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क्यों बदल जाएगी जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफ़ी

नए डोमिसाइल नियम राज्य की संरचना को सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्थायी तौर पर बदल सकते हैं।
जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफ़ी

1990 के दशक में, जम्मू-कश्मीर ने इस संभावना का काफी तीव्रता से अनुमान लगाया था कि केंद्र सरकार मुसलमानों के बीच उग्रवादियों के बढ़ते समर्थन को रोकने के लिए राज्य की जनसांख्यिकी यानि डेमोग्राफी में बदलाव करना चाहती है, तब राज्य में 68 प्रतिशत की मुस्लिम आबादी थी। यह अटकल शायद इसलिए लगाई गई क्योंकि केंद्र सरकार कानूनी तौर पर जोर देकर कह रही थी कि भारतीय संविधान के मद्देनज़ार जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

अटकल लग्गाने वालों को लगा कि केंद्र सरकार के पास दो विकल्प हैं। जिसमें एक तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए को निरस्त करना था, जिसने जम्मू-कश्मीर में स्थायी स्टेट सबजेक्ट कौन हैं को परिभाषित किया था, और वे लोग ही सिर्फ राज्य सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पा सकते थे जो स्टेट सबजेक्ट यानि राज्य के स्थाई निवासी हैं, ये लोग ही केवल संपत्ति के अधिकार का आनंद उठा सकते थे, और विधानसभा चुनावों में मतदान कर सकते थे। इन अधिकारों ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि बाहरी लोग कभी भी इस राज्य को निगल नहीं पाएंगे और न ही इसकी पहचान को नुकसान पहुंचा पाएंगे।

उन वर्षों में, अनुच्छेद 370 के बिना और अनुछेद 35ए को निरस्त कर भारतीय राज्य की कल्पना करना मुश्किल था (जैसा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 5 अगस्त 2019 को कर दिया)। क्या ये गैर-राज्य-निवासियों को स्थायी निवासी प्रमाण पत्र जारी करने के दूसरे विकल्प को नहीं चुन सकते थे, जो अंततः समय के साथ जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट या विशेष पहचान को कमजोर कर सकता था?

जल्द ही, ये अटकलें एक लोकप्रिय आरोप में बदल गईं। इसने एक नाराजगी पैदा कर दी जिसने 1999 में मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को स्टेट सबजेक्ट जांच आयोग को जस्टिस ए॰क्यू॰ पारे (सेवानिर्वत) की अध्यक्षता में गठित करना पड़ा। आयोग को यह जांचने का काम सौंपा गया था कि क्या स्थायी निवासी प्रमाण पत्र उन लोगों को जारी किए जाने चाहिए जो इसके हकदार नहीं थे। स्थानीय भाषा में, ऐसे प्रमाणपत्रों को नकली पीआरसी या नकली स्थायी निवासी प्रमाणपत्र कहा जाता है।

आयोग ने 2013 में 137 पीआरसी की पहचान की और उन्हे रद्द करने की सिफारिश की थी। इसकी सिफारिश पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी-भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में राजस्व मंत्री बशारत बुखारी के 2016 में की थी। उन्होंने इस सिफारिश का समर्थन किया, कानून में संशोधन का सुझाव दिया, ताकि जो फर्जी पीआरसी जारी करते हैं उन्हे सख्त सज़ा दी जा सके और कैबिनेट को मंजूरी के लिए प्रस्तावों को भेज दिया गया जिनहे मंजूरी भी मिल गई थी। फिर फाइल मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पास पहुंची। और यहाँ आकर मामला शांत हुआ।

ऐसा लगता है कि 137 नकली पीआरसी किसी भी को परेशान करने के लिए काफी कम हैं। हालांकि, आयोग को केवल नकली पीआरसी रखने वाले लोगों के खिलाफ की गई शिकायतों की जांच करने का अधिकार था। वह खुद इसके परे मामले की जांच नहीं कर सकता था। बुखारी ने कहा, "यही वजह है कि आयोग की सूची [फर्जी पीआरसी की] को पूरी तरह से समाप्त नहीं माना जा सकता है।" केवल सभी पीआसी की व्यापक जांच नकली पीआरसी की सही संख्या के बारे में पता लगा सकती थी।  

