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'मोदी सरकार के दस साल, यंग इंडिया के दस सवाल' ;  छात्र संगठन ने  शुरू किया अभियान

दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित प्रेस वार्ता में आइसा ने मोदी सरकार के दस सालों पर युवाओं के सावलों को उठाया।
aisa

छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट ऐसोसिएसन (आइसा) ने दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में गुरुवार को एक प्रेस वार्ता की। इस वार्ता के माध्यम से उन्होंने मोदी सरकार के दस सालों पर युवाओं के सावलों को उठाया।

आइसा ने अपने बयान में कहा, "हमारा देश आगामी 2024 के आम चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। युवा नागरिक के रूप में हममें से कई लोग इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पहली बार वोट डालेंगे। पिछले दशक में देश के संसाधनों और सार्वजनिक संस्थानों पर मोदी सरकार का घातक हमला देखा गया है। हमने अपनी सार्वजनिक वित्त-पोषित उच्च शिक्षा प्रणाली का क्रमिक क्षरण देखा है। इस हमले के आलोक में आइसा ने मोदी शासन के दस वर्षों के लिए जवाबदेही की मांग करने और आज के छात्र और युवाओं की मांगों को सामने रखने के लिए एक अभियान शुरू करने के लिए गुरूवार को प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई।"

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, प्रोफेसर जितेंद्र मीना और पत्रकार अनिल चमड़िया ने संबोधित किया।

प्रोफेसर सुंदर ने एक ऐसे अभियान की आवश्यकता के महत्व पर प्रकाश डाला, जो 2024 के चुनाव के एजेंडे को प्रभावित कर सकता है। उन्होंने कहा, “यह उस तरह की शिक्षा प्रणाली का मामला है जिसे हम इस देश में देखना चाहते हैं। यह पूछने और निर्णय लेने का मामला है कि 'क्या जानने लायक है'?”

उन्होंने डीयू में वर्तमान में चल रहे एडहॉक शिक्षकों के बड़े पैमाने पर विस्थापन पर भी टिप्पणी की और कहा, “हमारे विश्वविद्यालयों को बचाना आवश्यक और जरूरी है क्योंकि एक बार जब वे नष्ट हो जाएंगे, तो दशकों तक छात्रों की कई पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना होगा। अभी जिन प्रोफेसरों की नियुक्ति की जा रही है, उनकी क्षमताओं पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है, लेकिन इस मामले की सच्चाई यह है कि उनकी नियुक्ति उनके शिक्षण अनुभव या कौशल के आधार पर नहीं की जा रही है, बल्कि उन्हें सत्तारूढ़ दल के विचार पर चलने के लिए नियुक्त किया जा रहा है। और एक बार उन्हें नियुक्त किए जाने के बाद वे लंबे समय तक हमारे विश्वविद्यालयों में रहेंगे और पढ़ाएंगे। शिक्षकों की अगली पीढ़ी भी अब उनके द्वारा नियुक्त की जाएगी।”

वहीं पत्रकार अनिल चमड़िया ने विश्वविद्यालयों में मौजूद बड़ी असमानता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “जहां उच्च शिक्षा में प्रवेश की इच्छा रखने वाली महिलाओं, एससी, एसटी और ओबीसी छात्रों को संगठित रूप से प्रवेश से वंचित किया जा रहा है जो आज के एकलव्यों के अंगूठे काटने के तरीकों के रूप में देखा जा सकता हैं। वहीं यह सामाजिक हथियापन न केवल मूलभूत और केंद्रीय स्तर पर होता बल्कि विश्वविद्यालय हाशिए पर रहने वाले छात्रों के प्रति तेजी से शत्रुतापूर्ण हो गए हैं। ऐसे कई रोहित वेमुला हैं जिनकी संस्थागत हत्या नई शिक्षा नीति द्वारा व्यवस्थित रूप से निर्दिष्ट करती है।”

प्रोफेसर जितेंद्र मीना ने उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय की दयनीय स्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाला। एससी, एसटी, ओबीसी छात्रों के बहिष्कार के चौंकाने वाले स्तर का खुलासा करने वाले सरकार के अपने आंकड़ों का हवाला देते हुए प्रोफेसर मीना ने कहा, "2014-21 के बीच आईआईटी, एनआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केंद्रीय संस्थानों के 122 छात्रों ने आत्महत्या की। इन 122 में से 68 अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के थे।" उन्होंने AISA के इस अभियान के लिए शुभकामनाएं दीं और कहा कि यह जरूरी है कि भाजपा और संघ ब्रिगेड की छात्र विरोधी राजनीति को छात्र और युवाओं की सामूहिक ताकत से चुनौती दी जाए।

दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों के आइसा कार्यकर्ताओं ने इस देश के छात्रों और युवाओं के लिए गुणवत्तापूर्ण और सस्ती शिक्षा और सम्मानजनक रोजगार सुनिश्चित करने में वर्तमान सरकार की विफलता के लगातार बढ़ते स्तर को उजागर करने के लिए एक व्यापक अभियान चलाने का संकल्प लिया हैं। यह अभियान आगामी माह में देशभर के सभी विश्वविद्यालयों और छात्रों के आवासीय क्षेत्रों में चलाया जाएगा। 

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