मोदी के गुजरात में गौ रक्षकों का बोलबाला: एक परिवार पर फिर हमला
गाय के नाम पर जारी हमले में एक और घटना जुड़ गयी है। गुजरात के कासोर गांव में दलित समाज के शैलेन्द्र और उनकी माँ को 15 से अधिक लोगी की हिंसा का तब सामना करना पड़ा जब वो शमशान के पास मरे हुए सांड का चमड़ा निकालने गए थे । बुधवार को पुलिस ने 17 लोगों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया है।
हालाकि शैलेश के अनुसार यह काम शुरू करने से पहले ही उनपर हमला किया गया । शैलेश ने आगे बताया कि "शुक्रवार को मुझे मेरे क्लाइंट का कॉल आया कि मैं उनके सांड का मृत शरीर उठा लूँ। मैंने हमेशा की तरह एक ट्रेक्टर किराये पर लिया और साँड़ के मृत शरीर को गांव ले आया। पर क्योंकि गांव में चमड़ा निकालने के लिए निर्धारित जगह पर पानी भरा हुआ था इसीलिए मैं शव को गांव के शमशान के पास एक खुले मैदान में ले गया । रास्ते में गांव के सरपंच ने मुझे देखा और कहा कि मैं यहाँ चमड़ा ना निकालूं , उनकी बात मानते हुए मैं शव को हमारी बस्ती के करीब ले गया ". अगले दिन 15 लोगों की एक भीड़ हमारे इलाके में मुझे ढूढ़ते हुए पहुंची। मेरी माँ किसी पड़ोसी से बात कर रही थी तब ही उन लोगों ने मेरे घर का पता उनसे पूछा। मेरी माँ ने जब उन्हें बताया कि मैं उन्ही का बेटा हूँ तो वो माँ के साथ गली गलौज करने लगे। ये सुनकर मैं घर से बाहर आया और तभी उन्होंने हमपर हमला कर दिया। मेरी माँ को पेट में काफी चोट लगी है और उन्हें काफी मानसिक आघात भी पंहुचा है ". हमले के बाद शैलेश की माँ को पास ही के अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। घटना के बाद शैलेश ने बताया कि वो ये काम 15 साल की उम्र से कर रहे हैं और उनके साथ पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। दलित समाज ने लोगों ने इसके बाद शनिवार को शिकायत की , जिसके बाद पुलिस ने बुधवार को क्षत्रिय समाज के 17 लोगों को गिरफ्तार किया।
ये घटना पिछले साल गुजरात में हुई ऊना की घटना की याद दिलाती है, जहाँ इसी तरह चार दलित युवाओं को मरी हुई गाय का चमड़ा निकालने पर बुरी तरह पीटा गया था। इसी के विरोध में दलितों ने मरी हुई गायों के शव कलेक्टर के ऑफिस के सामने फेंक दिए और जल्द ही उनका विरोध जन आंदोलन में बदल गया । इस आंदोलन में दलित प्रतिरोध के काफी तीखे स्वर उठे थे , जिनकी गूँज सहारनपुर में हुई घटना के बाद भी सुनाई दी।
गौ रक्षा के नाम पर जारी ऐसी घटनाएं दर्शाती हैं कि आज भी समाज में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं । पर दलित मेहनतकश तबकों से निकल रहे प्रतिरोध के स्वर काफी उम्मीद जगा भी रहे हैं। हमें ये समझना भी ज़रूरी है कि दलितों के सामाजिक मुद्दों को उनके आर्थिक मुद्दों से जोड़कर देखने से ही आगे का रास्ता नज़र आएगा। हालाकी इसके साथ समाज के सभी प्रगतिशील तकातों को एक साथ मिलकर इन मुद्दों पर क़ानूनी लड़ाई लड़ने के साथ साथ जन आन्दोलन को भी तेज़ करना होगा.
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