यह पुरानी कहानी जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा 18 मई को अधिसूचित, डोमिसाइल सर्टिफिकेट (प्रक्रिया) नियम, 2020 के जम्मू और कश्मीर ग्रांट ऑफ डोमिसाइल सर्टिफिकेट मद्देनजर महत्व रखती है। ये नियम विभिन्न श्रेणियों के लोगों को डोमिसाइल प्रमाणपत्र के लिए जरूरी दस्तावेजों के साथ आवेदन करने की आवश्यक योग्यता निर्धारित करते हैं। 

पीआरसी उन कई दस्तावेजों में से एक है जिन्हें डोमिसाइल प्रमाण पत्र को हासिल करने के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके बाद, पीआरसी का महत्व समाप्त हो जाता है: इसके धारक को अब विशेष अधिकारों फायदा नहीं मिलेगा। डोमिसाइल प्रमाण पत्र रखने वाले सभी लोगों के पास समान अधिकार होंगे।

सरकार पीआरसी को ही डोमिसाइल प्रमाण पत्र समझ सकती थी। ऐसा इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि पीआरसी टेक्स्ट साक्ष्य था, इसलिए कहा जाए तो यह कश्मीरी पहचान की विशिष्टता है। जम्मू-कश्मीर सिविल सोसाइटी गठबंधन के प्रोग्राम कोओर्डिनेटर, खुर्रम परवेज ने कहा कि, "एक ही झटके में, पीआरसी एक अधीनस्थ प्रमाण पत्र बन गया है।" यह प्रतीकात्मक रूप से जम्मू और कश्मीर की विशेष पहचान को दफन करने का प्रयास है। भारत ने कश्मीर की पहचान को संरक्षित करने का वादा किया था जिसे अब लोकप्रिय रूप से भारत का विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) कहा जाता है।

इसे दफनाने से पहले, अधिकारियों के पास नकली पीआरसी से वास्तविक पीआरसी को अलग करने के का वक़्त बहुत कम होगा, जिसे डोमिसाइल प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। यह डोमिसाइल प्रमाणपत्र रूल्स में निहित कई अस्पष्टताओं का सिर्फ एक उदाहरण है। दो लेखकों में से एक, डोमिसाइल रूल्स के बारे में स्पष्टीकरण पाने के लिए सूचना विभाग के प्रमुख सचिव, रोहित कंसल के पास गया। कंसल ने उनसे व्हाट्सएप पर सवाल भेजने को कहा, और उन्हे सवाल भी भेज दिए गए। डोमिसाइल रूल्स की वजह से जम्मू और कश्मीर की डेमोग्राफी किस हद तक बदल सकती है, इसके बारे में लिखने से पहले हमने 48 घंटे तक उनके जवाब का इंतजार किया। 

15 वर्ष का नियम

डोमिसाइल नियमों की धारा 3 (ए) में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो "15 साल की अवधि" से   जम्मू-कश्मीर में रह रहा है, वह डोमिसाइल प्रमाण पत्र का हक़दार होगा। इस श्रेणी में वे सभी लोग शामिल होंगे, जिनके पास पीआरसी है, चाहे वह वास्तविक हों या फिर नकली, पश्चिम पाकिस्तान के शरणार्थी जो विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर में बस गए थे, और राज्य के बाहर से प्रवास किए लोग जो 15 साल या उससे अधिक समय से कश्मीर में हैं इसके हक़दार होंगे। वाक्यांश "15 साल की अवधि" का मतलब है कि उसे जम्मू-कश्मीर में उन वर्षों में लगातार रहना चाहिए। बाहर के प्रवासियों पर भी जनगणना के आंकड़े उपलब्ध हैं। उन लोगों की संख्या का पता लगाने के लिए डाटा निकाला जा सकता है जो डोमिसाइल नियमों से लाभ के हक़दार होंगे।

