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अमेरिका का चीन के ख़िलाफ़ चिप वार 2.0

ये पाबंदियां चीन के चिप निर्माण की वैश्विक बढ़त को धीमा कर सकते हैं। अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो आर्थिक क्षेत्र में चिप युद्धों के फैलने की संभावना बढ़ा देंगे।
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सेेमीकंडक्टर उद्योग में चीनी कंपनियों के खिलाफ पाबंदियां लगने के अपने ताजातरीन कदम में अमरीका ने कुछ ज्यादा ही भारी दांव लगा दिया लगता है। अमरीका ने ये पाबंदियां इस उम्मीद में लगायी हैं कि इस तरह से वह चीन के पांव में बेड़ी डाल सकता है और दुनिया के नक्शे पर अपना दबदबा बनाए रख सकता है। बहरहाल 1990 के नवउदारवाद के दशक के वैश्वीकरण और ‘मुक्त व्यापार’ के नारों से पलटकर अब दुनिया फिर से दूसरी अर्थव्यवस्थाओं की प्रौद्योगिकी तक पहुंच को रोकने की पुरानी जानी-पहचानी व्यवस्थाओं पर लौट चली है, जिनका अनुसरण शीत युद्घ के दौर में अमरीका और उसके सहयोगी किया करते थे।

ताजातरीन पाबंदियां

बेशक ये पाबंदियां कुछ समय तक तो इस अर्थ में काम कर भी सकती हैं कि उनके चलते सेमीकंडक्टर प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीन की प्रगति कुछ धीमी पड़ जाए लेकिन इनकी वजह से अमेरिका का सेमीकंडक्टर उद्योग चीन के रूप में जो अपना सबसे बड़ा बाजार गंवा देगा, उसके नतीजे भी कोई मामूली नहीं होंगे। इस प्रक्रिया में ताईवान और दक्षिण कोरिया के सेमीकंडक्टर उद्योग और जापान और योरपीय यूनियन के उपकरण निर्माता तो बिना कुछ किए-धरे ही साथ में पिस जाएंगे। यह हमें अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट हेनरी किसिंजर ने एक बार जो कहा था उसकी दोबारा याद दिला देता है कि, ‘अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक है लेकिन उसका दोस्त होना तो एकदम मारक है।’

अमेरिका ने इससे पहले 2021 के अगस्त में चीन से जुड़े चिप व्यापार पर पाबंदियां लगायी गयी थी। इसके बाद यह दूसरी बार लगाई गयी पाबंदियां हैं। इसका  मकसद यही है कि कंप्यूटिंग की उन्नत चिपों का आयात करने, सुपरकंप्यूटरों का विकास करने, उन्हें चालू रखने और उन्नत सेमीकंडक्टरों का निर्माण करने की चीन की क्षमताओं को सीमित किया जाए।

बेशक इन पाबंदियों को सैन्य कारणों से लगायी गयी पाबंदियों के आवरण में पेश किया गया है कि इनका मकसद चीन को ऐसी प्रौद्योगिकी और उत्पादों तक पहुंच से दूर रखना है, जिनका उपयोग चीन की सेना द्वारा किया जा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका ने जो पाबंदियां लगायी हैं, उनमें चीन के करीब-करीब सभी प्रमुख सेमीकंडक्टर उद्योग से जुड़े संस्थानों को निशाने पर लिया गया है और इस तरह असैनिक या नागरिक क्षेत्र को भी निशाना बनाया गया है। ‘सैन्य उपयोग पर रोक’ का झूठा दावा इसलिए गढ़ा गया है ताकि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अंतर्गत मामला न जाए। विश्व व्यापार संगठन के  सभी सदस्यों को बाजार तक पहुंच मुहैया कराने का तकाजा करते हैं, इस पाबंदियों को अपवाद की श्रेणी में डालने के लिए एक झीना सा अवरण मिल जाए।

किन-किन चीजों पर पाबंदियां लगी हैं ?

