।   मुमकिन है कि वह पूर्व राष्टपति जिमी कार्टर की तरह अमेरिकी समाज को देख रहे हों, जहां वकीलों का अत्यधिक संकेंन्द्रण हैं। जहां कानूनी कुशलता असमान रूप से वितरित दिखती है कि 90 फीसदी वकील महज दस फीसदी लोगों की सेवा में लगे रहते हैं।

निश्चित ही साडे़ तीन दशक से पहले गुजर गए लिन युटांग ने उन स्थितियों की शायद कल्पना भी नहीं की होगी, जहां शहर के वकील सामूहिक रूप से तय करते हों कि वह एक खास किस्म के मामले नहीं लड़ेंगे, भले ही उन्हें अंदाज़ा हो कि अगर इन मामलों के लिए वकील नहीं मिलेंगे तो इसमें गिरफ्तार लोग अपनी जिन्दगी के तमाम बेशकीमती साल सलाखों के पीछे ही गुजार देंगे।

इन दिनों बहस का मुददा आगरा में इंजिनीयरिंग की पढ़ाई कर रहे उन कश्मीरी छात्रों का है, जिन्हें देशद्रोह के आरोपों के तहत जेल में डाला गया है। क्योंकि कथित तौर पर उन्होंने टी 20 मैच में पाकिस्तान के हाथों भारत की हार के बाद  अपने वॉट्सएप स्टेटस में पाकिस्तान को बधाई देते हुए कुछ बात लिखाी थी।

न केवल देशद्रोह बल्कि भारतीय दंडविधान की अन्य धाराएं भी उनके खिलाफ दायर आरोपपत्रा में दर्ज हैं। उदाहरण के लिए धारा 153 ए -समुदायों के बीच आपसी वैमनस्य को बढ़ावा देना; धारा 506 बी - आपराधिक धमकी या 66 एस -साइबर आतंकवाद आदि.

आगरा शहर ही नहीं बल्कि आगरा जिले के विभिन्न तहसील आदि में बनी वकीलों की संस्थाओं ने इन तीनों छात्रों पर लादे गए मुकदमों की पैरवी करने से इन्कार किया है क्योंकि उनके मुताबिक छात्रों ने ‘‘राष्टद्रोही’’ काम किया है।

अब जैसा कि कानून की सामान्य जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि आरोप तथा दोषसिद्ध होने में बड़ा अंतराल होता है।  इसके बावजूद वकीलों ने यह रूख अपनाया है, इतना ही नहीं उन्होंने यह भी तय किया है कि ऐसा कोई बाहरी व्यक्ति जो इन छात्रों के मुकदमे को लड़ने के लिए तैैयार होता है, उसका भी वह विरोध करेंगे।

यह अलग बात है कि इन तमाम धमकियों के बाद भी मथुरा के एक वकील मधुवन दत्त चौधरी ने इन छात्रों की तरफ से मुकदमे लड़ने के लिए आगे आए हैं।

लोगों को याद होगा कि वही हाथरस मामले में देशद्रोह तथा यूएपीए कानून की धाराओं के अंतर्गत आरोपों का सामना कर रहे अतिक उर रहमान, मसूद अहमद और मोहम्मद आलम तथा दिल्ली में बसे केरल के पत्राकार सिदिदक कप्पन के वकील हैं।

यह पूछा जा सकता है कि वकीलों की यह कार्रवाई - जिन्हें वकालत का अपना पेशा करने का पूरा अधिकार है - खुद कानूनी पैमानों पर खरी उतरती है ? क्या वह सामूहिक तौर पर ऐसा कर सकते हैैैं कि ‘खास तरह के अभियुक्त ' की पैरवी करने से’ रूक जाएं और बाकियों को रोकें।  क्या वकीलों का पसंदगी का अधिकार असीमित होता है और क्या उन्हें यह आज़ादी है कि वह किसी मामले की मेरिट पर खुद ही पहले फैसला ले लें और मनमाने ढंग से ऐसा एकांगी निर्णय लें जो संविधान की धारा 21 के तहत अभियुक्त को मिला हुआ है, जिसे अपने मामले में अपना पक्ष रखने का या अपने प्रतिनिधि के मार्फत रखने का अधिकार है ?

