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क्यों भारतीय राज्य इंटरनेट शटडाउन पर अपनी निर्भरता बढ़ाता जा रहा है?

एक बार फिर भारतीय राज्य ने इंटरनेट शटडाउन का विकल्प अपनाया है, इस बार हरियाणा में यह प्रतिबंध लागू किए गए हैं, ताकि क़ानून-व्यवस्था पर नियंत्रण किया जा सके। 
Internet Shutdowns

एक बार फिर भारतीय राज्य ने इंटरनेट शटडाउन लागू किया है। इस बार यह शटडाउन हरियाणा में किया गया है। इशिता चिगिल्ली पल्ली बता रही हैं कि कैसे अक्सर होने वाले इंटरनेट शटडाउन ना केवल हमारे बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन हैं, बल्कि यह आर्थिक तौर पर नुकसानदेह और अकुशल हैं।

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लंबे वक़्त के लिए मोबाइल इंटरनेट सेवाओं को बंद करना भारत में केंद्र और राज्य सरकारों का पसंदीदा काम बन गया है। 

इस महीने की शुरुआत में हरियाणा के गृह विभाग ने राज्य के 5 जिलों में 30 घंटों के लिए मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद कर दी। यह प्रतिबंध करनाल में प्रस्तावित किसान महापंचायत के पहले लगाया गया था। प्रतिबंध के लिए कानून-व्यवस्था को ख़तरे का तर्क दिया गया था। 

पिछले महीने मेघालय में पुलिस द्वारा HNLC (हाइनीवट्रेप नेशनल लिबरेशन काउंसिल) के पूर्व उग्रपंथी की हत्या के बाद राज्य के कई हिस्सों में 48 घंटे के लिए मोबाइल इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं।

"सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ" के मुताबिक, 2012 से भारत में अबतक 540 बार इंटरनेट शटडाउन हो चुका है। यह संख्या 2012 में सिर्फ़ 3 थी, जो 2020 में बढ़कर 129 हो गई।

डिजिटल आज़ादी के लिए काम करने वाले संगठन "सेंटर" का कहना है कि इंटरनेट और संचार प्रतिबंध की औसत अवधि भी साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।  

जम्मू-कश्मीर ने इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव झेला है। जहां अब तक 315 बार इंटरनेट शटडाउन किया जा चुका है। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने और राज्य का दर्जा छीने जाने के बाद वहां इंटरनेट शटडाउन लागू कर दिया गया, जो अगले 6 महीने तक लागू रहा। 

24 जनवरी 2020 को धीमी 2जी सर्विस चालू की गईं। वह भी "अनुराधा भासिन बनाम् भारत संघ (2020)" में सुप्रीम कोर्ट द्वारा शटडाउन को संविधान के "अनुच्छेद 19(1) के तहत वाक् एवम् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" और "19(1)(g) के तहत व्यापार व उद्यम की स्वतंत्रता" के अधिकार का उल्लंघन बताए जाने के बाद ऐसा किया गया। 

आखिरकार 5 फरवरी, 2021 को जम्मू-कश्मीर में 552 दिनों के बाद 4G इंटरनेट सेवाएं दोबारा शुरू की गईं।

शटडाउन की वजह

प्रशासन द्वारा इन प्रतिबंधों के लिए आधिकारिक वज़ह "एहतियातन उठाए गए कदम", कानून-व्यवस्था का प्रबंधन, गलत जानकारी का प्रसार रोकना और परीक्षाओं में फर्जीवाड़ा रोकना बताया जाता रहा है। लेकिन आगे परीक्षण करने पर पता चलता है कि इंटरनेट शटडाउन दरअसल असहमति को रोकने, विरोध प्रदर्शन को कुचलने के लिए लगाए जाते हैं।

जर्मनी आधारित एक मीडिया संस्थान डायशे वेले के विश्लेषण से पता चलता है कि कई शटडाउन राज्य द्वारा होने वाली हिंसा की पृष्ठभूमि में लगाए गए हैं। रिपोर्ट कहती है, "बहुत सारे शटडाउन पुलिस क्रूरता और हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दौरान या उनके बाद लगाए गए हैं और इनका इस्तेमाल असहमति को कुचलने के लिए किया जाता है।"

यूनिवर्सिटी ऑफ़ एम्सटर्डम में शोधार्थी क्रिस रुइजग्रॉक द्वारा इसी मुद्दे पर किए गए एक दूसरे विश्लेषण से पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों के जिलों में इंटरनेट शटडाउन की संभावना तीन गुना ज़्यादा होती है। 

इंटरनेट शटडाउन किसी राज्य के किसी क्षेत्र में पूरी तरह ब्लैकआउट या आंशिक शटडाउन के ज़रिए लगाया जा सकता है। सरकारें आंशिक शटडाउन लगाने के लिए कुछ वेबसाइटों, एप्स या सामग्री को प्रतिबंधत करती हैं, किसी खास तरह के माध्यम जैसे मोबाइल तक पहुंच को ख़त्म करती हैं या फिर किसी खास क्षेत्र में इंटरनेट की गति धीमी कर लगाती हैं।

यह भेदभावकारी शटडाउन के तरीके केंद्र और राज्य सरकारों के पसंदीदा तरीके बनते नज़र आ रहे हैं, यह चिंता की बात है क्योंकि राज्य इन शटडाउन के संभावित नतीज़ों या प्रभावों की तरफ ध्यान नहीं देता। 