उन्नत लॉजिक, जैसे आर्टिफीशियल इंटैलीजेंस और हाई फरफार्मेंस कंप्यूटिंग चिप।

16 एनएम की लॉजिक चिपों तथा नॉन-प्लेनर लॉजिक चिपों के लिए उपकरण  जिसमें फिनफेट तथा गेट ऑल अराउंड शामिल हैं।

मैमोरी चिपें: एनएएनडी, जिनमें 128 या उससे ज्यादा परतें हों और 18 एनएम हाफ पिच के साथ डीरैम।

विशेष उपकरणों पर लगायी गयी पाबंदियां और आगे तक जाती हैं, जिनमें अनेक पुरानी प्रौद्योगिकियों को भी समेट लिया गया है। मिसाल के तौर पर एक टिप्पणीकार ने तो रेखांकित किया है कि इस क्रम में टूल्स पर लगायी गयी पाबंदियां तो इतनी व्यापक हैं कि इनमें ऐसी प्रौद्योगिकियों को भी समेट लिया गया है, जिनका उपयोग आइबीएम द्वारा 1990 के दशक की शुरूआत में भी किया जा रहा था। 

इन पाबंदियों के दायरे में ऐसी सभी कंपनियों को समेट लिया गया है, जो अपनी सप्लाई चेन में किसी भी अमेरिकी प्रौद्योगिकी या उत्पाद का उपयोग करती हों।  अमेरिकी कानूनों में इसी तरह का प्रावधान है कि कोई भी कंपनी जो अपने उत्पाद बनाने की प्रक्रिया में किसी भी प्रकार से अमेरिका के ‘संपर्क’ में आती है, खुद ब खुद अमरीकी पाबंदियों के दायरे में आ जाती है। यह अमेरिका के राष्ट्रीय कानूनों के दायरे का इकतरफा तरीके से विस्तार किया जाना है और इसका इस्तेमाल ऐसी किसी भी एंटिटी यानी कंपनी या किसी अन्य संस्था को दंडित करने तथा कुचलने के लिए किया जा सकता है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी भी रूप में अमेरिका के साथ जुड़ती हो। इन पाबंदियों को इस तरह से गढ़ा गया है ताकि अमेरिका और उसके सहयोगियों की आपर्ति शृंखला को चीन से पूरी तरह से काट दिया जाए।

अमेरिका की ताजातरीन पाबंदियों का एक और पहलू यह है कि इनमें प्रतिबंधित चीनी कंपनियों की पहले से अधिसूचित सूची के अलावा 31 अन्य कंपनियों को एक ‘अप्रमाणित सूची’ में डाल दिया गया है। इन कंपनियों को दो महीने के अंदर-अंदर अमरीकी अधिकारियों को पूरी-पूरी जानकारी देनी होगी, वर्ना उन पर भी पाबंदियां लगा दी जाएंगी। इतना ही नहीं, कोई भी अमरीकी नागरिक और यहां तक कि अमरीका में सामान्य रूप से रहने वाला व्यक्ति भी इन पाबंदीशुदा कंपनियों के लिए या अप्रमाणित सूची की किसी कंपनी के लिए भी काम नहीं कर सकता है और यहां तक कि पहले आपूर्ति किए गए उपकरणों की मरम्मत या रखरखाव का काम भी नहीं कर सकता है।

अमेरिका की बढ़त,बनाए रखने की कोशिश

वैश्विक सेमीकंडक्टर उद्योग कितना बड़ा है? और अमरीका की पाबंदियों के किस तरह के नतीजे हो सकते हैं?