बाहरी प्रवासी

जम्मू और कश्मीर को उत्तर भारत के राज्यों में उन अपवादों में गिना जाता है जो अन्य राज्यों के प्रवासियों को आकर्षित करता है, मोटे तौर पर इसकी वजह वहाँ की उच्च मजदूरी है। यहाँ की मजदूरी राष्ट्रीय औसत मजदूरी से 1.43 गुना अधिक है, उत्तर प्रदेश की तुलना में 1.5 गुना अधिक है, और बिहार की तुलना में 1.64 गुना अधिक है (तालिका देखें)।

तालिका एक: जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रीय औसत, उत्तर प्रदेश (यूपी) और बिहार के मुक़ाबले मजदूरी का अनुपात

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प्रवासियों पर 2011 की जनगणना रिपोर्ट को देखते हुए, हमने पाया कि बाहरी प्रवासियों की जम्मू कश्मीर में 28.09 लाख संख्या है जबकि जामु-कश्मीर की आबादी 1.23 करोड़ है। (1.23 करोड़ में, लद्दाख, जिसे पिछले साल जम्मू-कश्मीर से बाहर किया गया था, की कुल आबादी मात्र 2.90 लाख है)। इससे लगता है कि बाहर के प्रवासियों की जम्मू-कश्मीर में बसने की इच्छा है, कम से कम इसलिए नहीं कि यहाँ मुफ्त शिक्षा है, बल्कि इसलिए कि यहाँ की उच्च गुणवत्ता वाली स्कूली शिक्षा उनके बच्चों के जीवन-अवसरों को बढ़ाती है। तालिका दो उन प्रवासियों के बारे में है, जो जम्मू-कश्मीर में रहते हैं।

तालिका दो: जम्मू और कश्मीर में प्रवासियों की संख्या का विवरण (2011 की जनगणना)

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तालिका दो से यह स्पष्ट है कि 2011 तक, लगभग 50 प्रतिशत प्रवासी या 14 लाख प्रवासी, पहले से ही 10 साल या उससे अधिक समय से जम्मू-कश्मीर में रह रहे थे। लगभग 12 प्रतिशत या 3.35 लाख प्रवासी, पाँच और नौ वर्षों के बीच के समय से रह रहे हैं। 2011 की जनगणना को अब दस साल बीत चुके हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि प्रवासियों की ये दोनों श्रेणियां डोमिसाइल प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए निर्धारित 15-वर्षीय नियम को पूरा करती हैं। दूसरे शब्दों में, 17.4 लाख लोग निश्चित रूप से डोमिसाइल का अधिकार हासिल कर लेंगे, जो कि 2011 में जम्मू और कश्मीर की 1.23 करोड़ की आबादी का लगभग 14 प्रतिशत बैठता है। (यह मानते हुए कि सभी दीर्घकालिक और मध्यम अवधि के प्रवासी जम्मू-कश्मीर में रह रहे है, जो 2011 की जनगणना में दर्ज है)। 

क्या इस आंकड़े की खिल्ली नहीं उड़ाई जा सकती है। हक़ीक़त यह है कि यह जम्मू और कश्मीर के  राजनीतिक नक्शे को बदल कर रख देगा। पहले के उलट, अब वे जम्मू और कश्मीर के विधानसभा और स्थानीय चुनावों में मतदान कर सकेंगे। जीत के अंतर के लगातार नीचे आने के कारण, डोमिसाइल प्रवासी एक अविश्वसनीय राजनीतिक वज़न हासिल कर लेंगे।

लेकिन 17.4 लाख का आंकड़ा तो एक गुबारे की तरह होगा, क्योंकि 2020 तक अल्पकालिक प्रवासियों का एक प्रतिशत भी 15 वर्षों तक जम्मू-कश्मीर में रहने का वक़्त पूरा कर लेगा। इसे इस संभावना के साथ जोड़ें कि "बेहिसाब" या बिना गिनती के प्रवासियों का एक हिस्सा, जो 2011 से जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं और वर्षों की संख्या नहीं बता पाए थे, वे भी 15 साल और उससे अधिक समय से रह रहे हो सकते हैं।