 शटडाउन से मौलिक अधिकारों का हनन

इंटरनेट शटडाउन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करता है क्योंकि इंटरनेट अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता का एक बड़ा माध्यम है। अनुराधा भासिन केस में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि अनुच्छेद 19(1)(a) में जो स्वतंत्रता मिली है, वह इंटरनेट पर भी लागू होती है। लेकिन 19(2) सरकार इन बुनियादी अधिकारों पर कुछ स्थितियों में "युक्ति युक्त" प्रतिबंध लगाने का अधिकार देता है। 

यह प्रतिबंधन कानूनी, वैधानिक और युक्तिसंगत होने चाहिए। कोई भी इंटरनेट शटडाउन जब तक नागरिकों को संसूचित नहीं किया जाता, वो कानूनी नहीं हो सकता, इस कदम से राज्य वक़्त-वक़्त पर बचता रहा है। जबकि अनुराधा भासिन के मामले में इसकी दोबारा पुष्टि की गई है।

क्या कोई प्रतिबंध युक्तिसंगत है या नहीं, यह अनुपातिक परीक्षण से तय पता लगाया जा सकता है, जिसका इस्तेमाल कोर्ट मौलिक अधिकारों को सीमित करने वाले मामलों में करते रहे हैं। साधारण शब्दों में कहें तो व्यक्तिगत आज़ादी पर लगाए गए किसी भी तरह के प्रतिबंध, अंतिम उद्देश्य के अनुपात में होने चाहिए।

भारत में सुप्रीम कोर्ट ने अनुपातिक परीक्षण के लिए चार स्तरीय प्रक्रिया तय की है। मॉडर्न डेंटल कॉलेज बनाम् मध्य प्रदेश राज्य (2016) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि व्यक्तिगत स्वंतत्रता को सीमित किए जाने को तब अनुमति दी जा सकती है, जब:

"1) अगर किसी सही उद्देश्य के लिए इसका उपयोग किया गया है 2) अगर इस उद्देश्य की पूर्ति से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने वाले कदम तार्किक ढंग से जुड़ते हैं 3) संबंधित कदम उस स्थिति में उठाए गए हैं, जब हासिल किए जाने वाले उद्देश्यों के लिए कोई ऐसे वैकल्पिक तरीके उपलब्ध नहीं थे, जिनसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम स्तर पर सीमिति किया जाता। 4) 'सही उद्देश्य को हासिल करने' और 'संवैधानिक अधिकार पर लगाम को रोकने के साामाजिक महत्व' के बीच ठीक संबंध होना चाहिए।"

कोई भी इंटरनेट शटडाउन सिर्फ़ आपातकाल में ही लगाया जा सकता है, जब उसकी ऐसी जरूरत हो, जब कोई दूसरे विकल्प मौजूद ही ना हों। इन्हें केवल अंतिम अस्त्र के तौर पर संबंधित प्रशासन द्वारा बहुत सोच-समझकर कानून के हिसाब से ही उपयोग किया जाना चाहिए, ना कि मनमुताबिक़ ढंग से इनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जिसमें पहले नागरिकों को इस बारे में सूचना भी नहीं दी जाती। 

अध्ययन से पता चलता है कि शटडाउन नहीं हैं कार्यकुशल, अर्थव्यवस्था को पहुंचाते हैं नुकसान

फिर इंटरनेट शटडाउन अक्सर अपने उद्देश्यों की पूर्ति भी नहीं कर पाते, इसलिए इनकी कार्यकुशलता पर भी सवाल है। इंटरनेट ब्लैकआउट का इस्तेमाल अक्सर विरोध को धीमा करने के लिए होता है। लेकिन स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जेन रायजाक द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला कि "भारत में सूचना-जानकारी पर प्रतिबंध लगाए जाने से प्रदर्शनों में भागीदार ऐसी सामूहिक कार्रवाईयां करने पर मजबूर होते हैं, जिनमें अहिंसक तरीकों के बजाए हिंसक तरीके शामिल होते हैं, जिनमें प्रभावी संचार और समन्वय पर कम निर्भरता होती है।"

भारत सरकार ने इंटरनेट शटडाउन को मापने के लिए ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया है। एक इंटरनेट शटडाउन के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए, सरकार को शटडाउन के प्रभावों पर विश्लेषण करना चाहिए।

आर्थिक मोर्चे की बात करें, ब्रिटेन आधारित "डिजिटल प्राइवेसी ऑर्गेनाइजेशन- टॉप 10 वीपीएन" के मुताबिक, 2020 में शटडाउन के चलते भारत को 2।8 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। संगठन का कहना है कि असली नुकसान और भी ज़्यादा हो सकता है, क्योंकि संगठन का ध्यान सिर्फ़ बड़े और क्षेत्रीय शटडाउन पर केंद्रित था। 

महामारी के दौरान इंटरनेट तक पहुंच भी बहुत अहम है और शटडाउन से स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और कांटेक्ट-ट्रेसिंग प्रभावित हो सकती है, जो कोविड-19 को नियंत्रित करने का एक अहम उपकरण है। 

NGO ह्यूमन राइट्स वाच के मुताबिक़, "एक स्वास्थ्य संकट के दौरान सही जानकारी और सही समय पर पहुंच बहुत जरूरी होती है। लोग स्वास्थ्य प्रक्रियाओं, आवाजाही पर प्रतिबंध और अपने आपको व दूसरों को बचाने के लिए जरूरी ख़बरों पर इंटरनेट के ज़रिए जानकारी ले सकते हैं।"

(इशिता चिगिल्ली पल्ली एक पत्रकार और यंग इंडिया फैलो हैं। वे मानवाधिकारों और पर्यावरणीय मुद्दों पर रुझान रखती हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why is the Indian State Increasingly Relying on Internet Shutdowns?

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