वैसे हाल के वर्षों में देशद्रोह कानून के बढ़ते इस्तेमाल की तरफ मीडिया और न्यायपालिका की भी नज़र गयी है। एक मोटे आकलन के हिसाब से महज चार साल के अंतराल में 2016-2020  ऐसे मामलों की संख्या 165 फीसदी बढ़ी है।

निश्चित ही यह स्थिति न केवल आम नागरिकों के हिसाब से बल्कि जनतंत्र के स्वास्थ्य के हिसाब से भी चिंताजनक दिखती है।

क्या उन्हें यह बताया जा सकता है कि आज़ादी के बाद भारत ने तीन बड़ी राजनीतिक हत्याओं को देखा है, 31 जनवरी 1948 को हिन्दुत्व अतिवादी नथुराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, 31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई और 1990 में पूर्व प्रधानमंत्राी राजीव गांधी तमिल उग्रवादियों के हाथों मारे गए। इन सबके बावजूद कि इन हत्याओं के चश्मदीद गवाह थे, इन सबके बावजूद कि यह सभी हत्याएं आतंकवाद की श्रेणी में शुमार की जा सकती थी, किसी ने यह नहीं कहा कि हत्या में शामिल अभियुक्तों का वकालतनामा नहीं लेगे। उन्हें बाकायदा वकील मिले, अदालत में जिरह चली और उसके बाद ही सज़ा हुई।

क्या यही पैमाना हर मसले पर लागू नहीं किया जाना चाहिए, अभियुक्त के हर अधिकार की गारंटी की जाए। फिर महज आरोपों के आधार पर न्याय की समूची प्रक्रिया से किसी को भी दूर कैसे रखा जा सकता है?

दूसरी अहम बात यह है कि क्या हम ऐसे मामलों की मेरिट पर बात कर सकते हैं, जहां नारे लगाने केे लिए देशद्रोह का मुकदमा कायम किया गया हो। क्योंकि इस क्षेत्र के जानकारों ने इस केस को  उपहास योग्य कहा है ! इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश दीपक गुप्ता - जो सिद्धांततः मानते हैं कि लोकतंत्रा में विधि की किताबां में देशद्रोह को स्थान नहीं मिलना चाहिए।  जानेमाने पत्राकार करण थापर के साथ अपने साक्षात्कार में बताते हैं कि ऐसा कदम उठाने के पहले शायद कार्यपालिका ने सर्वोच्च न्यायालय के कई अहम फैसलों पर गौर तक नहीं किया है, जिसमें बार बार इस बात पर जोर दिया गया है कि जब तक किसी ऐसे मामले में हिंसा या हिंसा का डर शामिल न हो, तब तक उस मामले को ‘राष्टद्रोह’ में शामिल न किया जाए।

इस साक्षात्कार में उन्होंने बलवंत सिंह के साल 1985 के मामले का जिक्र किया था जिसमें भरे चैराहे पर ‘खालिस्तान जिन्दाबाद’ कहने पर बलवत्त सिंह पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ था। अदालत ने अभियुक्त को इस आधार पर बरी किया कि भले ही नारा लगाना अपने आप में आक्रामक हो, लेकिन चूंकि इसमें कोई हिंसा नहीं हुई या हिंसा का आवाहन किया गया, वह दोषी नहीं है।
कश्मीरी छात्रों पर लादे गए इस केस के संदर्भ में इतिहास के उदाहरण  पेश किए जा रहे हैं।

विश्लेषकों ने वर्ष 1999 के भारत और पाकिस्तान के बीच के क्रिकेट मैच का हवाला देते हुए लिखा, जो चैन्नई में हुआ था और जिसमें पाकिस्तान ने कई विकेटों से जीत हासिल की थी। पाकिस्तान की जीत पर स्टेडियम में खड़े तमाम लोगों ने बाकायदा खड़े होकर पाकिस्तानी टीम का खैरमकदम किया था। किसी विश्लेषक ने पूछा कि क्या आगरा के छात्रों पर लादे गए देशद्रोह के मामले के मददेनज़र क्या यह कहना वाजिब होगा कि चेन्नई में उस दिन जुटे तमाम दर्शकों पर भी पिछले प्रभाव से देशद्रोह के केस दर्ज किए जाएं ?