यह जम्मू और कश्मीर की जनसांख्यिकी की प्रकृति को बदल देगा, और उन लोगों के राजनीतिक महत्व को कम कर देगा जो वहाँ के स्थायी स्टेट सबजेक्ट हैं। यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि इस क्षेत्र की राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान एक साथ बुनी हुई है।

सात साल का नियम

डोमिसाइल सर्टिफिकेट रूल्स के सेक्शन 3 (ए) में कहा गया है कि एक व्यक्ति जिसने सात साल तक पढ़ाई की है और जेएंडके के टेरिटरी में दसवीं या बारहवीं कक्षा पास की है, वह डोमिसाइल सर्टिफिकेट के लिए आवेदन कर सकता है।

बच्चे, जब तक कि उन्हे एक आवासीय विद्यालय या सरकार द्वारा संचालित छात्रावासों में प्रवेश नहीं दिया जाता है, उनके जम्मू-कश्मीर में अपनी स्कूली शिक्षा को पूरा करने के लिए अकेले रहने की  संभावना बहुत कम है। ऐसे बच्चे कौन होंगे? वे बच्चे बाहरी प्रवासियों के होंगे, चाहे फिर वे छोटे-मोटे काम करते हों, या निजी क्षेत्र में काम कर रहे हों, या अपने खुद के व्यवसाय चला रहे हों। उनके माता-पिता 15 साल के नियम को पूरा नहीं कर सकते हैं, लेकिन उनके बच्चे जो सात साल तक जम्मू-कश्मीर में पढे या दसवीं या बारहवीं कक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं, वे इस शर्त को पूरा कराते हैं। उन बच्चों को धिक्कारा जाएगा जो परीक्षा में असफल हो गए होंगे! वे जम्मू-कश्मीर के डोमिसाइल नहीं बन सकते हैं।

यह संभव है कि जेएंडके में सात या आठ साल तक काम करने के बाद निजी क्षेत्र के कार्यकारी या अफसर, केंद्र शासित प्रदेश से बाहर स्थानांतरित किए गए हों। लेकिन उनके बच्चे भविष्य में डोमिसाइल  हासिल करने के लिए जेएंडके में वापस आ सकते हैं। 

कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन यहाँ एक अन्य विसंगति की ओर इशारा करती हैं: “डोमिसाइल रूल्स में कट-ऑफ अवधि नहीं होती है। संभवतः, पिछले 70 वर्षों में जिसने भी सात वर्षों तक पढ़ाई की है, वह डोमिसाइल प्रमाण पत्र हासिल कर सकता या सकती है।”

सभी लाभार्थियों को 15.4 वर्ष के नियम को पूरा करने वाले बाहरी प्रवासियों के 17.4 लाख की संख्या में इस संख्या को  भी जोड़ें और आप जम्मू-कश्मीर में किए जा रहे डेमोग्राफिक/जनसांख्यिकीय परिवर्तन की प्रकृति को समझ जाएंगे।

पाकिस्तानी शरणार्थी

15 साल के नियम के तहत वे परिवार भी आ जाएंगे जो पश्चिम पाकिस्तान से भागकर जम्मू-कश्मीर आ गए थे। जम्मू कश्मीर में 2.5 लाख से लेकर 5 लाख तक की संख्या में पश्चिमी पाकिस्तानी शरणाथी रहते हैं, वैसे इसकी संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान हैं। उनका बाहरी निवासी के स्टेटस को ध्यान में रखते हुए अनुछेद 35ए के उन्मूलन के औचित्य को महत्वपूर्ण कारण के रूप में उद्धृत किया गया था। शरणार्थी मुद्दे ने, हालांकि, 2018 में एक अप्रत्याशित मोड़ ले लिया है।

उस वर्ष में, केंद्र सरकार ने पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी परिवारों में से प्रत्येक को एक बारगी वित्तीय सहायता के रूप में 5.5 लाख रुपये देने का निर्णय लिया था। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस सहायता का लाभ उठाने के लिए एक भी परिवार ने आवेदन नहीं किया। कुछ लोगों ने आवेदन किया तो बाद में उन लोगों ने अपने आवेदन वापस ले लिए थे।

