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क्यों भारत में पढ़ाई फ्री कर देने की जरूरत है?

भारत में भयंकर आय असमानता है, इसे पाटने के लिए जरूरी है कि सबकी शिक्षा तक पहुँच हो।
Education for all

भारत के कई विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं।  ऐसे में यह सवाल जरूरी हो जाता है कि क्यों भारत जैसे देश में मुफ़्त शिक्षा की जरूरत है, जहां समाज के कमजोर तबकों का एक बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा से दूर रह जाता है। बता दें जेएनयू, जादवपुर यूनिवर्सिटी, उत्तराखंड आयुर्वेद कॉलेज जैसे कई विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ाए जाने के खिलाफ छात्रों ने मोर्चा खोल रखा है।

चलिए सरकारी 'पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे' से ही शुरूआत करते हैं। PLFS के मुताबिक़, जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच, भारत में कुल परिवारों की संख्या 25.7 करोड़ है। इसमें 17.6 करोड़ ग्रामीण और 8.5 करोड़ शहरी परिवार हैं। भारत में औसत परिवार का आकार 4.2 सदस्यों का है। वहीं 1000 पुरूषों पर 956 महिलाएं हैं। इस सर्वे के मुताबिक़ 15 से 29 साल की उम्र में ग्रामीण भारत के 53 फ़ीसदी पुरुषों और 43 फ़ीसदी महिलाओं, शहरी क्षेत्रों के 66 फ़ीसदी पुरुषों और 65 फ़ीसदी महिलाओं ने उच्च शिक्षा हासिल की है।

PLFS के मुताबिक़, भारत में 15 साल की उम्र से ऊपर का 'लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट' 50 फ़ीसदी है। वहीं कामगारों का जनसंख्या से अनुपात करीब एक तिहाई (34 फ़ीसदी) है। 15 साल की उम्र से ऊपर की जनसंख्या में कामगार-जनसंख्या अनुपात 47 फ़ीसदी है। इसमें 15 साल से कम उम्र के बच्चों को शामिल नहीं किया गया है। इसमें पोस्ट ग्रेजुएट या उससे ऊंची शिक्षा पाने वाले लोग करीब 58 फ़ीसदी हैं।

कुल मिलाकर ग्रामीण भारत के 51.7 फ़ीसदी पुरूष और 17.5 फ़ीसदी महिलाएं, वहीं शहरी क्षेत्रों के 53 फ़ीसदी पुरूष और 14.2 फ़ीसदी महिलाएं काम करती हैं। भारत में शहरी और ग्रामीण आबादी क्रमश: करीब 75.9 करोड़ और 31.5 करोड़ है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों में लिंगानुपात क्रमश: 952 और 965 है। इस हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की संख्या 38.9 करोड़ और महिलाओं की संख्या 37 करोड़ होगी। वहीं शहरी क्षेत्रों में पुरुषों की संख्या 16 करोड़ और महिलाओं की संख्या 15.5 करोड़ है।

इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में पुरूष श्रमशक्ति करीब 20 करोड़ औऱ महिला श्रमशक्ति 6.5 करोड़ है। वहीं शहरी क्षेत्रों में पुरूष श्रमशक्ति 8.5 करोड़ और महिला श्रमशक्ति 2.2 करोड़ है।इस तरह 2017-18 में भारत की कुल श्रमशक्ति 37.2 करोड़ मापी गई। इनमें से 22.8 फ़ीसदी नियमित वेतन/भत्ता पाने वाले कामगार हैं, वहीं 24.9 फ़ीसदी आकस्मिक मज़दूर है। बचे हुए 52.2 फ़ीसदी स्वरोजगार में लगे हुए हैं। इस तरह भारत में 8.5 करो़ड़ नियमित कामगार, 9.3 करोड़ आकस्मिक मज़दूर हैं, वहीं 19.4 करोड़ लोग स्वरोजगार में लगे हुए हैं।

ग्रामीण भारत में स्वरोजगार में लगी कुल जनसंख्या में 11.6 करोड़ पुरूष हैं, वहीं 3.7 करोड़ महिलाएं हैं। जिनकी मासिक आय क्रमश: 8,955 रुपये और 4,122 रुपये है। शहरी क्षेत्रों में 3.3 करोड़ पुरुष और 0.76 करोड़ महिलाएं स्वरोजगार में हैं। इनकी औसत मासिक आय क्रमश: 16,067 रुपये औऱ 6,994 रुपये है।