निःस्सन्देह आगरा के वकीलों की प्रतिक्रिया बरबस हमें डेढ दशक से अधिक वक्त़ पहले के दौर की याद दिलाती है, जब अख़बारों में ‘इस्लामी आतंकवाद’ की ख़बरें चलनी लगी थी और हर आतंकी घटना के पीछे ‘लश्कर ए तोइबा’ आदि का हाथ ढूंढ़ा जा रहा था। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा देश के अन्य हिस्सों के बार एशिशियेशन द्वारा पारित प्रस्ताव सूर्खियां बन रहे थे जिसमें वह ऐलान कर रहे थे कि ऐसे मामलों को जिसमें पुलिस ने लोगों पर ‘आतंकवाद’ के आरोपों के तहत केस दर्ज किए है, उन मामलों की पैरवी वह नहीं करेंगे।

उन दिनों यही बात सुकून देने वाली थी कि भले ही वकीलों के संगठन मिल कर किसी आरोपी का वकालतनामा लेने से भी इन्कार कर रहे हों, ऐसे गिने चुने वकील जरूर थे जिन्होंने अपने पेशागत एसोसिएशनों के इन मनमाने निर्णयों के खिलाफ अभियुक्तों की वकालत करने का साहस किया और इसके चलते वह खुद कई बार दक्षिणपंथियों के हमले का शिकार हुए। इस्माईल जलागिर - कर्नाटक, मोहम्मद शोएब - लखनऊ और उनके सहयोगी इस मामले में अग्रणी साबित हुए जिन्होंने संविधान के सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने आप को जोखिम में डाला।

यह वही दौर था जब शाहिद आजमी - मुंबई और नौशाद - कर्नाटक जैसे युवा वकीलों की कहानियां भी सूर्खियां बनीं, जिन्होंने निरपराधों के पक्ष में आवाज़ बुलंद की, आतंकवाद के नाम पर जो लोगों की प्रताड़ना चल रही थी, उन्हें जेल में ठूंसा जा रहा था, ऐसे लोगों की रिहाई के कोशिशें जारी रखीं, मगर ऐसा जोखिम उठाने के चलते यह दोनों अज्ञात हमलावरों की गोलियां का शिकार हुए।

इस्माईल जलागिर को अपने इन साहसपूर्ण कामों के लिए हिन्दुत्व दक्षिणपंथियों के हमलों का शिकार होना पड़ा। आततायियों ने उनके ऑफिस में आग लगा दी और उनके जुनियर वकील के घर पर पथराव किया गया।

एक साक्षात्कार में एडवोकेट मुहम्मद शोएब ने बताया था कि किस तरह लखनऊ, वाराणसी तथा फैजाबाद की अदालत में उन पर हमले हुए, जब आतंकवाद के नाम पर गिरफतार युवाओं की रिहाई के लिए उन्होंने उनका वकील बनना कूबूल किया।

हम याद कर सकते हैं कि कुछ मामलों में वकालतनामा लेने से ‘सामूहिक तौर पर इन्कार करने’ का यह सिलसिला व्यापक हो चल रहा था और बार कौन्सिल आफ इंडिया को इस मामले में ज्ञापन भी दिया गया था कि वह अलग अलग जिलों, इलाकों की बार एसोसिएशनों द्वारा पारित किए जा रहे इन प्रस्तावों पर गौर करे और उचित कदम उठाए क्योंकि ऐसे कदम न केवल पेशागत दुर्व्यवहार को उजागर करते हैं बल्कि वह ‘अभियुक्त के संवैधानिक और मानवाधिकारो’ पर भी हमला है।