सेमिकंडक्टर उद्योग इस समय 5 खरब डॉलर से ऊपर का हो चुका है और 2030 तक यह 10 खरब डॉलर से ऊपर निकल जाने वाला है। सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री एसोसिएशन और बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की एक रिपोर्ट है, ‘टर्निंग द टाइड फॉर सेमीकंडक्टर मैन्यूफेक्चरिंग इन द यूएस’। इस रिपोर्ट के अनुसार, सेमीकंडक्टर उद्योग की इस बढ़ोतरी का करीब 60 फीसद चीन से ही आने वाला है, जो इस मामले में विश्व भर के अगुआ के रूप में अमेरिका को प्रतिस्थापित करने जा रहा है। अमेरिका की ताजा पाबंदियों का और चीन के समीकंडक्टर उद्योग को अमेरिका और उसके सहयोगियों को पीछे छोडक़र आगे निकल जाने से रोकने की उनकी कोशिशों का फौरी कारण यही है।

बहरहाल, जहां इन कदमों का मकसद चीन को अलग-थलग करना तथा उसके विकास को सीमित करना है, चीन के खिलाफ इन पाबंदियों के लगाए जाने का खुद अमरीका तथा उसके सहयोगियों पर क्या नकारात्मक असर पड़ सकता है?

अमरीका और सहयोगियों पर, उल्टा पड़ेगा यह वार

अमरीका के लिए और उससे भी बढक़र ताइवान तथा दक्षिण कोरिया के लिए समस्या यह है कि चीन ही उनका सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है। उपकरणों तथा चिपों पर इस तरह की पाबंदियां लगाए जाने का अर्थ यह भी है कि उनके अपने बाजार का भी बड़ा हिस्सा छिन जाएगा और इसकी हाल-फिलहाल भरपाई होने के तो कोई आसार नजर नहीं आते हैं। वास्तव में यह बात सिर्फ चीन के पूर्वी एशियाई पड़ौसियों के संबंध में ही सच नहीं है बल्कि उस डच कंपनी जैसे उपकरण निर्माताओं के संबंध में भी सच है, जोकि दुनिया भर में एक्स्ट्रीम अल्ट्रा वाइलेट (ईवीएम) लिथोग्राफिक मशीनों की इकलौती आपूर्तिकर्ता है। ताईवान तथा दक्षिण कोरिया के लिए, चीन उनके सेमीकंडक्टर उद्योग का सबसे बड़ा आयातक ही नहीं है बल्कि उनके दूसरे अनेक उत्पादों का भी सबसे बड़ा आयातक है और उनकी अनेकानेक आयात जरूरतों के लिए सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता भी है। सेमीकंडक्टर उद्योग के मामले में उसकी अपूर्ति शृंखलाओं का जबर्दस्ती काट कर अलग किया जाना, अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह का अलगाव पैदा करने जा रहा है।

इसी प्रकार, अनेक अमरीकी कंपनियों पर भी इन पाबंदियों से भारी चोट पडऩे जा रही है। एलएएम, एप्लाइड मैटीरियल्स व केएलए कार्पोरेशन जैसे उपकरण निर्माताओं; साइनोप्सिस तथा केडेंस जैसी अमरीकी कंपनियों के इलैक्ट्रोनिक डिजाइन ऑटोमेशन (ईडीए) टूल; और क्वॉलकोम, एनविडिया तथा एएमडी जैसे एडवांस्ड चिप आपूर्तिकर्ताओं पर; इन पाबंदियों की बड़ी चोट पडऩे जा रही है। इन सभी कंपनियों का सबसे बड़ा बाजार चीन में ही है। अमरीका की समस्या यह है कि चीन दुनिया के सेमीकंडक्टर उद्योग का सबसे तेजी से विकसित होता हिस्सा ही नहीं है बल्कि उसका सबसे बड़ा बाजार भी है। इसलिए, ताजातरीन पाबंदियों से पाबंदी की सूची में डाली गयी चीनी कंपनियां ही पंगु नहीं होंगी बल्कि खुद अमरीकी सेमीकंडक्टर फर्में भी पंगु हो जाएंगी।