समाचार पत्र ने नौकरशाही और शरणार्थी नेताओं के हवाले से शून्य आवेदन की घटना को समझाने के लिए उनकी बातें अपनी रपट में दर्ज़ की थी। अधिकांश शरणार्थी या अपने निवास स्थान को साबित करने के लिए उस समय अपने साथ कोई दस्तावेज नहीं ला पाए थे जब वे पश्चिम पाकिस्तान से भागे थे या उन्होंने उन दस्तावेज़ों को बाद के दशकों में खो दिया था। या उन सभी ने समय रहते धोखाधड़ी कर पीआरसी की खरीद की थी। फर्जी पीआरसी हासिल करने के लिए उन पर मुकदमा लगाया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने 5.5 लाख रुपये के ऑफर को ठुकराया था जो कोई मामूली रकम नहीं थी। 

आदर्श रूप से देखें तो 2018 की घटना को तटस्थ प्रशासन को यह जांचने की कोशिश करनी चाहिए थी कि वित्तीय सहायता के ऑफर को हासिल करने के लिए एक भी पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी आगे क्यों नहीं बढ़ा। इसका मतलब साफ़ है कि फर्जी पीआरसी हासिल करने के लिए किए गए गलत कामों के इतिहास को भुला दिया जाएगा क्योंकि डोमिसाइल सर्टिफिकेट अब पीआरसी की जगह ले लेगा।

इंडियन एक्सप्रेस ने शरणार्थी नेताओं के हवाले से कहा कि जम्मू-कश्मीर में लगभग 20,000 पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी हैं। फिर इस दावे का आधार क्या है कि जम्मू-कश्मीर में 2.5 से 5 लाख तक शरणार्थी रहते हैं? इससे कौन सा उद्देश्य पूरा होगा? 

राज्यान्तरिक प्रवासी

डोमिसाइल सर्टिफिकेट रूल्स की धारा 3 (बी) उन सभी प्रवासियों को डोमिसाइल का अधिकार प्रदान करती है जो लोग जम्मू-कश्मीर में राहत और पुनर्वास आयुक्त (प्रवासियों) के साथ पंजीकृत हैं। ये अनिवार्य रूप से, वे प्रवासी हैं जो उग्रवाद के कारण कश्मीर से जम्मू में स्थानांतरित हुए थे।

43,930 परिवारों में से लगभग 1.53 लाख कश्मीरी प्रवासी राहत और पुनर्वास आयुक्त के दफ्तर के साथ पंजीकृत हैं। आयुक्त के दफ़तर के साथ 979 अन्य परिवार भी पंजीकृत हैं, जो जम्मू क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों, जैसे कि डोडा, उधमपुर, राजौरी और पुंछ से पलायन करके आए हैं, अपेक्षाकृत उग्रवाद से मुक्त क्षेत्रों में आए हैं।

ये सभी परिवार, जोकि जेएंडके के मूल निवासी हैं, के पास पीआरसी होनी चाहिए। इसके लिए भसीन ने एक प्रासंगिक सवाल उठाया: “चूंकि उन सभी के पास पीआरसी होनी चाहिए, इसलिए उन्होंने [आंतरिक] प्रवासियों के लिए एक अलग श्रेणी क्यों बनाई है। अधिकारियों का कहना है कि कश्मीरी पंडित, जो पहले [राहत और पुनर्वास आयुक्त के साथ] पंजीकृत नहीं थे, अब उन्हें पंजीकरण करने की अनुमति दी जाएगी। 

यह मानते हुए कि इन कश्मीरी पंडित के पास या उनके माता-पिता के पास पीआरसी होगी। इसलिए भसीन पूछती हैं, "क्या वे उन पंडितों को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं जो भारत के अन्य हिस्सों में बस गए थे वह भी एक सदी या उससे पहले?" घड़ी को पीछे की तरफ घुमाने से गैर-मुस्लिम कश्मीरियों की संख्या को बढ़ाएगा और उनकी शक्ति को भी बढ़ाएगा।”