स्म्रतिशेष के जी कन्नाबिरन (1929-2010) जो उन दिनों पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष थे और मशहूर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता एवं अग्रणी वकील के तौर पर सक्रिय भी थे, उन्होंने अपने हमपेशा वकीलों के नाम एक अपील जारी की थी कि वह खास मामलों को न उठाने के अपने निर्णय को वापस लें।

अपनी अपील में उन्होंने जो बात कही थी, वह काबिलेगौर है: ‘‘ बार एसोसिएशन के प्रस्ताव बचाव पक्ष के अभियुक्त के अधिकार को कुंद करते हैं। अपने पेशे पर अमल करना हमारे बुनियादी अधिकार का हिस्सा है। संविधान की धारा 21 के तहत अपना बचाव करने का अभियुक्त का भी अधिकार होता है। संविधान की धारा 22 (1)संदिग्ध व्यक्ति को यह अधिकार प्रदान करती है कि उसकी गिरफतारी और उसकी पूछताछ के दौरान उसका वकील वहीं उपस्थित रहे। अपने पेशे पर अमल करने का वकील का अधिकार अभियुक्त के तौर पर प्रस्तुत नागरिक के बुनियादी अधिकार के साथ जुड़ा होता है।

धारा 21 के तहत अपने बचाव के लिए वकील के होने का अभियुक्त का अधिकार सम्मिलित होता है। अपनी पसंद के पेशे का अनुसरण करने की वकील की आज़ादी की सीमाएं होती हैं। ... क्या पेशेवर सदस्यों के पास यह अधिकार होता है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार मुकदमे को ले या न लें ? क्या बार के सदस्य धारा 21 के तहत अभियुक्त को मिले अधिकार का उल्लंघन कर सकते हैं ?’’

के जी कन्नाबिरन की अपील का अंत कुछ नैतिक प्रश्नों को उभारते हुए हुआ था:

‘‘ इन प्रस्तावों के तहत अपनाया गया रूख न नैतिक तौर पर और न ही संवैधानिक तौर पर उचित है। एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नैतिक प्रतिक्रिया नहीं होती। एक संतुलित मुकदमे की बात करने का मतलब यह नहीं होता कि हम दोषी को उसके अपराध से मुक्त कर रहे हैं। भावनात्मक उद्वेग की परिणति फार्सिकल आत्मअहंकार में नहीं होनी चाहिए। नैतिकता और संविधान के बीच कोई द्वैत नहीं होता अगर हम संविधान की नैतिक व्याख्या करते हैं। इस गलत धारणा से शुरू न किया जाए कि कानून और न्याय तथा कानून और नैतिकता के बीच कोई रिश्ता (affinity ) नहीं होता है।’’

इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि अगले साल के पूर्वार्द्ध में उत्तर प्रदेश तथा कई अन्य राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव आसन्न हैं और यह बात देखते हुए कि ध्रुवीकरण का एजेण्डा आगे बढ़ाने की तमाम कोशिशें धर्मध्वजी राजनीति के दक्षिणपंथी वाहकों की तरफ से होंगी और यह सहज संभव है कि आनेवाले दिनों में आवाज़ों के दमन के लिए वह देशद्रोह या अन्य दमनकारी कानूनों का अधिकाधिक इस्तेमाल होगा। डेढ दशक पहले के इतिहास को देखते हुए यह भी संभव है कि तमाम बार एसोसिएशन ऐसे प्रस्तावों के साथ हाजिर हों कि वह ‘देशद्रोह’ या ‘आतंकवाद’ का आरोप झेल रहे मामलों का नहीं उठाएंगे।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि शासन की बागडोर हाथ में दाम दक्षिणपंथियों में और सड़कों पर उत्पात मचाते दक्षिणपंथीयों में जबरदस्त एकता है - जो भले ही अलग अलग बैनरों तक सक्रिय रहते हों - गोया सभी एक अलग किस्म के ‘ संयुक्त परिवार’ के सदस्य हों।

सवाल उठता है कि हम विकसित हो रही इस परिस्थिति से निपटने के लिए हमारे पास क्या रणनीति है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

When Too Many Lawyers Means No Justice

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