इन पाबंदियों के चलते, इन अमरीकी फर्मों के मुनाफों का बड़ा हिस्सा सूख जाएगा और इसलिए प्रौद्योगिकी में आने वाले समय में उसके निवेशों पर भी इसकी चोट पड़ेगी। बेशक, अमरीकी सरकार द्वारा निवेश के लिए कुछ संसाधन मुहैया कराए जा रहे होंगे, मिसाल के तौर पर 52.7 अरब डालर की चिप निर्माण सब्सीडी के जरिए। लेेकिन,  चीन के खिलाफ ताजा पाबंदियों के लगाए जाने से सेमीकंडक्टर उद्योग का जो नुकसान होने जा रहा है, यह सब उसकी भरपाई करने के आस-पास भी नहीं पहुंच सकता है। इसीलिए, सेमीकंडक्टर उद्योग ने तो यह सुझाया भी था कि पाबंदियों के दायरे को सीमित रखते हुए, चीन के प्रतिरक्षा तथा सुरक्षा उद्योग को ही इनका निशाना बनाया जाना चाहिए, न कि इस तरह की झाडूमार पाबंदियां लगायी जानी चाहिए, जैसी पाबंदियां अब अमरीका द्वारा लगायी गयी हैं। उनके हिसाब से जरूरत बारीक चाकू से नश्तर लगाने की थी, हथौड़े के इस्तेमाल की नहीं।

शीत युद्घ की कार्यनीति लौटी, पर हालात बदल चुके हैं

पाबंदियों का लगाया जाना और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं से काटा जाना कोई नयी चीज नहीं है। अमरीका तथा सहयोगियों की, शीत युद्घ के दौर में सोवियत संघ के प्रति भी ऐसी ही नीति रही थी। उस दौर में इसे वेस्सेनार व्यवस्था कहा जाता था और इस व्यवस्था का मकसद वही था, जिस मकसद से अब अमरीका ने सेमीकंडक्टर उद्योग के लिए पाबंदियां लगायी गयी हैं। अपने सार में वह व्यवस्था ऐसे किसी भी देश को, जिसे अमरीका ‘दुश्मन’ मानता था, प्रौद्योगिकी तक पहुंच से वंचित रखने की ही व्यवस्था थी, जिस पर अमरीका के सहयोगी तो आंख मूंदकर अपनी मोहर लगा देते थे। इन पाबंदियों का निशाना खास-खास उत्पादों पर रहता था, लेकिन इसके साथ ही उन टूल्स को भी निर्यात पाबंदियों के दायरे में खींच लिया जाता था, जिनका उपयोग उक्त उत्पादों को बनाने में किया जा सकता था। इस तरह की पाबंदियों के जरिए, सिर्फ समाजवादी गुट के देशों को ही नहीं बल्कि भारत जैसे देशों को भी उन्नत प्रौद्योगिकी से दूर रखने की कोशिश की जा रही थी और सुपर कंप्यूटरों, एडवांस्ड मैटीरियल्स तथा प्रसीजिन मशीन टूल्स तक, उनकी पहुंच का रास्ता रोका जाता था। बेशक, वास्सेनार व्यवस्था तो अब भी बनी ही हुई है, लेकिन अब जबकि रूस तथा भारत जैसे देश भी इन पाबंदियों के मामले में अमरीका की छतरी के नीचे आ चुके हैं, इस तरह की पाबंदियों का बहुत ज्यादा असर नहीं रह गया है। अब तो असली खतरा इसी में है कि  कोई पाबंदियों की अमरीकी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो जाए और खतरे का स्रोत यह है कि अमरीका अपने घरेलू कानूनों की ऐसी व्याख्याएं मनवाए ले रहा है, जहां उसके घरेलू कानून अंतर्राष्टï्रीय कानूनों पर और यहां तक कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों पर भी भारी पड़तेे हैं!