कुलीन तबक़े को समाहित करना

शायद डोमिसाइल नियमों की सभी धाराओं में से सबसे विवादास्पद 3 (सी) है, जो कहती है कि "केंद्र सरकार के अधिकारी [एस], अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों," और अन्य लोग जो केंद्र सरकार के जम्मू और कश्मीर संस्थानों में "10 वर्ष की कुल अवधि" के लिए सेवा कर चुके हैं उन्हे डोमिसाइल प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने का हक़ होगा।

इसकी कोई कट-ऑफ अवधि निर्धारित नहीं की गई है, इससे तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि जेएंडके में सेवारत सभी बच्चे डोमिसाइल प्रमाण पत्र के लिए आवेदन कर सकते हैं, केवल उनके पास 10 वर्षों तक राज्य में सरकारी सेवा करने का सबूत होना चाहिए।

अब एक सवाल उठता है: क्या केंद्र सरकार के अधिकारी या सेना के जवान की सेवा में कुल मिलाकर 10 साल तक का समय बैठता है? इस "10 वर्षों की कुल अवधि" के अर्थ पर भ्रम का सबसे अच्छा उदाहरण यहाँ दिया गया है। किसी एक अधिकारी ने जम्मू-कश्मीर में चार या पांच साल तक सेवा की और उसके बाद उसे स्थानांतरित कर दिया गया। कुछ साल बाद, वह जम्मू और कश्मीर में फिर से पाँच या छह साल के लिए वापस लौट आया। कुल मिलाकर, ऐसे अफसरों या सेना के जवान ने 10 वर्षों की सेवा पूरी की होगी। क्या गणना का यह तरीका लागू होगा? या फिर अधिकारियों को 10 साल की सेवा एक साथ करने की आवश्यकता होगी? हमने रोहित कंसल से यह सवाल पूछा, उन्होने इसका कोई जवाब नहीं दिया।

हालांकि, ऐसा लगता है कि नियमों के फ्रेमवर्क का अर्थ संचयी अर्थों में "कुल" है, और इसलिए धारा 3 (ए) में जो वाक्यांश "15 साल की अवधि" कहता है, वह 15 वर्षों के निरंतर निवास का सुझाव देता है। ऐसा भी लगता है कि अधिकारियों के बच्चों को डोमिसाइल अधिकार की पेशकश की जा रही है, जो खुद इसके योग्य नहीं हैं, यह घोर गैरबराबरी का स्पष्ट उदाहरण है।

हम पिछले सात दशकों में केंद्र सरकार के उन अधिकारियों और अन्य अधिकारियों की संख्या की गिनती का डेटा हासिल नहीं किया हैं, जिनहोने जम्मू-कश्मीर में 10 साल की ड्यूटी पूरी की है। परवेज ने कहा, यह “संख्या बहुत बड़ी होगी। इसका मतलब बहुत साफ़ है कि जेएंडके के दरवाजे डोमिसाइल अधिकार हासिल करने लिए बाहरी लोगों के लिए खोले हा रहे हैं, ताकि वे वहाँ संपत्ति खरीद सकें या राज्य की नौकरियों में प्रवेश कर सकें।”

प्रलोभन

जाहिर है, धारा 3 (ए) या 3 (सी) में उल्लिखित बच्चे तब तक जम्मू-कश्मीर नहीं आ पाएंगे जब तक कि वे पूरी तरह वहाँ असफल न हो जहां वे रह रहे हैं, या उनकी प्रमुख प्रेरणा यहाँ आकार बसने की न हो। उनके लिए, जम्मू-कश्मीर के कानूनी आर्किटेक्ट प्रलोभन दे रहे हैं। उनके भीतर उन्हें हासिल करने का साहस होना चाहिए।

5 अगस्त 2019 तक जम्मू-कश्मीर के बाहर का कोई भी व्यक्ति वहां जमीन नहीं खरीद सकता था। लेकिन अब, सरकार ने जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने वाले बाहरी लोगों के लिए सभी कानूनी बाधाओं को हटा दिया है। इस प्रकार, जम्मू और कश्मीर ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट 1977 की धारा 139 और धारा 140, जम्मू-कश्मीर बिग लैंडेड एस्टेट्स एबोलिशन एक्ट, 1950 की धारा 20-ए और जम्मू-कश्मीर  एलिएशन ऑफ लैंड एक्ट 1938 की धारा 4 को समाप्त कर दिया गया है। इन प्रावधानों में बाहरी लोगों को जमीन की बिक्री और खरीद या हस्तांतरण पर प्रतिबंध था।