नियमित वेतन/भत्ता पाने वाले हिस्से में 2.8 करोड़ पुरूष और 0.68 करोड़ महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों से हैं, जिनकी मासिक आय़ क्रमश: 13,533 रुपये औऱ 8,939 रुपये है। वहीं शहरी क्षेत्रों में 3.9 करोड़ पुरूष औऱ 1.1 करोड़ महिलाएं नियमित वेतन/भत्तों वाला काम करते हैं। इनकी मासिक आय क्रमश: 17,990 रुपये औऱ 14,560 रुपये है।

जहां तक आकस्मिक मज़दूरों की बात है तो ग्रामीण भारत में इनमें पुरूषों की संख्या 5.6 करोड़ और महिलाओं की संख्या दो करोड़ है। इनमें औसत प्रतिदिन मज़दूरी पुरुषों के लिए 268 रुपये और महिलाओं के लिए 173 रुपये है। आकस्मिक मज़दूरी करने वाली शहरी जनसंख्या में 1.3 करोड़ पुरूष और 29 लाख महिलाएं हैं। इनकी औसत प्रतिदिन मज़दूरी आय़ क्रमश: 324 रुपये औऱ 194 रुपये है।

अगर हम मान लें कि यह लोग महीने में 25 दिन का काम पा जाते होंगे तो आकस्मिक मज़दूरी करने वाले ग्रामीण पुरुषों की आय 6,668 रुपये और महिलाओं की आय 4,325 रुपये से ज्यादा नहीं होगी। वहीं शहरी क्षेत्रों में आकस्मिक मज़दूरी करने वाले पुरूषों की औसत मासिक आय 8,094 रुपये औऱ महिलाओं की आय 4,856 रुपये से ज्यादा नहीं होगी। इस तरह कहा जा सकता है कि ILFS के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत का आम आदमी औसत तौर पर हर महीने दस हजार रुपये से कम कमाता है।
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चूंकि भारत में कामगार और कुल जनसंख्या का अनुपात एक तिहाई है, तो इस तरह प्रति व्यक्ति औसत मासिक आ 3,300 रुपये या प्रतिदिन का 110 रुपये होती है। जाहिर है हम में से बहुत सारे लोग हर महीने 3,300 रुपये से ज्यादा कमाते होंगे। लेकिन आय वितरण में भारत में बहुत असमानता है।

भारत में कुल जनसंख्या का सिर्फ तीन फ़ीसदी हिस्सा ही आयकर की श्रेणी में आता है। अगर हम इसमें अमीर कृषकों, पूरी तरह कर चोरी करने वालों को भी शामिल कर लें और एक परिवार की औसत सदस्य संख्या को 4.2 फ़ीसदी मानें या यह मानें कि एक परिवार में एक ही सदस्य नौकरी करता है, तब भी यह संख्या 15 फ़ीसदी से ऊपर नहीं जाती। मतलब साफ है कि हिंदुस्तान की 85 फ़ीसदी आबादी व्यवहारिक तौर पर गरीब है। इनकी औसत प्रति परिवार मासिक आय निश्चित ही 10,000 रुपये से कम होगी।

85 फीसदी परिवारों के लिए उच्च शिक्षा बहुत दूर की बात है

इन 85 फ़ीसदी परिवारों के लिए उच्च शिक्षा दूर की बात है। सवाल उठता है कि क्या इन 85 फ़ीसदी परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चों को उच्च शिक्षा का कोई मौका मिलना चाहिए या नहीं (समान मौकों और एक समान स्तर की बात भूल जाइये)। अगर हम कमाई करने वाले परिवार में एक बीच की लाइन खींचें (Median) तो औसत भारतीय परिवार 5,000 रुपये से कम कमाता है। मतलब चार लोगों के परिवार में प्रति व्यक्ति औसत 60 रुपये प्रतिदिन से कम की कमाई। अगर शिक्षा को मुफ़्त नहीं किया जाता, तो जाहिर है इन परिवारों के बच्चे भारत जैसे कम विकसित और गरीब देश में पढ़ नहीं पाएंगे।

इसलिए सवाल उठता है कि क्या राज्य की कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं। क्या सिर्फ करदाता (अप्रत्यक्ष कर सभी देते हैं) आंतरिक और बाहरी सुरक्षा, अफसरशाही, न्यायव्यवस्था, और विधानसभा को चलाने चलाने के लिए पैसा दे रहे हैं या वह सरकार से स्वास्थ्य, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर भी चाहते हैं।

भारतीय राज्य ने पारंपरिक तौर पर यह ज़िम्मेदारी ली है और 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट को भी पारित किया गया। इसके ज़रिए 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाएगी। लेकिन 8वीं क्लास से ऊपर क्या?

शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर कुछ गंभीर समस्याएं हैं और उनका सुधार करने के लिए हमेशा जगह होती है। भारत में बहुत सारे प्राइवेट कॉलेज बिना गुणवत्ता जांच के चल रहे हैं। जो इनका खर्च उठा सकते हैं, वो अपने बच्चों को वहां भेज रहे हैं। लेकिन ऊंची फीस के चलते ज्यादातर भारतीय वहां अपने बच्चों को नहीं भेज सकते। इसलिए भारत का एक बहुसंख्यक हिस्सा सरकार प्रायोजित मुफ़्त की शिक्षा पर निर्भर है।

शिक्षा सिर्फ निचले तबकों को ऊपर उठाने के लिए अहम नहीं है, बल्कि इसके वृहद प्रभाव भी हैं। यूपीए-1 ने नेशनल कॉ़मन मिनिमम प्रोग्राम में जीडीपी का 6 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने का वायदा किया था। यह 15 साल पहले की बात है। फिलहाल सरकार जीडीपी का सिर्फ तीन फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करती है।

पंजाब, हरियाणा और पंजाब जैसे कुछ राज्य पीएचडी तक लड़कियों के लिए मुफ़्त शिक्षा की बात कर रहे हैं। लेकिन इसे सभी राज्यों द्वारा सभी विद्यार्थियों के लिए किया जाना चाहिए। आय पर आधारित लक्षित योजना हमारे देश में टाइप-1 और टाइप-2 खामियों (जरूरतमंदों का निष्काषन और गैर-जरूरतमंदों का समावेश) के चलते काम नहीं आती। साथ ही हमारी गरीबी रेखा भी सिर्फ गरीबों में भी गरीब को चिन्हित करती है। साथ ही एक संस्थान के छात्रों में अस्वस्थ वर्ग विभेद को पैदा नहीं किया जाना चाहिए।

असली मुद्दा

ऊंची कर दरों के बावजूद, भ्रष्टाचार और बड़े उद्योगपतियों से निकटता के चलते सरकार संसाधनों को नहीं लगा पा रही है। वेतन, पेंशन और पिछले उधार पर ब्याज़ के खर्च पर सरकार लगाम नहीं लगा सकतीं। राजकोषीय घाटे और जीडीपी अनुपात में भी एक स्तर की पाबंदी लगी है। इसलिए सामाजिक क्षेत्रों और पूंजी खर्च को सरकार आसान लक्ष्य समझकर निशाना बना रही है। निजी संस्थान उन लोगों के लिए आरक्षित हैं, जो उनका खर्च वहन कर सकते हैं। दुर्भाग्य से सरकारी संस्थानों को भी धीरे-धीरे स्वपोषित बनाया जा रहा है। जिसके चलते निचले तबके के 50-60 फ़ीसदी लोगों के लिए इनमें जाना मुश्किल होगा। कुलमिलाकर अगर उच्च शिक्षा को पूरी तरह मुफ्त नहीं किया जाता तो यह केवल ऊंचे तबकों तक सीमित रह जाएगी। अगर हम देश के भविष्य का निर्माण आबादी के आधे से कम हिस्से के हिसाब से करेंगे तो न केवल यह गलत होगा, बल्कि इससे देश की क्षमताओं का भी नुकसान होगा। पूरी सभ्यता का नुकसान होगा।

भारत के सार्वजनिक संस्थानों को जनता के पैसे से बनाया गया था। उच्च शिक्षा संस्थानों और शोध को पूरी तरह मुफ़्त बनाने के लिए सरकार को जीडीपी का केवल एक फ़ीसदी हिस्सा ही बढ़ाना होगा। मतलब खर्च में दो लाख करो़ड़ रुपये से भी कम बढ़ाने होंगे, जिसके लिए शिक्षा पर खर्च को जीडीपी के तीन फ़ीसदी से बढ़ाकर चार फ़ीसदी करना होगा। यह पैसा आसानी से उद्योगपतियों को दी जाने वाली छूट कम कर और टैक्स व्यवस्था को सुधारकर(टैक्स बटोरने वाली संस्थाओं, टैक्स इंफॉर्मेशन नेटवर्क में सुधार और भ्रष्टाचार को कमकर) इकट्ठा किया जा सकता है।
 
दुनिया के ज़्यादातर देश शिक्षा पर जीडीपी के 4.5 फ़ीसदी हिस्से से ज़्यादा खर्च करते हैं (नीचे देखें ग्राफ)।
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अगर हम ज्ञान औऱ समता पर आधारित मजबूत भारत बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी प्राथमिकताओं से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

लेखक Centre for Economic Studies and Planning, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why India Needs an Absolutely Free Public Education System

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