बहरहाल, उस जमाने में अमरीका तथा उसके सैन्य सहयोगियों--नाटो, सीटो व सेंटो--आदि के लिए अनुकूल स्थिति यह थी कि तब अमरीका तथा उसके योरपीय सहयोगी ही, दुनिया के सबसे बड़े विनिर्माता भी थे। इसके अलावा तब अमरीका का पश्चिम एशिया के हाइड्रोकार्बन यानी तेल व गैस संसाधनों पर भी नियंत्रण था और ये तमाम आर्थिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण संसाधन हैं। इसके विपरीत, चीन के खिलाफ वर्तमान चिप युद्घ उस समय पर चलाया जा रहा है, जब चीन दुनिया का विनिर्माण का सबसे बड़ा अड्डïा और दुनिया के 80 फीसद देशों का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी बन चुका है। ओपेक देश भी अब अमरीका के फारमान मानने के लिए तैयार नहीं हैं और वैश्विक ऊर्जा बाजार का नियंत्रण उसके हाथों से फिसल गया है।

विनाशकारी जाल में फंसने के खतरे

तब अमरीका ने चीन के खिलाफ ऐसे समय पर यह चिप युद्घ क्यों छेड़ा है, जब ऐसे युद्घ में जीतने की उसकी सामथ्र्य काफी सीमित ही है। अपना पूरा जोर लगाकर भी वह ज्यादा से ज्यादा, अपने समकक्ष एक वैश्विक सैन्य ताकत और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में चीन के उदय को धीमा ही कर पाएगा। इस युद्घ के छेड़े जाने का कारण तो उसी परिघटना से समझा जा सकता है, जिसे सैन्य इतिहासकार थुसिडिडेस जाल या फंदा कहते हैं। इसके अनुसार, जब एक उभरती हुई ताकत, किसी प्रभुत्वशाली सैन्य ताकत से होड़ लेने लगती है, अधिकांश मामलों में यह युद्घ की ओर ले जाता है। थुसिडिडेस के अनुसार, एथेंस के एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने का नतीजा यह हुआ कि तब की प्रभुत्वशाली सैन्य शक्ति, स्पार्टा ने उसके खिलाफ युद्घ छेड़ दिया और इसने दोनों को ही तहस-नहस कर दिया, जिसकी वजह से ही इसे एक जाल या फंदा कहा जाता है। बेशक अन्य सैन्य इतिहासकारों के अनुसार ऐसा होना कोई जरूरी नहीं है, फिर भी इतना तो तय ही है कि जब किसी प्रभुत्ववाशी सैन्य शक्ति का सामना किसी उभरती हुई ताकत से होता है, भौतिक युद्घ या आर्थिक युद्घ की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए अगर चीन तथा अमरीका के बीच यह थुसिडिडेस जाल एक आर्थिक युद्घ यानी चिप युद्घ तक ही सीमित बना रहता है, तो हमें इसे अपनी खुशकिस्मती समझना चाहिए।

बहरहाल अमरीका द्वारा लगायी गयी इन नयी पाबंदियों के साथ, अब एक बात तो तय हो गयी है कि मुक्त व्यापार की नवउदारवादी दुनिया पर बाकायदा ताला जड़ा जा चुका है। इस सचाई को भारत जैसे देश जितनी जल्दी समझेंगे, उनकी जनता के लिए उतना ही अच्छा रहेगा। और यह भी कि आत्मनिर्भरता का मतलब सिर्फ यह नहीं होता है कि हमारे देश में चीजें बनायी जाएं। आत्मनिर्भता का तो मतलब है, भारत में निर्माण करने के लिए, प्रौद्योगिकी तथा ज्ञान का विकास।

इस लेख का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया गया है।  इस लेख को अंग्रेजी में आप इस लिंक के जरिये पढ़ सकते हैं :

https://www.newsclick.in/Chip-War-v2-US-Decoupling-China-Declaring-War-Other-Means                                   

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