पूर्व कानून सचिव अशरफ मीर ने कहा, "ये बदलाव जम्मू-कश्मीर में संपत्ति हासिल करने के लिए बाहरी लोगों को निमंत्रण है।" कहने की जरूरत नहीं है कि, अगले 15 वर्षों में, वे जम्मू-कश्मीर डोमिसाइल  बनने का विकल्प भी चुन सकते हैं। चूंकि सत्ता धन का पीछा करती है, वे यहाँ तक कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भी प्रवेश करने की उम्मीद कर सकते हैं।

कानूनों के साथ छेड़छाड़ निम्न तबकों को भी प्रोत्साहन देती है। झुग्गी बस्ती अधिनियम, 2012 के मामले में जम्मू-कश्मीर संपत्ति अधिकार को लें, जिसमें "राज्य के स्थायी निवासी" को छोड़ दिया गया है, जिसमें खंड 3 भी शामिल है। इसके प्रभाव में, धारा 3 अब कहती है कि, "किसी भी कानून में निहित अभी कुछ भी लागू नहीं है" इसलिए प्रत्येक भूमिहीन व्यक्ति जो 01-01-2010 तक किसी भी शहर या शहरी क्षेत्र की झुग्गी बस्ती में रहता है, वह सस्ती कीमत पर एक आवास गृह का हकदार होगा।"

इससे हिंदी हार्टलैंड के निचले वर्ग को भी लुभाया जा सकता है, जो जम्मू-कश्मीर में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर सकता है और तरक्की के लिए सस्ता आवास भी हासिल कर सकता है। एक आवासीय घर के स्वामित्व से संपत्ति के दस्तावेज बनेंगे, जिसे डोमिसाइल प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। इसलिए, 2025 तक बाहरी प्रवासियों की एक बड़ी संख्या डोमिसाइल बन सकती है।

परवेज को लगता है कि स्लम ड़वेलर्स एक्ट में बदलाव दिल्ली का मास्टर-स्ट्रोक है। वे कहते हैं कि, “देश का शहरी मध्यम वर्ग का व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में बसने में विशेष दिलचस्पी नहीं रखता है, वह भी ऐसी जगह जहां भारत के अन्य हिस्सों की तुलना में अवसर बहुत सीमित हैं। वह यहाँ आने के बजाय विदेश जाना पसंद करेगा। इसके उलट, जबकि हिंदी हार्टलैंड के निम्न वर्ग के लिए यह एक आकर्षक पेशकश होगी।”

परवेज को यह भी लगता है कि जम्मू क्षेत्र में जमीन और मकान खरीदे जाएंगे, कम से कम उन जिलों में जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं। "घाटी में," "बाहरी लोगों को जमीन न बेचने का बड़ा सामाजिक दबाव होगा।" दबाव का यह रूप आतंकवादियों से भी आएगा।” परवेज ने यह भी कहा कि पाकिस्तानियों को कानूनी तौर पर कश्मीर के हिस्से में जमीन खरीदने से रोका जा सकता है जो उनके नियंत्रण में है।

निश्चित रूप से, जम्मू क्षेत्र की संरचना उसकी जनसांख्यिकी में आए बदलाव से बदल जाएगी। भसीन ने भविष्यवाणी की, “लैंड-शार्क, रियल्टर्स और बड़ी कंपनियों के लिए फ्लडगेट खुल जाएगा। पर्यावरण पर इसका प्रभाव गंभीर हो सकता है।”

पूर्व कैबिनेट मंत्री और कांग्रेस नेता रमन भल्ला ने धारा 3 (सी) के खिलाफ, यह तर्क दिया कि बाहरी लोगों को डोमिसाइल के रूप में शामिल करने से जम्मू-कश्मीर के निवासियों को शैक्षणिक संस्थानों में नौकरियों और सीटों को सुरक्षित करना मुश्किल होगा। लोगों में यह "घबराहट है," भल्ला ने कहा। "यही कारण है कि विधानसभा चुनाव कराने के लिए भाजपा इतनी अनिच्छुक है।"

एनआरआईसी बनाम डोमिसाइल प्रमाण पत्र: 

डोमिसाइल प्रमाणपत्र नियमों को इस तरह से बनाया गया है ताकि डोमिसाइल श्रेणी में अधिक से अधिक गैर-स्थायी निवासियों को शामिल किया जा सके। यह खंड 5 और खंड 6 के पढ़ने से स्पष्ट होता है। इस प्रकार, खंड 5 में उस "सक्षम प्राधिकारी" का नाम दिया गया है, जिसके सामने आवेदक को डोमिसाइल के समर्थन के लिए दस्तावेजों को प्रत्येक श्रेणी द्वारा जमा करना है। ज्यादातर मामलों में, यह अधिकार तहसीलदार है जो सक्षम प्राधिकारी है।

धारा 6 में कहा गया है कि सक्षम प्राधिकारी को 15 दिनों के भीतर डोमिसाइल प्रमाण पत्र के आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करना होगा। यदि 15 दिनों की समाप्ति पर ऐसा नहीं होता है, तो आवेदक अपीलीय प्राधिकारी को अपील कर सकता है, जो कि ज्यादातर मामलों में उपायुक्त है। अपीलीय प्राधिकारी को आवेदक की अपील, सक्षम प्राधिकारी या तहसीलदार को अपलोड़ करनी होगी, और अगले सात दिनों में प्रमाण पत्र जारी करना होगा, इसके विफल होने पर उस अधिकारी से 50,000 रुपये का जुर्माना लिया जाएगा।

फर्जी पीआरसी की घटना को देखते हुए, और आसानी से राशन कार्ड, किराये के दस्तावेज आदि को भारत में हासिल करते देखते हुए, तहसीलदार पर दबाव होगा कि वे सहायक दस्तावेजों के बारे में अपनी गलतफहमी को नजरअंदाज करें। आखिरकार, जो लोग प्रमाण पत्र हासिल कर लेंगे, वे अपीलीय प्राधिकरण के पास अपील करने नहीं जाएंगे।

स्पष्ट रूप से, डोमिसाइल सर्टिफिकेट नियम समावेश के सिद्धांत पर जोर देता है। दूसरे शब्दों में कहे तो यह नियम आवेदक को संदेह का लाभ देता हैं।

यह भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को तैयार करने के लिए निर्धारित प्रक्रिया के विपरीत है।  इसके यानि एनआरसी के तहत, कोई भी व्यक्ति, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में किसी व्यक्ति के नाम को शामिल करने पर विभिन्न चरणों में आपत्ति दर्ज़ कर सकता है। यह संदिग्ध व्यक्ति को साबित करना है कि उस पर लगाई गई आपत्ति गलत है। यहां कानूनी जोर बहिष्कार के सिद्धांत पर आधारित है।

क्या यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि एनआरआईसी की प्रक्रिया को मुस्लिमों और हाशिए पर रहने वाले तबकों को दूर करने के लिए कठोर बनाया गया है, जैसा कि कानूनी विशेषज्ञों ने हमें समझाया है? इसी तरह, यह निष्कर्ष निकालना क्या गलत है कि जेएंडके में डोमिसाइल प्रमाण पत्र देने की प्रक्रिया को कई बाहरी लोगों, अधिकतर हिंदूओं, को डोमिसाइल की श्रेणी में शामिल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है?

इन सवालों के जवाबों के बावजूद, एक बात तो निश्चित है - जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफी भयंकर रूप से बदलने को बाध्य हो जाएगी, इतनी तेज़ गति के साथ आश्चर्यजनक रूप से डोमिसाइल प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया काफी दुर्भाग्यपूर्ण है, जो अपने में एक अर्ध-औपनिवेशिक परियोजना प्रतीत होती है।

एज़ाज़ अशरफ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और विग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में पीएचडी के छात्र हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why J&K’s Demography Will Change Beyond Belief

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